वैष्णव जन कलियुग के अज्ञान का नाश करते हैं तथा संकीर्तन यज्ञ की सात ज्वालाएँ
जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य गौरचन्द्र।
जयाद्वैतचन्द्र जय जय नित्यानन्द॥
“श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो!”
जय जय गदाधर जय श्रीनिवास।
जय मुकुन्द वासुदेव जय हरिदास॥
“गदाधर प्रभु की जय हो! श्रीवास ठाकुर की जय हो! मुकुन्द प्रभु तथा वासुदेव प्रभु की जय हो! हरिदास ठाकुर की जय हो”।
जय दामोदर-स्वरूप जय मुरारि गुप्त।
एइ सब चन्द्रोदये तमः कैल लुप्त॥
“स्वरुप दामोदर तथा मुरारि गुप्त की जय हो! इन सारे दैदीप्यमान चंद्रमाओं ने मिलकर इस भौतिक जगत के अंधकार को दूर भगाया है”।
जय श्री-चैतन्यचन्द्रेर भक्त चन्द्र-गण।
सबार प्रेम ज्योत्स्नाय उज्वल त्रिभुवन॥
“उन सारे चन्द्रमाओं की जय हो, जो चैतन्य महाप्रभु नामक प्रधान चन्द्रमा के भक्त है! उनका उच्चल चन्द्रप्रकाश समूचे बह्माण्ड को प्रकाशित करता है”। (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला १३.२-५)
इस श्लोक में चन्द्रगण बहुवचन सूचक है। इससे सूचित होता है कि चन्द्रमा अनेक हैं। भगवद्गीता (१०.२१) में भगवान् कहते हैं - नक्षत्राणामहं शशी - "मैं नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ। " सारे नक्षत्र (तारे) चन्द्रमा के समान हैं। पाश्चात्य ज्योतिर्विद नक्षत्रों को सूर्य समान मानते हैं, किन्तु वैदिक ज्योतिर्विद वैदिक शास्त्रों का अनुगमन करने के फलस्वरूप इन्हें चन्द्रमा के समान मानते हैं। सूर्य में बड़े जोर से से चमकने की शक्ति होती है, और चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने के कारण उज्जवल प्रतीत होता है। चैतन्य-चरितामृत में कृष्ण को सूर्य के सामान बतलाया गया है। परम शक्तिमान तो भगवान् श्रीकृष्ण या श्री चैतन्य महाप्रभु हैं और उनके भक्तगण भी उज्जवल तथा प्रकाशमय हैं, क्योंकि वे सर्वोपरि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हैं। चैतन्य-चरितामृत का कथन है (मध्य २२.३१):
कृष्ण-सूर्य-सम, माया हय अन्धकार।
याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार॥
"कृष्ण सूर्य के समान तेजस्वी हैं। सूर्य के उदय होते ही अंधकार या अज्ञान के रह पाने का प्रश्न ही नहीं उठता।"
इसी प्रकार इस श्लोक में भी यह वर्णन हुआ है कि कृष्ण-रूपी सूर्य-प्रकाश के परावर्तन से प्रकाशित इन चंद्रमाओं के प्रकाश से या चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की कृपा से यह सारा जगत कलियुग के अन्धकार के बावजूद प्रकशित हो उठेगा। केवल चैतन्य महाप्रभु के भक्त ही कलियुग के अन्धकार को, इस युग की जनता के अज्ञान को दूर कर सकते हैं। और कोई ऐसा नहीं कर सकता। अतएव हमारी यही कामना है कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सारे भक्त सर्वोपरि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हुए सारे जगत के अंधकार को दूर करें। (चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला १३.५ तात्पर्य)
चन्द्रगणों से कृपा याचना
समस्त ग्रह सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हैं, जिसके कारण वे प्रकाशमान हैं। परन्तु, राहु और केतु ऐसा नहीं करते हैं, इसलिए इन दोनों ग्रहों पर केवल अन्धकार है। हम सब में भी परम सूर्य (श्रीकृष्ण) के प्रकाश को परावर्तित करने की योग्यता होनी चाहिए। योग्यता अर्जित करने के लिए हमें चैतन्यचंद्र और चन्द्रगणों (चैतन्य-चंद्र के प्रिय भक्तों) से कृपा की याचना करनी चाहिए। भक्तों की कृपा प्राप्त किए बिना हम परम सूर्य (श्रीकृष्ण) को परावर्तित करने की क्षमता संवर्धित नहीं कर सकते।
चैतन्य-चरितामृत के प्रारम्भ में ही, श्रील कविराज गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रिय भक्तों की महिमा का गान करते हुए उनसे कृपा की याचना करते हैं। ऐसे भक्त रूपी चन्द्रगणों की कृपा के बिना कलियुग का अंधकार दूर नहीं हो सकता है।
कृष्ण-सूर्य-सम, माया हय अन्धकार।
याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार॥
" कृष्ण सूर्य के समान तेजस्वी हैं। सूर्य के उदय होते ही अंधकार या अज्ञान के रह पाने का प्रश्न ही नहीं उठता। "
अतः आपको योग्य बनना होगा। आपका हृदय भौतिक कल्मषों तथा अज्ञान से रहित होना चाहिए। कृष्ण-प्रेम विकसित करके आप एक ऐसे चंद्र बन जायेंगे जो परम सूर्य को परावर्तित कर सकता है और कृष्ण को अपने हृदय में आसीन कर सकते हैं। अन्यथा यह संभव नहीं हैं! श्रील प्रभुपाद के तात्पर्य का यह गद्यांश अति महत्वपूर्ण है: “इसी प्रकार इस श्लोक में भी यह वर्णन हुआ है कि कृष्ण-रूपी सूर्य-प्रकाश के परावर्तन से प्रकाशित इन चंद्रमाओं के प्रकाश से, या चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की कृपा से यह सारा जगत कलियुग के अंधकार के बावजूद प्रकशित हो उठेगा। केवल चैतन्य महाप्रभु के भक्त ही कलियुग के अंधकार को, इस युग की जनता के अज्ञान को दूर कर सकते हैं। और कोई ऐसा नहीं कर सकता। अतएव हमारी यही कामना है कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सारे भक्त सर्वोपरि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हुए सारे जगत के अंधकार को दूर करें।”
उत्तरदायित्व आप पर है
अतः योग्यता अर्जित करना कृष्णभावनामृत के भक्तों का परम कर्तव्य है। संस्थापक आचार्य श्रील प्रभुपाद ने यह दायित्व भक्तों को सौंपा है। प्रभुपाद जी के वक्तव्य की गंभीरता को समझें और स्वयं को योग्य बनाएं। चैतन्य-चंद्र के प्रिय भक्तों, चन्द्रगणों, की कृपा के बिना हम योग्य नहीं बन सकते। अतः हमें भक्तों की महिमा का गान करना चाहिए।
जय-जय श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो और श्रीवास समेत चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! (चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला १०.२)
जय जय शची-सुत गौरांग-सुंदर,
जय नित्यानंद पद्मावतीर कोङर ।
"सची माता के पुत्र परम सुंदर गौरांग महाप्रभु की जय हो! माता पद्मावती के पुत्र नित्यानंद प्रभु की जय हो!"
जय जय सीता-नाथ अद्वैत गोसांई,
याहार करुणा-बले गोरा-गुण गाई।
" माता सीता के स्वामी अद्वैत गोसाईं की जय हो! उनकी कृपा के बल से ही मैं भगवान गौर की महिमा गान कर पाने में समर्थ हूँ।" ये चैतन्य महाप्रभु के प्रिय असंख्य चंद्र हैं।
श्री वैष्णव-वंदना (श्रील देवकीनन्दन दास ठाकुर)
वृन्दावनवासी यत वैष्णवेर गण।
प्रथमे वन्दना करि सबार चरण॥१॥
सर्वप्रथम, मैं समस्त वृन्दावनवासी वैष्णवों के चरणो की वन्दना करता हूँ।
नीलाचलवासी यत महाप्रभुर गण।
भूमिते पड़िया वन्दों सबार चरण॥२॥
नीलाँचलवासी जितने भी महाप्रभु के गण हैं, पृथ्वी पर लेटकर मैं सबके चरणों की वन्दना करता हूँ।
नवद्वीपवासी यत महाप्रभुर भक्त।
सबार चरण वन्दों हञा अनुरक्त॥३॥
महाप्रभु के नवद्वीपवासी भक्तों के चरण कमलों से आसक्ति की प्रार्थना करते हुए, मैं वन्दना करता हूँ।
महाप्रभुर भक्त यत गौड़ देशे स्थिति।
सबार चरण वन्दों करिया प्रणति॥४॥
गौड़ देश वासी महाप्रभु के जितने भी भक्त हैं, सभी के चरणों में शरणागत होकर मैं उनकी वन्दना करता हूँ।
ये-देशे, ये देशे वैसे गौरांगेर गण।
ऊर्ध्वबाहु करि’ वन्दों सबार चरण॥५॥
इसके अतिरिक्त जहाँ-जहाँ पर भी गौरांग महाप्रभु के भक्त हैं, अपने दोनों बाहु उठाकर मैं उनके चरणों की वन्दना करता हूँ।
हञाछेन हइबेन प्रभुर यत दास।
सबार चरण वन्दों दन्ते करि घास॥६॥
भगवान् के जितने भी भक्त हो चुके हैं या जो भविष्य में होंगे, मैं दन्तों में तृण धारण कर (अतिशय दीनता का प्रतीक) सभी के चरणों की वन्दना करता हूँ।
ब्रह्माण्ड तारिते शक्ति धरे जने-जने।
ए वेद-पुराणे गुण गाय येबा शुने॥७॥
प्रत्येक भक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का उद्धार करने का सामर्थ्य रखता है - समस्त वेद व पुराण इसका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
महाप्रभुर गण सब पतितपावन।
ताइ लोभे मुञि पापी लइनु शरण॥८॥
महाप्रभु के समस्त भक्त पतितों का उद्धार करने वाले हैं, इसी लोभ से मुझ जैसे पापी ने भी भक्तों की शरण ग्रहण की है।
वन्दना करिते मुञि कत शक्ति धरि।
तमो-बुद्धिदोषे मुञि दम्भ मात्र करि॥९॥
मेरी तो वन्दना करने की भी शक्ति नहीं है। तमोगुणी बुद्धि दोष के कारण मैं तो वैष्णवों की वन्दना करने का दम्भ मात्र करता हूँ।
तथापि मूकेर भाग्य मनेर उल्लास।
दोष क्षमि’ मो-अधमे कर निज दास॥१०॥
तब भी इस मूक का सौभाग्य हैं कि मेरे मन में वैष्णवों के प्रति उल्लास है। कृपया इस अधम के दोषों को क्षमा करके अपना दास बना लीजिये।
सर्ववांच्छासिद्धि हय, यमबंध छूटे।
जगते दुर्लभ हञा प्रेमधन लूटे॥११॥
वैष्णवों कृपा से समस्त कामनाएं पूर्ण हो जाती है। यमपाश छूट जाता है तथा इस जगत् में अति दुर्लभ वस्तु ‘प्रेमधन’ की प्राप्ति होती है।
मनेर वासना पूर्ण अचिराते हय।
देवकीनन्दन दास एइ लोभे कय॥12॥
वैष्णवों की कृपा से मन की वासना शीघ्र पूर्ण हो जाती है। देवकीनन्दन दास इसी लोभ से वैष्णव महिमा गाता है।
सम्पूर्ण विश्व का भावी चर्च
महाप्रभु प्रेम-पुरुषोत्तम हैं। वह मुक्त-हस्त से सबको प्रेम प्रदान करते हैं।
नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते।
कृष्णाय कृष्णचैतन्यनाम्ने गौरत्विषे नमः॥
“हे परम करुणामय अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं”। (चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला १९.५३)
सच्चिदानंद भक्तिविनोद ठाकुर, श्रीकृष्ण-संकीर्तन को 'विश्व के भविष्य का चर्च' कहते थे। समस्त जाति, पंथ या वर्ग के प्राणी आत्मा की सर्वोच्च उन्नति और प्रसन्नता के लिए इस चर्च में सम्मिलित हों। यह चर्च सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित होगा और सभी संप्रदायिक चर्चों का स्थान लेगा।' क्या आप महाजन वाणी की महत्ता को समझ पा रहें हैं? यह संकीर्तन महाप्रभु का प्रेम धर्म है - परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम्।
घोर भौतिकवादी पाश्चात्य जगत के लोगों ने शीर्षतम सीमा तक भौतिक भोग भोगा, फिर भी वे शांति प्राप्त नहीं कर सके। अब वे सब कृष्ण-संकीर्तन से आकर्षित हुए हैं, और उन्होंने समस्त इंद्रिय भोगों को त्याग दिया है। उन्हें ज्ञात हो चुका है कि भौतिक भोगों में कोई सुख और शांति नहीं है। इसलिए वे सब महाप्रभु के आंदोलन में सम्मिलित हो रहे हैं। महाप्रभु ने भविष्यवाणी की है-
पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।
सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम॥
“इस पृथ्वी के प्रत्येक ग्राम और नगर में मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।” (चैतन्य-भागवत अन्त्य-खंड ४.१२६)
वास्तव में, यह भविष्यवाणी अब सच हुई है। यह संकीर्तन आंदोलन संसार के प्रत्येक भाग में विस्तारित हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु के भक्त प्रत्येक जगह में 'जय शचीनंदन !' का घोष कर रहे हैं। अनेक स्थानों पर भगवान जगन्नाथ की रथ-यात्रा में सब लोग 'जय शचीनंदन!' का उच्चारण करते हुए नृत्य कर रहे हैं। यह कैसे संभव है?
इस श्लोक के तात्पर्य में कहा गया है, "केवल चैतन्य महाप्रभु के भक्त ही कलियुग के अन्धकार को, इस युग की जनता के अज्ञान को दूर कर सकते हैं। और कोई ऐसा नहीं कर सकता।" संकीर्तन-यज्ञ द्वारा कृष्ण को प्रकट करो, तब अंधकार स्वतः नष्ट हो जायेगा। अज्ञानता ही वास्तव में अंधकार है। कलि-युग अंधकारमय है। झगड़ा, पाखंड, धोखा इत्यादि का मूल अज्ञान ही है। इसलिए आप सब गौर-भक्तों का कर्तव्य है कि [संकीर्तन-यज्ञ द्वारा] कृष्ण को प्रकट करें, ततपश्चात्त समस्त अंधकार और अज्ञान स्वतः समाप्त हो जाएगा। यही इस तात्पर्य का सार है। आपको ज्ञात होना चाहिए कि संस्थापक आचार्य श्रील प्रभुपाद क्या कह रहे हैं: “अतएव हमारी यही कामना है कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सारे भक्त सर्वोपरि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हुए सारे जगत के अंधकार को दूर करें”।
हृदय को समस्त भौतिक विकारों से शुद्ध करें
कृष्ण को प्रकट करने के लिए, हृदय को शुद्ध करना होगा, हृदय को वृन्दावन में परिवर्तित करना होगा, चेतो-दर्पण-मार्जनम । जब आपका हृदय समस्त भौतिक कल्मषों से पूर्णतया शुद्ध हो जायेगा, तब शुद्ध, अपराध रहित नाम जप द्वारा परम सूर्य कृष्ण, पूर्ण तेजोमय रूप में प्रकट होंगे - हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !! तब आप सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त कलियुग के अंधकार को नष्ट कर सकेंगे। यह कार्य केवल और केवल गौर-भक्त ही कर सकते हैं। इस्कॉन के संस्थापक आचार्य श्रील प्रभुपाद भक्तों से यही अभिलाषा रखते हैं। “अतएव हमारी यही कामना है कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सभी भक्त सर्वोपरि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हुए सारे जगत के अंधकार को दूर करें”। अतः जब तक आप कृष्ण-प्रेम विकसित नहीं करते, यह कार्य संभव नहीं हैं। महाप्रभु नाम जप के माध्यम से कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं।
हृदय को कृष्ण रूपी परम सूर्य से प्रकाशित करें
मुख्य पथे जीव पाय कृष्ण प्रेम धन
निरपराधे नाम लैले पाय प्रेम धन॥
यदि आपका जप अपराधरहित एवं शुद्ध है, तब आपको कृष्ण-प्रेम अवश्य प्राप्त होगा क्योंकि कृष्ण प्रेम-बंधन से बंध जाते हैं। महादानी महाप्रभु इस प्रेम को जप के माध्यम से मुक्त हस्त प्रदान करते हैं। अतः आपको गौरांग महाप्रभु के प्रिय भक्तों अर्थात असंख्य चंद्रों की कृपा प्राप्त करके, कृष्ण-प्रेम प्राप्त करने की योग्यता विकसित करनी चाहिए। श्रील प्रभुपाद की यही हार्दिक इच्छा है। सर्वप्रथम आप स्वयं पूर्ण कृष्णभावनाभावित हों तभी आप सभी जीवों को कृष्णभावनाभावित कर सकेंगे। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत कलियुगी अंधकार की उपस्थिति में भी प्रकाशित हो सकेगा।
पवित्र नाम ही जीवन का परम लक्ष्य है
कलियुग में पवित्र नाम का जप ही सर्व सिद्धि प्रदायक है। वास्तव में शुद्ध नाम कृष्ण से अभिन्न है। शुद्ध नाम के जप द्वारा आप कृष्ण को प्राप्त कर सकते हैं।
न नाम सदृशं ज्ञानं न नाम सदृशं व्रतम्।
न नाम सदृशं ध्यानं न नाम सदृशं फलम्॥
न नाम सदृशः त्यागो न नाम सदृशः शमः।
न नाम सदृशं पुण्यं न नाम सदृशी गतिः॥
नामैव परमा मुक्तिर् नमैव परमा गतिः।
नामैव परमा शांतिः नामैव परमा स्थितः॥
नमैव परमा भक्तिर् नमैव परमा मतिः।
नामैव परमा प्रियर् नमैव परमा स्मृतिः॥
नामैव कारणं जन्तोर नामैव प्रभुर् एव च।
नमैव परमाध्यो नमैव परमो गुरुः॥
(अग्नि पुराण, उद्धृत हरि-भक्ति विलास २.११.४६५-४६९)
ज्ञान, त्याग, धार्मिक अनुष्ठान, कठोर प्रतिज्ञा, ध्यान या अन्य कोई भी धार्मिक कार्य पवित्र नाम के समान या श्रेष्ठ नहीं हैं। सतत नाम जप ही मुक्ति का सर्वोच्च साधन है। पवित्र नाम का जप ही जीवन का परम लक्ष्य है। नाम ही कृष्ण है। पवित्र नाम का आश्रय ही सर्वोच्च शांति प्रदान करने वाला है। लोग पूछते हैं, "शांति कैसे और कहाँ प्राप्त होगी?" शांति केवल और केवल पूर्ण रूप से नाम का आश्रय लेने में ही है। नाम आश्रय ही एकमात्र स्थायी सुख देने वाला है। केवल नाम का आश्रय लेना ही सर्वोच्च भक्ति है। पवित्र नाम का आश्रय ही ज्ञान का परम अंत है। यह कपिलदेव-देवहूति संवाद में वर्णन किया गया है:
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेपुस्तपस्ते जुहुवु: सस्नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते॥
“ओह! वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्वाएँ आपके पवित्र नाम का जप करती हैं! कुत्ता खाने वाले (चण्डाल) वंशों में उत्पन्न होते हुए भी ऐसे पुरुष पूजनीय हैं। जो पुरुष आपके पवित्र नाम का जप करते हैं उन्होंने सभी प्रकार की तपस्याएँ तथा हवन किये होंगे और आर्यों के सदाचार प्राप्त किये होंगे। आपके पवित्र नाम का जप करते रहने के लिए उन्होंने तीर्थस्थानों में स्नान किया होगा, वेदों का अध्ययन किया होगा और ऐसा वरदान प्राप्त करने हेतु अपेक्षित हर वस्तु की पूर्ति की होगी।” (श्रीमद्-भागवतम ३.३३.७)
जिनकी जिह्वा सदा शुद्ध एवं पवित्र हरे कृष्ण नाम का जप करती है, उन्हें समस्त वैदिक ज्ञान स्वतः लब्ध हो जाता है। वास्तव में, पवित्र नाम ही सर्वोच्च ज्ञान है। समस्त वैदिक ज्ञान का सार कृष्ण हैं। शुद्ध नाम में रूचि होना ही सर्वोच्च प्रेम है। पवित्र नाम का स्मरण ही वास्तविक स्मरण है। पवित्र नाम ही समस्त जीवों का मूल कारण है और पवित्र नाम ही एकमात्र स्वामी है। पवित्र नाम का स्मरण ही समस्त पूजा-अर्चना का सर्वोच्च उद्देश्य है और पवित्र नाम ही आध्यात्मिक गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ है।
क्या आप योग्य पात्र हैं?
अतः भगवद् नाम ही सार है, और महाप्रभु वह पवित्र नाम निःशुल्क प्रदान करते हैं। परन्तु जब तक आप योग्य पात्र नहीं बनते, तब तक नाम का उच्चारण नहीं कर सकते हैं। अतः पात्रता अर्जित करने के लिए आपको एक शुद्ध वैष्णव से प्रार्थना करनी चाहिए।
कृष्ण सॆ’ तॊमार, कृष्ण दितॆ पारो,
तॊमार शकति आछॆ
आमि तो’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बोलि,
धाइ तव पाछॆ पाछॆ
"ओ वैष्णव ठाकुर, कृष्ण आपकी सम्पत्ति हैं, तोमार ह्रदये सदा गोविन्द विश्राम, कृष्ण आपके हृदय में रहते हैं क्योंकि आपका हृदय वृन्दावन है। आपने कृष्ण को अपने हृदय में प्रेम रज्जु से बांध लिया है।
अतः केवल आप ही मुझे कृष्ण प्रदान कर सकते हैं। मैं कंगाल हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं समस्त भौतिक वस्तुओं से वंचित हूँ। इस संसार में कुछ भी सार नहीं है। मैं केवल कृष्ण चाहता हूँ।" इस प्रकार आपको वैष्णवों के पीछे भागना पड़ेगा "कृपया, मुझे कृष्ण दो! मुझे कृष्ण दो!"
"अच्छा, आप को कृष्ण चाहिए? मैं तुम्हें कृष्ण प्रदान करूँगा। परन्तु, तुम कृष्ण को कैसे स्वीकार करोगे? तुम्हारी पात्रता क्या है? यदि आप पात्र हैं तो कृष्ण को प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु यदि आप पात्र नहीं हैं, तब क्या होगा? इसी विषय को चित्रित करने वाली एक कहानी प्रस्तुत है।"
काग और करेला
एक बार एक कौवे ने एक पका हुआ करेला देखा जिसके बीज लाल थे। कौवे ने विचार किया, "मुझे इस फल को खाना चाहिए।" परन्तु पौधे ने कहा," आपको इस फल को खाने का अधिकार नहीं है। यह मेरे स्वामी के लिए है।"
"आपका स्वामी कौन है?"
"जिसने धरती में बीज को बोया है और मेरी रक्षा की है, वह मेरा स्वामी है। उनके पास जाकर फल खाने की आज्ञा लो।"
कौवा स्वामी के पास गया और पूछा, "आपके बगीचे में बेल पर एक पका हुआ करेला है। मेरी उस करेले को खाने की इच्छा है।"
स्वामी ने उत्तर दिया, "आप इस फल को कैसे खा सकते हैं? यदि आपने इसे उगाया होता, तभी आपको इसे खाने का अधिकार होता। इसका बीज मैंने बोया, पौधे (बेल) की रक्षा करी, तब जाकर यह बड़ा हुआ और फूल और फल उत्पन्न हुए। अतः इस फल पर केवल मेरा ही अधिकार है। यदि आप इस फल को खाना चाहते हैं तो आप स्वयं के उपभोग के लिए फल उगाएं।"
परन्तु, "मैं फल कैसे उगा सकता हूँ?"
पहले भूमि को तैयार करें और फिर बीज बोयें।"
भूमि तैयार करने के लिए क्या चाहिए?"
"सर्वप्रथम हल और बैलों की सहायता से भूमि तैयार करें। फिर बीज बोयें, तब बीज अंकुरित होगा और पौधा बढ़ेगा। फिर इसमें फल आएगा और अंत में फल पक जाएगा।"
"मुझे हल कहाँ मिलेगा?"
"लोहार के पास जाओ। वह लोहे से हल बनाता है।"
कौवा लोहार के पास गया। "ओ लोहार, मुझे पका करेला खाने की इच्छा है। मैं करेले उगाना चाहता हूँ। क्या मेरे लिए हल बना सकते हो?" "ओह, मैं तुम्हें हल दे दूँगा, लेकिन क्या तुम इसे ले पाओगे?" लोहार ने भट्टी गरम करके उसमें लोहा डाल दिया। जब लोहा लाल-गर्म हो गया तो लोहार ने इसे आकार देने के लिए हथौड़े से पीटना प्रारम्भ किया। "क्या आप इसे लेने के लिए तैयार हैं? यह लाल-गर्म है! यह तुम्हें जला देगा। क्या तुम इसे ले जा सकते हो?"
कौवे की करेला खाने की तीव्र इच्छा के कारण कौवा बोला, “हाँ यह हल मुझे चाहिए।”
लोहार ने पूछा, “तुम इसे कैसे ले जाओगे?”
कौवे ने अपना मुंह खोलकर कहा, “इसे मेरी चोंच में रख दो”।
जैसे ही लोहार ने लाल–गर्म हल की फाल को कौवे की चोंच में रखा, कौवा जलकर राख हो गया । सारांश यह है कि कौआ हल को किस प्रकार ले जा सकता था? हल को ढोने के लिए वह एक योग्य वाहक नहीं था।
ठीक इसी प्रकार आप भी कृष्ण को प्राप्त करना चाहते हैं और इस कारण से आप शुद्ध वैष्णव के पीछे क्रंदन करते हुए भाग रहे हैं, "मुझे कृष्ण दीजिये! मुझे कृष्ण दीजिये!" लेकिन क्या आप कृष्ण को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? मैं तुम्हें कृष्ण प्रदान कर दूंगा परन्तु क्या तुम कृष्ण धारण करने में सक्षम हो? कृष्ण को प्राप्त करना इतना सरल नहीं है। अतः सर्वप्रथम स्वयं को कृष्ण प्राप्ति हेतु योग्य बनाएं ।
चैतन्य महाप्रभु भेदभाव रहित कृष्ण-प्रेम वितरित करते हैं
इस कहानी में कौवे की स्थिति क्या थी? कौवे में हल को धारण करने की योग्यता नहीं थी। हमारी भी यही स्थिति है। हम अत्यंत पतित, नीच, अधम हैं। हमारे भीतर कृष्ण को धारण करने की कोई भी योग्यता नहीं है। परन्तु, महाप्रभु अद्भुत एवं अत्यंत कृपामय हैं। वे पतित-पावन हैं, पतित जीवों के उद्धारक हैं। वे सबको कृष्ण-प्रेम वितरित करते हैं। वे कृष्ण प्रदाता हैं।
इसी प्रकार, गौर-प्रिय भक्त भी कृष्ण प्रदान करते हैं क्योंकि उन्होंने कृष्ण को अपने हृदय में बांध लिया है। उन्होंने शुद्ध नाम जप द्वारा कृष्ण-प्रेम विकसित कर लिया है। गौरांग महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु और उनके प्रिय भक्तों की कृपा से गौर-प्रिय चंद्र जीवों को कृष्ण प्रदान कर रहे हैं। परन्तु सर्वप्रथम उस प्रेम को प्राप्त करने के लिए आपको सुपात्र होना चाहिए। अन्यथा आप इसे प्राप्त करने के पश्चात भी खो देंगे। सुपात्र व्यक्ति की स्थिति क्या है?
तृणादपि सुनीचेन तरोर इव सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:॥
“जो अपने आप को घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।” (चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला १७.३१)
यह महाप्रभु का उपदेश है। इसका यथावत पालन करना चाहिए। श्रील कविराज गोस्वामी कहते हैं: इस श्लोक की माला बनाकर कंठ में धारण करके सदा जप कीजिए, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक तुच्छ समझना चाहिए। वृक्ष के भाँति सहनशील होना चाहिए। कभी भी आदर या सम्मान की आकांक्षा न करें। अपितु प्राणी मात्र का सम्मान करें। चैतन्य-चरितामृत के रचयिता श्रील कविराज गोस्वामी कहते हैं, "मैं सबसे अधम हूँ।"
जगाई मधाई हैते मुञि से पापिष्ठ।
पुरीषेर कीट हैते मुञि से लघिष्ठ॥
मोर नाम शुने येइ तार पुण्य क्षय।
मोर नाम लय येइ तार पाप हय॥
(चैतन्य-चरितामृता आदि-लीला ५.२०५-२०६)
परमहंस शिरोमणि श्रील कविराज गोस्वामी कहते हैं, "मैं मल के कीट से भी अधिक तुच्छ हूँ। मैं जगाई और मधाई से भी अधिक पापी हूँ। मेरा नाम मत लो, अन्यथा तुम्हारे संचित पुण्य क्षय हो जायेंगे।" ऐसा मनोभाव होना चाहिए। तब ही आप एक योग्य पात्र बन पाएंगे।
एइ-मत हञा येई कृष्ण-नाम लय।
श्री-कृष्ण-चरणे ताँर प्रेम उपजय॥
“यदि कोई इस तरह से कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करता है, तो वह निश्चय ही कृष्ण के चरणकमलों के प्रति अपना सुप्त प्रेम जाग्रत कर लेगा”। (चैतन्य-चरितामृता अंत्य-लीला 20.26)
इस मनोभाव के साथ 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' का जप प्रेम-नाम है। जब नाम का उच्चारण प्रेम प्रदान करने में समर्थ हो जाये, तब यह साधारण नाम-संकर्तन न होकर, प्रेम-नाम-संकीर्तन कहलाता है। यह संकीर्तन गौरांग के मुखकमल से स्फुटित प्रेम अर्थात गौरंगउद्गीर्ण नाम प्रदान करता है। गौरांग द्वारा उच्चारित कृष्ण नाम ज्वालामुखी सदृश है। जो भूमि के अन्तः में होता है, वही ज्वालामुखी विस्फोट से बाहर आता है। महाप्रभु के अन्तः में प्रेम का सागर है जो नाम के माध्यम से बाहर आ रहा है। वह शुद्ध-नाम है। अन्यथा, यह शुद्ध नाम नहीं अपितु केवल अक्षर उच्चारित कर रहें हैं, - नामाक्षर बाहिराय नाम नाही हय [भक्तिविनोद ठाकुर] - ह-रे, कृष्-ण, रा-म। ऐसी स्थिति में आप एक योग्य पात्र कैसे बनेंगे?
सौभाग्य रूपी श्वेत कमल को पुष्पित करने वाला पूर्ण चंद्र
कलियुग एक विशेष युग है क्योंकि:
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण: ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥
(श्रीमद्-भागवतम् १२.३.५१)
कलियुग दोषों का सागर है। फिर भी, इसमें एक सद्गुणहै: कीर्तनादेव कृष्णस्य - केवल कृष्ण-कीर्तन द्वारा कलियुग के समस्त पाप और दोष नष्ट हो जाते हैं। नाम-संकीर्तन का यही प्रभाव है ।
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयः-कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम्।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादन
सर्वात्म-स्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम्॥
“भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्ज्वलित अग्नि के दुःखो का शमन कर सकता है। यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है, जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है। यह समस्त विद्या का जीवन है। कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनंदमय सागर [का] विस्तार करता है। यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है।” (चैतन्य-चरितामृत अन्त्य-लीला २०.१२)
संकीर्तन यज्ञ की सात ज्वालाएँ
संकीर्तन यज्ञाग्नि की सात ज्वालाएँ हैं - सप्त-जिह्व, जो कलियुग के समस्त दोषों को भस्म करने वाली हैं।
- प्रथम ज्वाला चेतो-दर्पण-मार्जनम् है जो हृदय में असंख्य जन्मों से संचित मल का मार्जन करती है। हृदय में हिमालय पर्वत जैसे विशाल असंख्य अनर्थ हैं, परन्तु संकीर्तन यज्ञ इन सभी अनर्थों को जलाकर भस्म कर देता है।
- द्वितीय ज्वाला, भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्, भौतिक कष्ट या त्रिताप (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) रूपी दावाग्नि को बुझा देती है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति भौतिक अस्तित्व की कड़ाही में जल रहा है। लेकिन यदि आप श्री-कृष्ण संकीर्तन में भाग लेते हैं, तो यह अग्नि शमित हो जाएगी ।
- तृतीय ज्वाला श्रेयः-कैरव-चंद्रिका-वितरणम् है। कृष्ण रूपी सूर्य का प्रकाश चंद्रमा में प्रतिबिंबित होगा। त्रितापों से पीड़ित व्यक्ति को, हरि नाम द्वारा पूर्ण चंद्र की सर्व मंगलकारी शीतल चाँदनी प्राप्त होती है।
- चतुर्थ ज्वाला विद्या-वधू-जीवनम् है। संकीर्तन विद्या-वधू का जीवन है। यहाँ विद्या का अर्थ आध्यात्मिक ज्ञान है, भौतिक ज्ञान नहीं। वधू अर्थात नवविवाहिता स्त्री। जब कोई नवविवाहिता स्त्री प्रथम बार अपने ससुराल आती है, तो वह सिर पर पल्लू डाल कर शर्माते हुए चलती है। उसका सम्पूर्ण शरीर ढका रहता है और वह धीरे-धीरे चलती है। उसमें लज्जा होती है। सती नारी का ऐसा शील आचरण होता है। दुर्भाग्यवश, आजकल भौतिक शिक्षा के कारण लड़कियों में शील और लज्जा समाप्त हो गई है। समर्पण और विनम्रता नहीं रह गई है। आजकल केवल गर्व और अहंकार ही दिखता है। लड़कियाँ सिर ऊपर उठाये हुए चलती हैं। छोटे-छोटे कपड़े पहने हुए घोड़ी की तरह टाप मारती चलती हैं, टोक-टोक, टोक-टोक। आधुनिक शिक्षा में शीलता इसलिए नहीं है क्योंकि आधुनिक शिक्षा में कृष्ण-संकीर्तन नहीं है। अगर आप कृष्ण-संकीर्तन करेंगे, तो शीलता स्वतः आ जाएगी। उक्ति है कि विद्या ददाति विनयं, शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान से विनम्रता आती है। अतः यदि आप संकीर्तन करेंगे, तो आप स्वतः विनम्र हो जायेंगे।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
“विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।” (श्रीमद्भ-गवद्गीता ५.१८)
आजकल लोगों में विनम्रता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति कहता है, "मैं महान हूँ!" "नहीं, मैं महान हूँ!" और फिर झगड़ा आरम्भ हो जाता है। विनम्रता केवल कृष्ण-संकीर्तन से आती है।
- पञ्चम ज्वाला आनंदाम्बुधि-वर्धनम् है। कृष्ण-संकीर्तन से आध्यात्मिक आनंद प्राप्त होता है। यह आध्यात्मिक आनंद रूपी सागर निरंतर बढ़ता रहता है।
- षष्ठम ज्वाला प्रति-पदं पूर्णामृतस्वादनम् है। कृष्ण-संकीर्तन द्वारा पग-पग में आप अमृत का अनुभव करेंगे।
- सप्तम् ज्वाला सर्वात्म-स्नापनम् है। कृष्ण संकीर्तन से समस्त जीव पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाएंगे और परम शांति की अनुभूति होगी।
ये कृष्ण-संकीर्तन यज्ञ की सात ज्वालाएँ हैं। इनके प्रभाव से पूरा विश्व आनंदमय और शांतिपूर्ण हो जाएगा। सभी जीव, परम सूर्य भगवान श्रीकृष्ण के तेजस्वी प्रकाश को परावर्तित करेंगे और परिणामस्वरूप, समस्त जीव चंद्रमा के समान चमकने लगेंगे। यही इस श्लोक का तात्पर्य है।
प्रेम महासागर में निमग्न हो जाओ
श्री चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है:
संकीर्तन हैते पाप-संसार-नाशन।
चित्त-शुद्धि, सर्व-भक्ति-साधन-उद्गम॥
“हरे कृष्ण मन्त्र का सामूहिक कीर्तन करने से मनुष्य संसार की पापमय स्थिति का विनाश कर सकता है, अपने मलीन हृदय को स्वच्छ कर सकता है और सभी प्रकार के भक्ति का उदय कर सकता है”।
कृष्ण-प्रेमोद्गम, प्रेमामृत-आस्वादन।
कृष्ण-प्राप्ति, सेवामृत-समुद्रे मज्जन॥
“कीर्तन के फलस्वरूप मनुष्य में कृष्ण-प्रेम का उदय होता है और वह दिव्य आनन्द का आस्वादन करता है। अन्ततोगत्वा उसे कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त होता है और वह उनकी भक्ति में लग जाता है, मानो वह प्रेम के महासागर में निमग्न हो रहा हो”। (चैतन्य-चरितामृत, अंत्य-लीला २०.१३-१४)
सम्पूर्ण विश्व के लिए संकीर्तन लाभप्रद है। यदि आप प्रेम-नाम-संकीर्तन करते हैं, तो कलियुग के सभी पाप पूर्णतया नष्ट हो जाएंगे। तत्पश्चात चित्त-शुद्धि होगी। इसके बाद सर्व-भक्ति-साधन-उद्गम, यानी शुद्ध कृष्ण-भक्ति का विकास होगा। फिर कृष्ण-प्रेमोद्गम यानी कृष्ण के प्रति प्रेम जागृत होगा, और तब आप प्रेमामृत का आस्वादन करेंगे। अतः यदि आप शुद्ध कृष्ण-संकीर्तन करते हैं, तो कृष्ण-प्राप्ति होगी और साथ ही आप सेवामृत-समुद्रे मज्जन अर्थात् प्रेम के महासागर में गोता लगाएंगे। महाप्रभु हमें यही सिखा रहे हैं।
गौरांग महाप्रभु के अनंत चंद्रों का गुणगान
हम गौरांग महाप्रभु के प्रिय भक्तों, जो अनंत चंद्र के समान हैं, उनकी की स्तुति करते हैं। केवल तभी आप कलियुग के अंधकार और जनता की अज्ञानता को दूर कर पायेंगें। और कोई इसे नहीं कर सकता। इस्कॉन के संस्थापक आचार्य प्रभुपाद जी यह आशा संजोए हुए हैं कि कृष्ण-भावनामृत आंदोलन के सभी सदस्य शुद्ध नाम का जप करें, कृष्ण-प्रेम विकसित करें, कृष्ण को प्राप्त करें, और तत्पश्चात सम्पूर्ण विश्व के अंधकार को दूर करने में सक्षम होंगे।
अतः अब आपको सोचना चाहिए कि कृष्ण-भावनामृत आंदोलन के सदस्य होने के नाते आप कितने गंभीर हैं। आप संस्थापक आचार्य को कितना प्रसन्न कर रहे हैं? इस पर विचार करें और सोचें कि आप उनकी कृपा कैसे प्राप्त कर सकते हैं। अब समय आ गया है कि आप इस पर कार्य करें।
हरे कृष्ण!
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