१०८ दिव्य रत्न (श्रील गौर गोविन्द स्वामी महाराज द्वारा)

गुरु-तत्त्व

१. a) गुरु भागवत-कृपा-मूर्ति अर्थात भगवद् कृपा के साक्षात स्वरूप होते हैं।

b) एक प्रमाणिक गुरु मूर्तिमान कृष्णप्रसाद होते हैं अर्थात श्रीकृष्ण कृपा के साक्षात अवतार।

c) एक प्रमाणिक गुरु कृष्ण-कृपा-श्री-मूर्ति अर्थात श्रीकृष्ण की करुणा का साक्षात अवतार हैं।

२. एक प्रमाणिक गुरु स्वरूप-शक्ति-पुष्ट-परिकर  अर्थात भगवान् की अंतरंगा शक्ति से युक्त होते हैं।

३. वे मुकुन्द-प्रेष्ठ अर्थात भौतिक बंधनों से मुक्ति प्रदाता परम भगवान् मुकुन्द के अतिप्रिय (पार्षद) हैं। 

४. वे गौरप्रिय-जन अर्थात श्रीगौरांग महाप्रभु के प्रिय भक्त होते हैं।

५. सद्गुरु नित्यानंद प्रकाश अर्थात नित्यानंद प्रभु के प्रत्यक्ष स्वरूप हैं। नित्यानंद प्रभु गुरु-तत्त्व नैपुण्य और कृपा-नैपुण्य अर्थात क्रमशः गुरु-तत्त्व और कृपा की चरम  सीमा हैं।

६.    

a)  सद्गुरु राधा-प्रिय दासी, श्रीमती राधारानी की अंतरंग सेविका हैं।

b) सद्गुरु राधा-प्रिय सखी, श्रीमती राधारानी की अंतरंग प्रिय सखी हैं।

 

७. श्रील गौर गोविंद स्वामी कहते हैं: सद्गुरु को प्रेमी-भक्त या प्रेमिक भक्त होना चाहिए। प्रेम वितरण करने के लिए आपके पास प्रेम होना चाहिए। जो वस्तु आपके पास नहीं हैं, उसे आप दान में नहीं दे सकते हैं।  

 

८. २४ नवम्बर सन् १९८९ को भुवनेश्वर में उन्होंने दर्शन के समय कहा: “गुरु के पास प्रेम होना चाहिए…”

 

कौन आपको कृष्ण के चरण कमलों तक पहुँचा सकता है?

९. श्रीमद्भागवत (९.४.१८-२०) पर प्रवचन देते समय श्रीकृष्ण बलराम मंदिर, भुवनेश्वर (१८ अगस्त सन् १९९३) में उन्होंने कहा: 

“...सबको गुरु-तत्त्व यथार्थतः समझना चाहिए, और जो गुरु-तत्त्व को तत्वतः समझता है, वही कह सकता है कि ‘जब तक मैं तत्त्वदर्शी गुरु की शरण नहीं लूँगा, तब तक मैं भ्रम, भौतिक भय और शोक से मुक्त नहीं हो सकता हूँ।”

 

अशोक-अभय, अमृत-आधार,

तोमार चरण-द्वय

ताहाते एखोन, विश्राम लभिया

छाड़िनु भावेर भय

(शरणागति, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)

कौन आपको कृष्ण के चरण कमलों का दर्शन करा सकता है? कौन आपको कृष्ण के चरण कमलों की प्राप्ति का मार्ग दिखा सकता है? केवल एक प्रेमी-गुरु, एक प्रेमिक-भक्त, जिन्होनें स्वयं भगवान कृष्ण के साथ प्रेममय संबंध स्थापित कर लिया है। ऐसे गुरु अहर्निश, चौबीसों घंटे भगवान कृष्ण की प्रेमपूर्वक सेवा में संलग्न रहते हैं...”

 

१०. श्रील गौर गोविंद स्वामी कहते हैं कि गुरु-तत्त्व हमारी गौड़ीय वैष्णव परंपरा में पवित्रतम सिद्धांत है!

 

११.   श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज से एक बार कहा गया कि कुछ गुरु अपने शिष्यों से कहते हैं कि क्योंकि यह कलियुग है, इसलिए ज़्यादा कठोर अनुशासन की आवश्यकता नहीं है। उनका उत्तर था ".... हाँ! इसलिए तो मैं कहता हूँ, कलियुगी गुरु और कलियुगी शिष्य!"

 

१२. एक अन्य अवसर पर उन्हें बताया गया कि कुछ लोग कहते हैं कि जब किसी गुरु का पतन होता है, तो यह उनका लीला प्रदर्शन है। उनका तत्काल उत्तर था "हाँ! मल भक्षण लीला..."

 

१३. एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा "...जब तुम (तथाकथित गुरु) स्वयं का उद्धार करने में  सक्षम नहीं हो, तो दूसरों का उद्धार करने ने का प्रयास क्यों कर रहे हो? [हे वैद्यराज! पहले स्वयं का उपचार करो]..."

 

१४. श्रील गौर गोविंद स्वामी कहते थे कि गुरु दो प्रकार के होते हैं - प्रथम माया द्वारा प्रेषित गुरु और द्वितीय कृष्ण द्वारा प्रेषित गुरु। यह आप पर निर्भर है कि आप कैसा गुरु चाहते हैं।

 

सिद्धांत न कि शरीर 

१५. एक बार दर्शन के समय श्रील गौर गोविंद स्वामी कहते हैं :

भक्त : एक बार श्रील प्रभुपाद ने किसी स्थान पर कहा था कि आध्यात्मिक गुरु को अपने शिष्य को भगवद् धाम ले जाने के लिए पुनः भौतिक जगत में आना पड़ता है। क्या वही आध्यात्मिक गुरु अथवा आध्यात्मिक गुरु का सिद्धांत ?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: आध्यात्मिक गुरु उसी रूप में नहीं आएंगे। वे किसी अन्य रूप में आएंगे।

भक्त : लेकिन क्या वे वही गुरु होंगे?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ, वही गुरु होंगे, लेकिन रूप भिन्न होगा। यदि आपके पास उचित दृष्टि होगी, तब आप पहचान लेंगे... (भुवनेश्वर, २४.११.१९८९)

 

माया-दास और माया-दासी

१६. जीवात्मा माया-दास या माया-दासी होता है।

 

१७. सभी माया-दास और माया-दासी, कृष्ण-दास और कृष्ण-दासी बनना चाहते हैं अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के सेवक बनना चाहते हैं।

 

१८. परंतु सर्वप्रथम उन्हें गुरु-दास और गुरु-दासी बनना होगा। उन्हें एक शुद्ध एवं प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के निकट जाकर उनके चरणों में समर्पण करना होगा।

 

मेरे परम आराध्य गुरुदेव

१९. श्रील गौर गोविन्द स्वामी महाराज अपने गुरु का नाम अति श्रद्धा और आदरपूर्वक उच्चारण करते थे “मेरे परम आराध्य गुरुदेव श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद...” और जब भक्तगण उनकी जयकार करते थे “श्रील गुरुदेव की जय!” तो वे तुरंत प्रतिध्वनि करते थे - “श्रील प्रभुपाद जी महाराज की जय!” (उनके प्रवचनों की रिकॉर्डिंग में यह स्पष्ट रूप से सुना जा सकता है।)

 

समष्टि-गुरु और व्यष्टि-गुरु

२०. समष्टि-गुरु: श्री नित्यानंद प्रभु सभी गुरुओं के समष्टि रूप हैं - अर्थात समस्त गुरु-तत्त्व के स्रोत।

 

२१. व्यष्टि-गुरु: प्रत्येक व्यक्तिगत गुरु (व्यष्टि-गुरु) श्री नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधि हैं।

 

गुरु-दर्शन

२२. श्रील गौर गोविंद स्वामी अपने प्रवचनों में कहते थे कि वास्तविक गुरु-दर्शन तब होता है जब कोई शिष्य गुरु के स्वरूप को समझे, केवल बाह्य स्थूल देह को नहीं।

 

२३. श्रील गौर गोविंद स्वामी कहते हैं: "...मैं सदा अपने गुरु महाराज की उपस्थिति का अनुभव करता हूँ। मैं कभी भी उन्हें अपने से दूर नहीं मानता, इसलिए मैं सदा स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता हूँ। जब मैं इस कुटिया में रहता हूँ, तब मैं प्रतिदिन उन्हें स्मरण करता हूँ, क्योंकि मेरे गुरु महाराज इसी कुटिया में ठहरे थें। मैं आज भी उनकी उपस्थिति का अनुभव करता हूँ। हमने इस कुटिया में कोई बदलाव नहीं किया है, यह वैसी की वैसी है। थोड़ा बहुत नवीनीकरण हो सकता है, परन्तु यह झोंपड़ी यथावत रहनी चाहिए क्योंकि प्रभुपाद यहाँ रुके थे..." (दर्शन, भुवनेश्वर, २४.११.१९८९)

 

जिन्होनें प्रेम विकसित किया है

२४. भक्त: हम किसी को केवल आध्यात्मिक गुरु की मुहर लगाकर गुरु घोषित नहीं कर सकते हैं?

 

श्रील गौर गोविंद स्वामी: केवल नाम-मात्र की आध्यात्मिक गुरु की मुहर से कोई लाभ नहीं होगा। यहाँ तो उन गुरु की कृपा की बात की जा रही है जो आध्यात्मिक मार्ग पर स्थिर हैं, और जिन्होनें कृष्ण के प्रति प्रेम विकसित किया है। उनका किसी भी परिस्थिति में पतन नहीं होगा। वे माया की ओर क्यों आकर्षित होंगे? क्या माया इतनी सुंदर है? इसलिए सबसे महत्वपूर्ण प्रेम है। यह प्रेम का विषय है। (दर्शन, भुवनेश्वर, २४.११.१९८९)

 

प्रेम के बिना कोई कृष्ण तक नहीं पहुँच सकता है

२५. "...यह प्रश्न उठता है कि कौन कृष्ण तक पहुँच सकता है? जीवन का मूल उद्देश्य कृष्ण प्राप्ति है। पर यह इतना सरल नहीं है। कौन कृष्ण को प्राप्त कर सकता है? और उसके लिए क्या आवश्यक है? उत्तर है - कृष्ण-प्रेम। इस प्रेम के बिना कोई भी कृष्ण के निकट नहीं जा सकता, और न ही कोई उन्हें प्राप्त कर सकता है। जब व्यक्ति प्रेम प्राप्त कर लेता है, तब कृष्ण स्वयं उसके अधीन हो जाते हैं। अत: उसी प्रेम को प्रदान करने हेतु, कृष्ण स्वयं गौरांग महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए। वे प्रेम-पुरुषोत्तम नाम से जाने जाते हैं।" (गौर-पूर्णिमा व्याख्यान, २६.०३.१९९४)

 

नमो महा-वदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते।

कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नमः॥

"...श्रील रूप गोस्वामी ने गौरांग महाप्रभु को यह प्रणाम-मंत्र अर्पित किया है। महा-वदान्याय - गौरांग महाप्रभु सर्वाधिक उदार अवतार हैं। क्यों? कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते - क्योंकि वे कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं। अन्य कोई अवतार कृष्ण-प्रेम  प्रदान नहीं करते हैं। यहाँ तक कि स्वयं कृष्ण भी इस प्रेम को छिपाकर रखते हैं। परंतु जब वे गौरांग रूप में प्रकट होते हैं, तब वे कृष्ण-प्रेम  के खजाने को खोल देते हैं और उस प्रेम को निःशुल्क वितरित करते हैं।

 

"जिन प्रेमी-भक्तों ने इस शुद्ध प्रेम को प्राप्त किया है, उन्होनें प्रेम-रज्जु से कृष्ण को अपने हृदय में बाँध लिया है, और वे सर्वत्र कृष्ण का ही दर्शन करते हैं..."

 

"...वे श्यामसुंदर के सर्वाकर्षक रूप को अपने हृदय में और हृदय के बाहर सर्वत्र दर्शन करते हैं..."

 

भक्त आमाय प्रेमे बाँधियाछे हृदय-भीतरे

याहाँ नेत्र पड़े, ताहाँ देखए आमारे

(चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला २५.१२७)

यह स्वयं कृष्ण के वचन हैं: "उस प्रेमी-भक्त ने मुझे प्रेम-रज्जु से अपने हृदय में बाँध लिया है। उसे सर्वत्र मैं ही दिखाई देता हूँ - याहाँ नेत्र पड़े, तहाँ देखए आमारे।"

 

प्रेमांजन-च्छुरित-भक्ति-विलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।

यं श्यामसुन्दरम् अचिन्त्य-गुण-स्वरूपं गोविन्दम् आदि-पुरुषं तमहं भजामि॥

(ब्रह्मसंहिता ५.३८)

ऐसे प्रेमी-भक्त के नेत्रों में प्रेम का अंजन लेपित होता है। उसे सर्वत्र श्यामसुंदर का ही सर्व-सुंदर रूप दृश्य होता है। भगवद गीता [६.३०] में श्रीकृष्ण कहते हैं:

 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

“जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है”।

यही पूर्ण कृष्णभावनामृत है, यही वास्तविक प्रेम है। इस प्रेम से वंछित व्यक्ति किस प्रकार कृष्ण को सर्वत्र देख सकते हैं? अतएव उस प्रेम को प्रदान करने हेतु स्वयं कृष्ण ही गौरांग महाप्रभु के रूप में इस धराधाम पर अवतरित हुए। "तुम प्रेम विकसित करो, और मुझे बाँध लो! मुझे प्राप्त करो! मुझे सर्वत्र दर्शन करो! पूर्ण कृष्णभावना विकसित करो।" यही कृष्ण की इच्छा है! यही अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) का वास्तविक उद्देश्य है। संस्थापकाचार्य ने इस संस्था का नाम कृष्णभावनामृत संघ (Krishna Consciousness society) क्यों रखा? उन्होंने भगवद्-भावनामृत (GOD Consciousness अथवा Lord Consciousness) या अन्य कोई नाम क्यों नहीं रखा? विशेष रूप से 'कृष्णभावनामृत' शब्द को ही क्यों चुना? उनका  क्या उद्देश्य था? इसको समझने का प्रयास करो। उस प्रेम के बिना तुम पूर्ण कृष्णभावना को प्राप्त नहीं कर सकते हो अर्थात सर्वत्र कृष्ण के दर्शन नहीं कर सकते हो। (गौर-पूर्णिमा पर एक प्रवचन से, २६.०३.१९९४)

 

साधु-सङ्ग

२६. एक जीवित साधु की संगति अत्यंत महत्वपूर्ण है। श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज सदा कहा करते थे कि यदि सच्चा साधु कहीं उपस्थित है, तो साधु-संग के लिए शीघ्र-अतिशीघ्र उसके पास जाओ। उन्होंने यह श्लोक उद्धृत किया: 

 

कृष्ण-भक्ति जन्म मूल हय 'साधु-सङ्ग'

कृष्ण-प्रेम जन्मे, तेंहो पुनः मुख्य अंग

कृष्ण-भक्ति का मूल कारण महान्  भक्तों की संगति है। कृष्णके प्रति सुप्त प्रेम के जाग्रत होने पर भी भक्तों की संगति अत्यावश्यक है। (चैतन्य-चरितामृत, मध्य २२.८३)

 

२७. उन्होंने एक प्रमाणिक साधु की भी स्पष्ट व्याख्या की है:

"...प्रामाणिक साधु छह शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मात्सर्य) के अधीन नहीं होते हैं। वे प्रकृति के तीन गुणों - सत्त्व, रजस, और तमस – से परे होते हैं। वे चार दोषों से रहित होते हैं: भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा (छल या धोखा देने की प्रवृत्ति), और करणापाटव (अपूर्ण इन्द्रियाँ)। साधु चार अनर्थों से भी मुक्त होते हैं: तत्त्व-भ्रम, हृदय-दौर्बल्य, अपराध, और असत-तृष्णा (भौतिक इच्छाएँ)। वे निष्ठा (आत्म-साक्षात्कार में स्थिरता), रुचि (भगवान श्रीकृष्ण के विषय में श्रवण करने में गहरी रुचि), और आसक्ति (कृष्णभावना के प्रति गहरा लगाव) के स्तरों को भी पार कर चुके होत हैं, और वे भाव के स्तर तक या उससे भी ऊपर प्रेम (कृष्ण-प्रेम) तक पहुँच चुके होत हैं..."

 

गुरु सेवा के दो महत्वपूर्ण रूप

श्रील गौर गोविंद स्वामी के अनुसार सेवा दो प्रकार की होती है: प्रसंग-रूप और परिचर्या-रूप।

२८. प्रसंग-रूप सेवा : गुरु से प्रत्यक्षतः श्रवण। गुरु प्रवचन देते हैं और आप प्रत्यक्ष सुनते हैं। अर्थात आप गुरु के संग में उनसे श्रवण कर रहें हैं।

२९. परिचर्या-रूप सेवा : गुरु की कायिक सेवा और उनकी अन्य आवश्यकताओं की सेवा करना। इस सेवा को श्रेष्ठ माना गया है।

 

अपरा-विचार और तत्त्व-विचार

श्रील गौर गोविंद स्वामी सदा इन दो विषयों पर चर्चा करते थे:

३०. अपरा-विचार : केवल बाह्य दृष्टिकोण से विचार करना। अधिकतर लोग जिन्हें उचित मार्गदर्शन प्राप्त नहीं है, शास्त्र के केवल सतही अर्थ को समझते हैं। वे अपने आसक्ति और भ्रम के अनुसार सिद्धांतों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं।

३१. तत्त्व-विचार : वास्तविक और शुद्ध दृष्टिकोण से विचार करना। यह शास्त्र का सही अर्थ है, जो तत्त्व-दर्शी महापुरुषों द्वारा प्रकट किया जाता है। तत्त्व-विचार में केवल शास्त्रों से प्रमाण प्रस्तुत किया जाता है।

 

श्रील गौर गोविंद स्वामी के अनुसार: “...अपरा-विचार सर्वदा त्याज्य है, केवल तत्त्व-विचार ही स्वीकार्य है...।” उन्होंने यह भी कहा, “...अधिकांश लोग, तत्त्व-विचार नहीं अपितु अपरा-विचार ही चाहते हैं।”

 

साधु दो कारणों से इस भौतिक जगत में आते हैं 

३२. प्रथम, जब साधु नित्य-धाम से पतित आत्माओं का दुःख देखते हैं, तो उनका हृदय करुणा से द्रवित हो उठता है। अतः वे [पतित आत्माओं के उद्धार हेतु] अपनी इच्छा से इस भौतिक जगत में आते हैं।

 

३३. द्वितीय, वे श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश से आते हैं।

 

भागवत-तत्त्व

३४. जब श्रील गौर गोविंद स्वामी भागवत-तत्त्व पर प्रवचन देते थे, तो वे निम्नलिखित तीन श्लोकों का उद्धरण देते थे:

 

दुइ स्थाने भागवत-नाम शुनि-मात्र

ग्रन्थ-भागवत, आर कृष्ण-कृपा-पात्र ॥

‘भागवत’ शब्द ग्रंथ भागवत (श्रीमद्भागवतम्), और श्रीकृष्ण के कृपा पात्र शुद्ध भक्त (भक्त भागवत) के लिए प्रयोग होता है। (श्री चैतन्य भागवत, अंत्य खंड ३.५३२) 

 

एक भागवत बड़-भागवत-शास्त्र

आर भागवत-भक्त भक्ति-रस-पात्र॥

दुई भागवत द्वारा दिया भक्ति-रस

तान्हार हृदय ताँर प्रेमे हय वश॥

“एक भागवत है महान् शास्त्र श्रीमद्भागवतम् और दूसरा है भक्ति-रस में निमग्न शुद्ध भक्त।”

 

“इन दो भागवतों के कार्यो के माध्यम से भगवान् जीव के हृदय में दिव्य प्रेममयी सेवा के रस का संचार करते हैं और इस तरह भक्त के हृदय में स्थित भगवान् भक्त के प्रेम से वशीभूत हो जाते हैं।” (श्री चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला १.९९-१००)

 

३५. श्रील गौर गोविंद स्वामी ने अनेक बार कहा है कि दो प्रकार के भागवत होते हैं - ग्रंथ भागवत (श्रीमद्भागवतम्), और भक्त भागवत (शुद्ध भक्त)। दोनों का संग आवश्यक है। परंतु दोनों में प्रत्यक्ष साधु संग, अर्थात भक्त भागवत का संग अधिक महत्वपूर्ण है।

 

३६. वे यह भी कहा करते थे: “... बिना कृष्ण-कथा के व्यतीत किया गया दिन, वास्तव में निरर्थक है...।”

 

३७. उन्होंने यह समझाया कि सरलता ही वैष्णवता है। एक वैष्णव में कपटता-रहित बालक-जैसी निश्छल सरलता होनी चाहिए।

 

३८. वे कहते थे: “श्रील व्यासदेव का अंतिम अवदान परमहंस-संहिता, श्रीमद्भागवतम् है।”

 

३९. “... श्रीमद्भागवतम् वैदिक वृक्ष का परिपक्व, मधुरतम, अमृतमय रसीला फल है। हम समस्त रसिक भक्तों को श्रीमद्भागवतम् रूपी अमृतरस का पान करने के लिए आमंत्रित करते हैं- 'मुहुर अहो रसिका!' हम बार-बार निवेदन करते हैं। परन्तु, जिन्हे रुचि उत्पन्न नहीं हुई है, वे कैसे आएँगे? केवल अल्प लोग ही आते हैं, सब क्यों नहीं आते? क्योंकि उन्होंने इस अमृतरस का स्वाद अभी तक चखा नहीं है...” (ह्यूस्टन में एक व्याख्यान से, २१.१०.१९९१)

 

कापट्य

४०. उन्होंने कापट्य पर प्रवचन दिया:

उन्होंने कहा: “... यदि आप कापट्य से मुक्त हो, तो ही आप प्रेम-पथ पर चल सकते हैं। परन्तु, यदि आपके हृदय में कपटता है, तो आप प्रेम-पथ पर नहीं चल सकते...” (भुवनेश्वर में एक व्याख्यान से, २७.११.१९९१)

 

कापट्य के तीन प्रकार

४१. बल-कपटी : बल या सामर्थ्य होते हुए भी  वे कीर्तन में नृत्य नहीं करते हैं।

४२. दान-कपटी : धन होते हुए भी वे भगवान के संकीर्तन आंदोलन की सेवा में एक पैसा नहीं देते हैं।

४३. प्रेम-कपटी : केवल अनुयायियों को आकर्षित करने के लिए झूठा प्रेम प्रदर्शन करता है।

४४. उन्होंने यह भी कहा कि कापट्य वास्तव में प्रतिष्ठा का परकीया है। 

दूसरे शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति भौतिक जीवन या आध्यात्मिक जीवन में महान होना चाहता है, या प्रतिष्ठा चाहता है, तो उसे कपटी बनना पड़ेगा। (प्रवचन १० मार्च १९९५, भुवनेश्वर, भारत)

 

तीन प्रकार की सुकृति 

४५. कर्म-उन्मुखी-सुकृति – कर्मो के द्वारा प्राप्त सुकृति (पुण्य)।

४६. ज्ञान-उन्मुखी-सुकृति – ज्ञान के द्वारा प्राप्त सुकृति।

४७. भक्ति-उन्मुखी-सुकृति – अल्प भक्ति द्वारा प्राप्त सुकृति। यह सुकृति सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इसके द्वारा साधु-संग का अवसर मिलता है।

 

संबंध - अभिधेय - प्रयोजन

४८. भक्ति के तीन आध्यात्मिक अंग हैं: संबंध, अभिधेय तथा प्रयोजन।

"...वेदों का सार त्रिसत्य है: वेदे त्रि-तत्त्व कय - संबंध-तत्त्व, अभिधेय-तत्त्व, और प्रयोजन-तत्त्व। कृष्ण संबंध-तत्त्व है, कृष्ण-भक्ति अभिधेय है, और प्रयोजन प्रेम है। कृष्ण संबंध ही एक मात्र संबंध है, अन्य कोई संबंध नहीं है।

 

४९. “कृष्ण त्रिभंग-ललित हैं अर्थात उनका शरीर तीन स्थानों पर वक्रित है। यह वक्रता तीन तत्त्वों का द्योतक हैं: संबंध-तत्त्व, अभिधेय-तत्त्व, और प्रयोजन-तत्त्व। प्रथम वक्रता उनके चरणों में है। द्वितीय, होठों (वदन) में है, कृष्ण का वाम भाग राधारानी की ओर झुका हुआ है। तृतीय भंग हृदय में है। प्रथम भंग संबंध-तत्त्व को दर्शाता है। संबंध-तत्त्व के अधिष्ठाता देव राधा-मदन-मोहन हैं। द्वितीय भंग अभिधेय-तत्त्व (भक्ति) है। इसके अधिष्ठाता देव राधा-गोविंद हैं। तृतीय भंग प्रयोजन-तत्त्व (प्रेम) हैं। इसके अधिष्ठाता देव राधा-गोपीनाथ हैं। ये तीन अमूल्य धन वेदों में वर्णित है- तीन महा-धन। एक सौभाग्यशाली जीव जो इन अमूल्य निधियों को प्राप्त करता है, वह कृष्ण-प्रेम से समृद्ध होकर वास्तव में सुखी हो जाता है। अन्यथा वह कभी भी वास्तविक सुख प्राप्त नहीं कर सकता ...” (प्रवचन, अटलांटा, २०.०६.१९९४)

 

तीन पुरुषोत्तम

५०. भगवान राम मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं। वे वैदिक धर्म के दृढ अनुयायी हैं। वे केवल एक पत्नी स्वीकार करते हैं।

५१. भगवान श्रीकृष्ण लीला-पुरुषोत्तम है। वे अपने भक्तों के संग अद्भुत लीलाएँ करते हैं।

५२. भगवान श्रीचैतन्य प्रेम-पुरुषोत्तम है। वे प्रेम दाता या प्रेम के जनक हैं।

 

राधा और कृष्ण

५३. श्रीकृष्ण रसिक-शेखर है अर्थात समस्त प्रेम रसों के स्वामी।

५४. श्रीकृष्ण श्रृंगार-रस-राज हैं अर्थात माधुर्य रस के अधिपति।

५५. श्रीमती राधारानी मादनाख्य-महाभाव-मयी है - महाभाव की चरम अवस्था का मूर्तिमान स्वरूप।

 

प्रेम-तत्त्व

श्रील गौर गोविंद स्वामी प्रेम-तत्त्व और उससे संबंधित निम्नलिखित तीन विषयों पर निरंतर प्रवचन देते—

५६. प्रीति-आश्रय — प्रेम का आश्रय

सभी गोपियाँ प्रेम का आश्रय हैं, जिनमें श्रीमती राधारानी सर्वोपरि हैं।

५७. प्रीति-विषय  - प्रेम का विषय

प्रेम का विषय श्रीकृष्ण हैं, जो समस्त सौंदर्य और आनंद के स्रोत हैं।

५८. प्रीति-धर्म  - महाप्रभु का भाव तथा उनके द्वारा प्रदत्त भजन की प्रक्रिया।

 

महाप्रभु का भाव क्या है? सभी के लिए प्रेम और स्नेह।

प्रीति-धर्म, श्री चैतन्य महाप्रभु का भाव तथा उनके द्वारा प्रदत्त भजन की प्रक्रिया है। जब तक हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति सच्चा प्रेम और स्नेह न हो, तब तक यह प्रीति-धर्म कदापि विकसित नहीं हो सकता है। इस भाव को केवल एक प्रेमी-भक्त ही समझ सकता है और वही दूसरों को सिखा सकता है।

 

महाभाव, अष्टम एवं अंतिम चरण है

५९. दिव्य प्रेम के विकास का क्रम:

"...जब प्रेम घनीभूत होता है तो वह स्नेह में परिवर्तित होता है। जब स्नेह और अधिक घनीभूत होता है तो वह मान कहलाता है। मान और अधिक गाढ़ होने पर प्रणय बन जाता है। प्रणय घनीभूत होकर राग बनता है। इसी प्रकार राग  घनीभूत होकर अनुराग में परिवर्तित हो जाता है। अनुराग और अधिक गाढ़ा होने पर भाव में परिवर्तित होता है। भाव की चरम घनीभूत अवस्था अंततः महाभाव में परिवर्तित होती है। यह महाभाव, दिव्य प्रेम की अष्टम और अंतिम चरम अवस्था है..."  (तृणादपि सुनीचेन, अध्याय ९)

 

पञ्च रस

६०. मुख्यतः पाँच रस होते हैं, परन्तु इनमे से महाप्रभु ने शांत रस की उपेक्षा की है।

 

"...पाँच प्रमुख रस हैं - शांत, दास्य, साख्य, वात्सल्य, माधुर्य। महाप्रभु ने शांत रस को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। महाप्रभु की परंपरा में शांत रस नहीं है। चारि भाव भक्ति - दास्य, साख्य, वात्सल्य, माधुर्य अर्थात दास्य-रति, साख्य-रति, वात्सल्य-रति, माधुर्य-रति। इन चार रसों के माध्यम से, वे प्रेम-भक्ति प्रदान करते हैं। यही कृष्ण का मुख्य धन है - प्रेम-भक्ति-धन। इन चार रसों (दास्य, साख्य, वात्सल्य, माधुर्य) में प्रेम-भक्ति, प्रेम-नाम निहित है। श्री चैतन्य महाप्रभु के अवतार का यही उद्देश्य था। इसीलिए उन्हें प्रेम-पुरुषोत्तम कहा जाता है..." (प्रवचन - भक्तिवेदांत मैनर, यूके, १६.०७.१९९५)

 

मोरपंख

६१. गौरांग महाप्रभु के भाव को विक्षुब्ध नहीं करना चाहिए!

“...भक्तों का एक वर्ग गौराङ्ग-नागरी कहलाता है, जो चैतन्य महाप्रभु के विग्रह का प्रयोग करते हुए कृष्ण की लीलाओं का मंचन करता है। यह भूल है, जिसे रसाभास कहा जाता है। जहाँ चैतन्य महाप्रभु भक्त रूप में आनन्द उठाने का प्रयत्न कर रहे हैं, वहाँ उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कहकर विचलित नहीं करना चाहिए। ...” (श्रीचैतन्य-चरितामृत आदि-लीला ७.१०, तात्पर्य श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा)

 

"...एक ऐसा ही उदाहरण भगवान चैतन्य महाप्रभु का है। यद्यपि वे स्वयं परम भगवान कृष्ण हैं, परन्तु वे एक भक्त के रूप में अवतरित हुए थे। अतः हमें भगवान के प्रकाट्य के उद्देशानुसार उनके भाव को स्वीकार करना चाहिए और उनकी उपासना करनी चाहिए। चूंकि चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण हैं, इसलिए कभी-कभी लोग उनकी उपासना कृष्ण की तरह करते हैं। परंतु कृष्ण भोक्ता हैं, और चैतन्य महाप्रभु भोग्य हैं। इसलिए गौराङ्ग-नागरी संप्रदाय, जो चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण की भाँति भोक्ता मानते हैं, को शुद्ध भक्ति मार्ग से विचलित संप्रदाय माना गया है। क्योंकि स्वयं चैतन्य महाप्रभु को परम भगवान की स्थिति स्वीकार्य नहीं है। हमारी सेवा-भावना भगवान की भावना के अनुकूल होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम कृष्ण का भाव चैतन्य महाप्रभु पर आरोपित करें, या चैतन्य महाप्रभु का भाव कृष्ण पर, या कृष्ण का भाव रामचंद्र पर, या रामचंद्र का भाव कृष्ण पर आरोपित करें..." (श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा लिखित पत्र से, दिनांक: १६ जून, १९६८)

 

इसलिए श्रील गौर गोविंद स्वामी ने कई अवसरों पर कहा है: "...गौरांग महाप्रभु के भाव को विक्षुब्ध मत करो। वे आश्रय हैं (कृपया बिंदु ५६ देखें), परन्तु आप उनके सिर पर मोरपंख लगाकर उन्हें विषय बनाने की चेष्टा कर रहे हो (कृपया बिंदु ५७ देखें) ...गौरांग महाप्रभु के भाव को विक्षुब्ध मत करो।

 

जीव तत्त्व

६२. “...निष्कर्ष यह है कि कोई वैकुण्ठलोक से कभी पतित नहीं होता, क्योंकि यह नित्य धाम है...” (श्रीमद्भागवतम ३.१६.२६ तात्पर्य श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा)

 

६३. “...निष्कर्ष यह है कि भगवान् का शारीरिक तेज ही सारे जीवन का उद्गम है...” (श्रीमद्भागवतम ४.३०.५ तात्पर्य श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा)

 

इस प्रकार श्रील गौर गोविन्द स्वामी सदैव कहा करते थे-“यह श्रील प्रभुपाद का निष्कर्ष है और यही मेरा भी निष्कर्ष है।”

 

शक्त्यावेश अवतार

६४. श्रील गौर गोविंद स्वामी बताते हैं कि शक्त्यावेश-अवतार विशेष शक्ति से संपन्न जीव होते हैं जो भगवान का विशेष कार्य करते हैं। सात शक्त्यावेश-अवतार विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं:

 

1. वैकुण्ठस्त शेष – वे सेवन-शक्त्यावेश-अवतार हैं, अर्थात सेवा-भाव के अवतार।

2. अनंत शेष (पातल में) – वे उद्धरण-शक्ति-अवतार हैं, जिन्होंने इस सम्पूर्ण जगत को अपने सिर पर धारण किया हुआ है।

3. ब्रह्मा – वे गुण-अवतार और शक्त्यावेश-अवतार हैं। ब्रह्मा जी सृष्टि-शक्ति-अवतार अर्थात सृजन-शक्ति के अवतार हैं।

4. चतुषन: (चार कुमार) – वे ज्ञान-शक्ति-अवतार हैं।

5. नारद मुनि – वे भक्ति-शक्ति-अवतार हैं।

6. प्रथु महाराज – वे प्रजा-पालन-शक्ति-अवतार हैं, जिन्होंने आदर्श रूप में अपनी प्रजा का पालन किया।

7. परशुराम – वे दुष्ट-दमन-शक्ति-अवतार हैं; जिन्होंने दुष्टों और दुराचारियों का दमन किया।

 

गौर-तत्त्व

गौरांग महाप्रभु के अवतरण के तीन बाह्य और तीन अंतरंग कारण बताए गए हैं।

 

६५. तीन बाह्य कारण इस प्रकार हैं:

1. वे कलियुग-युग अवतार हैं।

2. वे संकीर्तन आंदोलन प्रारम्भ करते हैं।

3. वे अद्वैत आचार्य के हुँकार से प्रकट हुए हैं।

 

६६. महाप्रभु के अवतरण के तीन अंतरंग कारण निम्नलिखित हैं:

निम्नलिखित श्लोक श्री चैतन्य-चरितामृत (आदि-लीला) में गुप्त था, लेकिन श्रील गौर गोविंद स्वामी ने इसे विशेष रूप से सबके समक्ष उजागर किया और अति संक्षिप्त रूप में इसका सार बताया।

 

श्रीराधायाः प्रणयमहिमा कीदृशो वानयैवा-

स्वाद्यो येनाद्भुतमधुरिमा कीदृशो वा मदीयः।

सौख्यञ्चास्या मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभा-

त्तद्भावाढ्यः समजनि शचीगर्भसिन्धौ हरीन्दुः॥

श्रीमती राधारानी के प्रेम की महिमा; अपने (भगवान् के) उन गुणों, जिनका आस्वादन केवल श्रीमती राधारानी प्रेम के माध्यम से करती हैं; एवं उनके प्रेम की मधुरता का आस्वादन करने पर राधारानी जिस सुख का अनुभव करती हैं, उसे समझने के लिए भगवान् श्री हरि राधा के भावों में विभोर होकर श्रीमती शचीदेवी के गर्भ से उसी प्रकार प्रकट हुए, जिस तरह समुद्र से चन्द्रमा प्रकट होता है।  (श्री चैतन्य चरितामृत, आदि-लीला, १.६)

  

1. श्री राधारानी के प्रेम की महिमा को समझने की लालसा।

2. कृष्ण के अद्भुत गुण जो केवल राधारानी अपने प्रेम के माध्यम से अनुभव करती हैं।

3. श्रीकृष्ण के प्रेम की मधुरता का आस्वादन करने पर राधारानी को जो सुख मिलता है।

 

इसीलिए, विषय (भगवान श्रीकृष्ण) आश्रय (राधारानी) के भावों का आस्वादन करने के लिए अवतरित होते हैं। (कृपया बिंदु ५६ और ५७ देखें)

 

६७. “...कृष्ण बाह्य रूप को महत्त्व नहीं देते हैं, वे हृदय के आन्तरिक भाव को देखते हैं। वैष्णव का अर्थ है कि श्री चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी। वैष्णवों का भाव गोपियों जैसा होता है। वे कृष्ण द्वारा भोग्य हैं। गुरु जो श्री चैतन्य महाप्रभु या श्रीकृष्ण की गुरु-परंपरा में आते हैं, वे गोपी अथवा श्रीमती राधारानी की सखी होते हैं...” (भुवनेश्वर में एक प्रवचन से, दिनांक: ३१.०३.१९८९)

 

६८. श्री चैतन्य-चरितामृत स्नातकोत्तर विषय है।

"मेरे प्रिय गुरु महाराज श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि श्री चैतन्य-चरितामृत स्नातकोत्तर विषय है। जो विद्यार्थी इस कक्षा में प्रवेश के इच्छुक हैं, उन्हें इसका गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए और यदि वे इसे समझ पाते हैं, तो वे योग्य हैं अन्यथा नहीं। आप किस कक्षा में प्रवेश के योग्य हैं? प्राथमिक कक्षा में? आपने प्राथमिक स्तर से शुरुआत नहीं किया है, अतः यह बहुत कठिन है। यह अत्यंत सूक्ष्म सिद्धांत है..." (प्रवचन, भुवनेश्वर, अप्रैल १९८९)

 

नाम तत्त्व 

६९. "...यदि आप शुद्ध नाम जप में रत और प्रेम-भक्ति की उच्चतम अवस्था में स्थित सत् साधु का संग नहीं करते हैं, तो आप शुद्ध नाम का जप नहीं कर सकते हैं। यदि आप असाधु (अभक्तों) के संग में रहते हैं, तो आपका जप केवल वर्णाक्षरों का उच्चारण मात्र है।" (शुद्ध-नाम-भजन)

 

७०. विभिन्न युगों के तारक-ब्रह्म-नाम इस प्रकार हैं -

 

सत्य-युग:

नारायण परा वेदा नारायण पराक्षर

नारायण परा मुक्तिर नारायण परा गतिः

 

त्रेता-युग:

राम नारायणानंत मुकुन्द मधुसूदन

कृष्ण केशव कंसारे हरे वैकुंठ वामन

 

द्वापर-युग:

हरे मुरारे मधुकैटभारे गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे ।
यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णो निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः ||

 

कलियुग:

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

 

इस प्रवचन में श्रील गौर गोविंद स्वामी कहते हैं कि हमें सभी युगों के महामंत्रों को जानना चाहिये। (शुद्ध-नाम-भजन)

 

७१. जप के तीन स्तर हैं।

a.   नाम-अपराध : अपराध सहित नाम-जप।

b.  नामाभास : नाम की झलक मात्र (अभी शुद्ध नाम नहीं)। [श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज कहते हैं कि जब आप नगर संकीर्तन करते हैं, तब वह नामाभास होता है, क्योंकि आप एकाग्र रहते हैं, नाम-अपराध नहीं होता।]

c.   शुद्ध-नाम : शुद्ध नाम-जप अत्यंत दुर्लभ है। श्रील गौर गोविंद स्वामी कहते थे कि सबसे अच्छा यह है कि शुद्ध साधु (महाभागवत) के संग बैठकर उनके मुख से जप सुने। वे आपके गुणहीन, असावधान जप का शोधन करेंगे। 

(श्रील गौर गोविंद स्वामी की पुस्तक “शुद्ध-नाम-भजन” से)

 

आचार्य-लीला

७२. श्रील गौर गोविंद स्वामी का मिशन अपने गुरु महाराज, इस्कॉन के संस्थापक-आचार्य कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति श्रील ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, के मिशन को तीन स्तरों पर बढ़ाना, सुशोभित करना और पूरक बनाना था।

 

श्रील गौर गोविंद स्वामी ने कहा, मेरे लिए तीन बातें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

a.   प्रथम, मैं प्रचारकों को प्रशिक्षित करना चाहता हूँ। मुझे बहुत पीड़ा होती है जब मैं देखता हूँ कि भक्तों का पतन होता है और वे मिशन को छोड़ कर चले जाते हैं।

b.  द्वितीय, मैं प्रमाणित करना चाहता हूँ कि श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों में समस्त ज्ञान व सिद्धांत उपलब्ध है। जो लोग कहते हैं कि श्रील प्रभुपाद ने केवल क ख ग........ (प्राथमिक स्तर) का ज्ञान दिया है, यह सुनकर मेरे हृदय में अत्यंत वेदना होती है। मैं उनका मुख बंद करना चाहता हूँ।

c.   तृतीय, मैं दिखाना चाहता हूँ कि इस्कॉन में समस्त सिद्धांत है, और भक्तों को उच्च शिक्षा के लिए अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है... (न्यूयॉर्क में एक व्याख्यान से, जुलाई १९९४)

 

श्रील गौर गोविंद स्वामी ने अधिकांश समय विश्वभर में यात्रा करते हुए व्यतीत किया। उनका उद्देश्य श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेम-तत्त्व को इस्कॉन केंद्रों में प्रस्तुत कर गौड़ीय सम्प्रदाय की इस ‘शाखा’ को सुदृढ़ बनाना था। यह सब उन्होनें ऊपर वर्णित तीन सिद्धांतों के अनुसार ही किया।

 

आत्म-धर्म- श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण

७३. “...आप यह शरीर नहीं हो, अपितु आत्मा हो। श्रीकृष्ण के प्रति समर्पण या कृष्णदास ही आत्मा का धर्म है -आत्मा-धर्म । लेकिन क्या आप आत्मा-धर्म में स्थित हो? वास्तव में आप देह-धर्म या मनो-धर्म का पालन कर रहे हैं। कृष्णदास बनने का अर्थ है आत्मा-धर्म को स्वीकार करना। लेकिन जब तक आप आत्मा के स्तर पर नहीं आते हैं, आत्मा-धर्म का पालन करना संभव नहीं है। आप तो दैहिक स्तर पर हो, देह-धर्म में! 

 

....क्या यहाँ पर कोई आत्मा के स्तर पर है? कोई नहीं! सब लोग देहाभिमानी हैं! देह-धर्म और मनो-धर्म का पालन कर रहे हैं। शरीर का धर्म इन्द्रिय-तृप्ति है। मन का धर्म संकल्प-विकल्प है अर्थात सहमति और असहमति, केवल कोरी कल्पनाएँ। आप इसी धर्म का पालन कर रहे हो, आत्मा-धर्म का नहीं। अतः अभी तक कृष्णदास नहीं बन सके हो...” (उद्धरण: व्याख्यान, मैनर, यूके, 16.7.1995)

 

कृष्ण ने गौर रूप में वृज-प्रेम प्रदान किया 

७४. भक्त: कहीं-कहीं ऐसा कहा जाता है कि जब चैतन्य महाप्रभु ने नवद्वीप छोड़ दिया और संकीर्तन कर रहे थे, तब वे अंश रूप में थे, स्वयम् भगवान नहीं। लेकिन इस श्लोक में कहा गया है कि वे प्रेम-नाम दे रहे थे।

श्रील गौर गोविंद स्वामी: नहीं! गौर स्वयम् भगवान हैं। अन्य कलियुगों में अंशावतार आते हैं, वे व्रज-प्रेम नहीं दे सकते हैं। परन्तु, महाप्रभु स्वयम् भगवान हैं, कृष्ण के अंश नहीं हैं। वे स्वयं कहते हैं "अमा विना अन्ये नारे व्रज-प्रेम दिते" (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला ३.२६) "मेरे बिना अन्य कोई भी बृज-प्रेम नहीं दे सकता।" अतः कृष्ण गौर रूप में बृज-प्रेम प्रदान करते हैं। (व्याख्यान से - मैनर, यू.के., १६.०७.१९९५)

 

 

नृसिंह-चतुर्दशी-व्रत पालन का फल

७५. “...नृसिंह पुराण में उल्लेख है कि प्रह्लाद महाराज ने नृसिंहदेव से प्रश्न किया कि उनमें उनके प्रति भक्ति कैसे विकसित हुई। नृसिंहदेव ने उत्तर में कहा: "प्राचीन काल में, अवंतीपुर नगर में, वसु शर्मा नाम का एक अति विद्वान् ब्राह्मण निवास करता था। वह वेदज्ञ, अर्थात वेदों का ज्ञाता था। उसकी पत्नी का नाम सुशीला था। वह अत्यंत पतिव्रता, सर्व गुण संपन्न और पति के प्रति भक्ति के लिए सुप्रसिद्ध थीं। इस दम्पति ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया। उनमें से चार पुत्र सुन्दर स्वभाव तथा व्यवहार से युक्त, विद्वान और आज्ञाकारी थे। परन्तु, सबसे छोटा पुत्र वसुदेव अपवाद था।" नृसिंहदेव ने प्रह्लाद की ओर संकेत करते हुए कहा, "तुम्हारा नाम वसुदेव था। तुम्हारा चरित्र दूषित था और तुम वेश्यागामी थे। एक दिन तुमने एक वेश्या से झगड़ा कर लिया। उस रात आप दोनों ने मनमुटाव के कारण अन्न ग्रहण नहीं किया। सौभाग्य से, वह मेरा प्राकट्य दिवस था। परिणामस्वरूप तुम दोनों को मेरे आविर्भाव के दिन उपवास करने का शुभ फल प्राप्त हुआ।" इसलिए आज नृसिंह चतुर्दशी के परम पावन अवसर पर सबको उपवास करना चाहिए। "तुमने मेरे प्रिय भक्त प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु के पुत्र के रूप में जन्म लिया। उस वेश्या ने  स्वर्गीय लोक की एक अप्सरा के रूप में जन्म लिया और उसे अत्यधिक भौतिक भोग प्राप्त हुआ। कुछ समय पश्चात वह मेरी भक्त बन गई। और अब, तुम असुर कुल में जन्म के बावजूद भी मेरे अतिप्रिय भक्त हो। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव भी नृसिंह चतुर्दशी-व्रत का पालन करते हैं। मेरा व्रत रखने से, ब्रह्मा को सृजनात्मक शक्ति प्राप्त होती है। इस व्रत के प्रभाव से शिव जी त्रिपुरासुर नामक दानव का वध करने में समर्थ हुए। जो भी मेरे आविर्भाव के दिन मेरा व्रत रखते हैं, मैं उनकी समस्त इच्छाएँ तत्क्षण पूर्ण करता हूँ।” (भुवनेश्वर में एक व्याख्यान से, १४.०५.१९९५)

 

कोई समझौता नहीं

७६. “...गौड़ीय परंपरा के महान आचार्य, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि यदि आप शुद्ध भक्ति विकसित करना चाहते हैं तो आपको लेश मात्र भी अभक्ति से समझौता नहीं करनी चाहिए। मेरे आदरणीय गुरु श्रील प्रभुपाद भी यह अभिप्राय प्रकट करते हैं कि भक्ति के विषय में किसी भी प्रकार की समझौता नहीं होनी चाहिए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर दृढ़ता से कहते हैं,"दुष्ट-गोरु, एक उत्पाती गाय रखने की अपेक्षा रिक्त गोशाला श्रेष्ठ है।" अर्थात भक्तिविनोद-धारा में अपवित्रता के लए कोई स्थान नहीं है। यह धारा स्वयं ठाकुर भक्तिविनोद से चली आ रही है, अतः इसे अवरुद्ध करने का प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ कापट्य और ईर्ष्या कदापि स्वीकार्य नहीं हैं।...” (व्याख्यान से, भुवनेश्वर, १०.०३.१९९५)

 

आचार्य-अवतार का कीर्तन परम आवश्यक है 

७७. “...कृष्ण विषय-विग्रह, प्रेम के विषय हैं और गुरु आश्रय-विग्रह या प्रेम के आश्रय हैं। गुरु-वैष्णवों का एकमात्र कार्य हरि-कीर्तन है। जब तक आश्रय-विग्रह-अवतार आचार्य श्री-गुरुदेव कीर्तन नहीं करते हैं, तब तक आप विषय-विग्रह के नाम, रूप, गुण, परिकर और लीला तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं। श्रीमद्भागवतम भगवान कृष्ण का वाङ्मय अवतार है। परन्तु, जब तक आश्रय-विग्रह आचार्य-गुरुदेव इसका कीर्तन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी भागवत-तत्त्व, ग्रंथ-अवतार, शास्त्र-अवतार - श्रीमद्भागवतम् का तात्पर्य नहीं समझ सकता है। श्रीनाम और श्रीमंत्र इस भौतिक संसार में शब्द-अवतार के रूप में अवतरित हुए हैं, परन्तु जब तक आचार्य-अवतार शिष्य को स्वयं इस कीर्तन का श्रवण नहीं कराते हैं, तब तक श्रीनाम और श्रीमंत्र कभी भी प्रभावशाली नहीं होंगें। यद्दपि मंत्र और पवित्र नाम ग्रंथों में लिखित हैं, अतः कोई यह कह सकता है, "मंत्र यहाँ लिखा है, इसलिए मैं इसका जप कर लूँगा।" लेकिन महंत-गुरु, आश्रय-विग्रह-आचार्य के बिना यह प्रभावहीन होगा। श्री-नाम, श्री-मंत्र और ग्रंथ-भागवत सभी विषय-विग्रह हैं, किंतु आश्रय-विग्रह के कीर्तन के बिना वे कभी भी प्रकट नहीं होते हैं। आप इस तथ्य को समझने का प्रयास करें। श्रीमान् महाप्रभु और श्री नित्यानंद प्रभु आपकी सहायता करेंगें।...” (व्याख्यान से, भुवनेश्वर, १०.०३.१९९५)

 

निष्पक्षता

७८. “ वैष्णव निरपेक्ष होते हैं। वे पक्षपाती नहीं होते। यदि तुम चोर हो, तो वे कहेंगे, ‘तुम चोर हो!’। वे सीधी और निष्पक्ष बात करते हैं। वे शास्त्र, गुरु और पूर्वाचार्यों के आधार पर ही कोई बात कहते हैं। यदि आपको कुछ पक्षपात दिखाई देता है, तो इसका अर्थ है कि वे पूर्वाचार्यों और शास्त्र का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। वे पक्षपाती हैं और सच्चे वैष्णव नहीं हैं। आपको उनकी शिक्षाओं का पालन करने की आवश्यकता नहीं है। आप किसी भी महाराज के पास जा सकते हैं। लेकिन यदि वे निष्पक्ष नहीं हैं, तो हम उनका अनुसरण नहीं कर सकते।

 

...यह अति सूक्ष्म बात है। हमें यह जानना चाहिए कि गुरु कि आज्ञा क्या है। ....” (दर्शन, १९८५, फ्रांस)

 

राधारानी का तोता 

७९. “...लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व राधा-कृष्ण की भौम लीला के समय, श्रीमती राधारानी के पास एक तोता था, जो सदा उनकी बाईं हथेली पर बैठा रहता था। राधारानी उसे अनार के दाने खिलाती थीं। राधारानी सदैव कृष्ण-कथा और कृष्ण की महिमा का गान करती थीं। वह तोता ध्यानपूर्वक उनसे कथा श्रवण करता था। जब राधा और कृष्ण लीला समापन करके अपने नित्य धाम गोलोक वृन्दावन जाने लगे, तब उन्होंने उस तोते से कहा, "तुम यहीं रहो और भागवत-कथा कहो"। इस प्रकार वह शुक इस धरा धाम में रह गया। भागवत-कथा या कृष्ण-कथा ही उसका जीवन था। परन्तु, राधा-कृष्ण के प्रस्थान के उपरांत वह शुक व्याकुल हो गया, "मेरा जीवन कहाँ है? कृष्ण-कथा कहाँ है? भागवत-कथा कहाँ है? मैं इसके बिना कैसे जीवित रह सकता हूँ"? तभी एक आकाशवाणी हुई, "शिवजी कैलाश पर्वत पर भागवत पर प्रवचन कर रहे हैं"। भुवनेश्वर जिसे एकाम्र-क्षेत्र भी कहा जाता है, शिवजी का धाम है। प्राचीन काल में यहाँ एक बहुत ऊँचा और सीधा आम का विशाल वृक्ष था। यह आम्र-वृक्ष इतना विस्तृत था कि पूरे क्षेत्र को आच्छादित किये हुए था। इसलिए इस स्थान को ‘एकाम्र-क्षेत्र’ कहा जाता है। शिवजी इसी स्थान पर भागवत पाठ कर रहे थे...” (उद्धरण: The Glories of Bhubanesvara and Bindu-sarovara भुवनेश्वर तथा बिन्दु सरोवर महात्म्य)

 

श्री-शुक राधारानी के तोते हैं

८०. “...तोता कथा श्रवण करते हुए ‘हूँ, हूँ, हूँ’ का उच्चारण कर रहा था। कुछ काल के पश्चात् शिवजी ने देखा कि पार्वती देवी निद्रा में हैं, तो फिर यह ‘हूँ, हूँ, हूँ’ की ध्वनि कौन कर रहा है? क्या यहाँ कोई और है? तब उन्होंने देखा कि एक तोता पेड़ पर बैठा है। "मैंने तो सबको भगा दिया था, फिर यह तोता कौन है जो श्रीमद्भागवतम् सुन रहा है?" शिवजी ने हाथ में त्रिशूल लेकर क्रोधपूर्वक उस तोते को भगाने का प्रयास किया। तोता उड़ गया और शिवजी उसके पीछे-पीछे दौड़े। वह तोता उड़कर बद्रिकाश्रम पहुँचा। बद्रिकाश्रम के पास ही शम्याप्रास आश्रम या व्यासदेव का आश्रम है। उस समय व्यासदेव अपनी पत्नी को श्रीमद्भागवत सुना रहे थे। व्यासदेव की पत्नी मुँह खोलकर "आआआ..." करते हुए कथा सुन रही थीं। तोता सीधे उड़कर उनके खुले मुँह में घुस गया और उनके गर्भ में चला गया और वहीं रहा। बाद में वह शुकदेव गोस्वामी के रूप में प्रकट हुआ। इसीलिए श्री-शुक, राधारानी के तोते हैं। अन्यथा, भागवत कौन बोल सकता है? शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्...” (प्रवचन, २१ जुलाई १९९८५, रॉटरडैम, नीदरलैंड)

 

राधा-तत्त्व

श्रीमद्भागवतम् २.३.२३ पर अपने तात्पर्य में, श्रील प्रभुपाद लिखते हैं:

 

“...वृन्दावन के सारे लोग भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति, श्रीमती राधा रानी, से कृपा की प्रार्थना करते हैं। राधारानी सुकुमार हृदय से युक्त हैं, जो परम पूर्ण भगवान की अर्धांगिनी हैं, तथा जो संसार के स्त्रीस्वभाव की पराकाष्ठा के अनुरूप हैं। अतएव निष्ठावान भक्तों को राधारानी की कृपा सरलता से प्राप्त हो जाती है और एक बार जब वे भगवान् कृष्ण से ऐसे भक्त के लिए आवेदन करती हैं, तो भगवान् उसे तुरंत ही अपना संगी बना लेते हैं।...”

 

श्रील प्रभुपाद कहते हैं:

“...तो यही हमारा दर्शन है, राधारानी के माध्यम से कृष्ण को प्रसन्न करना। आज राधारानी का शुभ आविर्भाव दिवस है। इसलिए हमें पुष्पांजलि अर्पित करनी चाहिए और राधारानी से प्रार्थना करनी चाहिए: 'राधारानी, कृपया मुझ पर कृपा कीजिए और कृष्ण से मेरे बारे में निवेदन कीजिये। कृष्ण आपके हैं।' कृष्ण स्वतंत्र नहीं हैं। कृष्ण राधारानी की संपत्ति हैं। इसलिए आपको राधारानी के माध्यम से कृष्ण के पास जाना है। अतः आज का दिन बहुत शुभ है। राधारानी की पूजा कीजिए और प्रसन्न रहिये...” (श्रील प्रभुपाद राधाष्टमी प्रवचन, लंदन, ५ सितंबर १९७३)

 

८१. राधारानी मेरी गुरु हैं

 

"...हमारी गुरु-परम्परा में कृष्ण सर्वोच्च हैं, परन्तु स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं:

 

राधिकार प्रेम-गुरु, आमि-शिष्य नट

सदा आमा नाना नृत्ये नाचाय उद्भट

राधिका का प्रेम मेरा गुरु है और मैं उसका नर्तक शिष्य हूँ। उसका प्रेम मुझे विविध प्रकार के अभिनव नृत्य के लिए प्रेरित करता है। (श्री चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला ४.१२४)

 

कृष्ण कहते हैं: "मेरी गुरु राधारानी हैं। प्रेम संबंधों में राधारानी मेरी गुरु हैं। वे मुझे सदैव अपनी सुर में नचाती हैं।" तो फिर गुरु के सर्वोच्च पद पर कौन आसीन हैं? श्रीमती राधारानी। यद्द्यपि हमारी गुरु-परम्परा में कृष्ण को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, फिर भी वे स्वयं कहते हैं: "प्रेम-लीलाओं में राधारानी मेरी गुरु हैं, और वे मुझे अपनी इच्छानुसार नचाती हैं। मैं नाचूँगा, मैं नाचूँगा। 'आमि शिष्य नट' - मैं उनका शिष्य और नट (नर्तक) हूँ।" गुरु शिष्य को नचाते हैं, "उधर जाओ, इधर आओ, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे।" गुरु शिष्य को नचाते हैं। इसीलिए कृष्ण कहते हैं: "प्रेम संबंधों में राधारानी मेरी गुरु हैं, और वे मुझे सदैव अपने सुर में नचाती हैं। मैं उनके सुर में नाच रहा हूँ। मेरी गुरु राधारानी हैं।"

 

इस प्रकार, गुरु-परम्परा में, राधारानी का सर्वोच्च स्थान है। यही गुरु-तत्त्व है। जिन्हें व्रज-सेवा-अधिकार अर्थात् वृन्दावन में श्रीकृष्ण की सेवा का अधिकार प्राप्त होता है, वे राधारानी के सेवक होते हैं। जिन्हें यह दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है, वे राधारनाथ (राधारानी के नाथ) की सेवा करते हैं। और गौरसुन्दर "राधा-भाव-द्युति-सुवलितम्" अर्थात् जो राधारानी का भाव और अंगकान्ति को लेकर अवतरित हुए हैं।

 

गौर-अंग नहे मोर—राधांग-स्पर्शन

गोपेन्द्र-सुत बिन्द, तेंहो ना स्पर्शे अन्य जन

(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला ८.२८७)

यह स्वयं श्रीगौरांग महाप्रभु का कथन है। "यह गौर का शरीर नहीं है, अपितु यह राधा का शरीर है। केवल व्रजेन्द्र-सुत, नन्द महाराज के पुत्र श्रीकृष्ण ही इस शरीर को स्पर्श कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं।" गौरांग महाप्रभु में राधा-भाव की प्रधानता है। हमारी गुरु-परम्परा में जहाँ गौर आते हैं, राधा भी वहाँ आती हैं। अतः जिस परम्परा में गौरांग महाप्रभु अवतरित होते हैं, वह वास्तव में राधा की परम्परा है।

 

अतः गौरानुग (गौरांग महाप्रभु के अनुयायी) वास्तव में राधानुग भी हैं। क्योंकि गौर में राधा-भाव प्रमुखता से विद्यमान है। यही गौड़ीय गुरु-धारा है...” (उद्धरण: श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज द्वारा रचित The Last Limit of Bhakti पुस्तक से,)

 

अब तक राधा-तत्त्व पर श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज के तीन अद्भुत व्याख्यान पुस्तिका रूप में प्रकाशित हो चुके हैं:

 

१. राधाष्टमी—श्रीमती राधारानी का प्राकट्य।

२. राधा-प्रेम कृष्ण को उन्मादित कर देता है।

३. राधारानी की सुंदरता।

 

इन तीन व्याख्यानों के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं।

८२. १) राधाष्टमी - श्रीमती राधारानी का प्राकट्य दिवस

 

कृष्ण का परिवार सहित वृषभानु महाराज के महल में आगमन

 

“...जब कई दिनों तक राधा ने अपने नेत्र नहीं खोले, तो माता कीर्तिदा अत्यंत उदास हो गईं।

 

पार्वती ने पूछा, 'कृपया वर्णन कीजिये कि राधारानी की दृष्टि कैसे वापस आयी?' शिवजी बोले, 'मैं तुम्हें एक अद्भुत कथा सुनाता हूँ, जिसे सुनकर सभी को दिव्य आनंद का अनुभव होगा।'

 

महाराज वृषभानु ने राधारानी के प्राकट्य के शुभ अवसर पर एक भव्य उत्सव का आयोजन किया। उन्होंने समस्त गोप-गोपियों को आमंत्रित किया। नन्द महाराज और यशोदारानी को विशेष निमंत्रण भेजा। वे दोनों बैलगाड़ी में बैठकर महाराज वृषभानु के महल में पधारे। वृषभानु महाराज नन्द महाराज का, और कीर्तिदा माता यशोदा माता का स्वागत करने के लिए महल से बाहर आये। वृषभानु और नन्द महाराज ने एक-दूसरे का हर्षपूर्वक आलिंगन किया, और कीर्तिदा तथा यशोदा भी अंतःपुर में एक-दूसरे से स्नेहपूर्वक गले मिलीं। एक महा उत्सव चल रहा था, मृदंग, नगाड़ा, शंख, इत्यादि वाद्य-यंत्रों की ध्वनि से वातावरण गुंजायमान था। सबके हृदय में वास करने वाले अंतर्यामी-हरि समझ गए कि अंदर राधा पालने में सो रही थीं। किसी को भनक नहीं लगी कि कब बालकृष्ण मंद गति से राधारानी के पालने के निकट आ गए। अपनी प्रियतमा के मुख कमल को निहारकर वे मन ही मन मुस्कुराने लगे। तत्पश्चात उन्होंने अपने हस्त कमलों को राधारानी के नेत्रों पर रख दिया। जैसे ही राधा ने श्रीकृष्ण के हस्त कमल के स्पर्श का अनुभव किया, उन्होंने तत्क्षणात् अपने नेत्र खोल दिए और सर्वप्रथम कृष्ण के सुन्दर मुखकमल का दर्शन किया।

 

नेत्रों से नेत्रों का मिलन

राधा और कृष्ण दोनों अत्यंत आनन्दित थे। उसी समय कीर्तिदा अपनी पुत्री के पालने के पास गईं और देखा कि राधा ने अपने चक्षु खोल दिया हैं। कीर्तिदा अत्यधिक आनंदित हो गईं और अपनी पुत्री को गोद में उठा लिया। उन्होंने कहा, "अरे, कृष्ण ने राधा को दृष्टि प्रदान की है, इसलिए यह बालिका कृष्ण को अत्यंत प्रिय होगी।" यह सुनकर माता यशोदा भी अत्यंत प्रसन्न हुईं..." (व्याख्यान से, ०२.०९.१९९५, गदाईगिरि, भारत)

 

८३. (२) राधा-प्रेम कृष्ण को उन्मादित कर देता है।

दो विरोधात्मक विषय हैं

"...हमें यह विचार करना होगा कि राधा का प्रेम क्या है? और कैसे राधा-प्रेम स्वयं कृष्ण से भी श्रेष्ठतम है। भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है, मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति – “मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है”, वे परमेश्वर हैं। लेकिन यहाँ कृष्ण परमेश्वर नहीं हैं। अतः दो विपरीत पक्ष हैं। एक ओर कृष्ण परमेश्वर हैं, और दूसरी ओर वे परमेश्वर नहीं हैं। वे राधारानी के चरणकमलों की याचना कर रहे हैं: देहि पद पल्लवम् उदारम्। ये दो विपरीत भाव हैं। यह अत्यंत अद्भुत है..."

 

राधा-प्रेम के तीन विषय

"...राधा-प्रेम के तीन प्रमुख विषय हैं। प्रथम, राधा-प्रेम कृष्ण को उन्मत्त कर देता है। राधा-प्रेम इतना शक्तिशाली है कि वह सर्वशक्तिमान, सर्वसामर्थ्यवान कृष्ण को भी उन्मादित कर देता है। यद्द्यपि कृष्ण सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ हैं, तथापि वे भी राधा-प्रेम के लिए उन्मत्त हो जाते हैं। अतः राधा-प्रेम कृष्ण से भी श्रेष्ठ है।

द्वितीय, राधा-प्रेम के रस का जो सुख और आनंद है, वह स्वयं कृष्ण के लिए भी अज्ञात है, यद्यपि कृष्ण सर्वज्ञ हैं। इसलिए राधा-प्रेम, कृष्ण से भी महान है।

तृतीय, राधा-प्रेम दो विरोधाभासों का अद्भुत संगम है। हम इन तीनों विषयों पर एक के बाद एक चर्चा करेंगे..." (भुवनेश्वर में १९.०३.१९९२ को दिए गए एक व्याख्यान से)

 

८४. (३) राधारानी की सौंदर्य-माधुरी

कृष्ण, राधारानी की संपत्ति हैं

"...हमें श्रीमती राधारानी की कृपा हेतु प्रार्थना करनी चाहिए। हमारा लक्ष्य कृष्ण प्राप्ति है, परन्तु हम उन्हें कैसे प्राप्त कर सकते हैं? वास्तव में, राधारानी की कृपा के बिना, हम कृष्ण को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। ‘राधार-कृष्ण, गोविन्द सर्वस्व’ - कृष्ण राधारानी के हैं। यदि राधारानी हम पर कृपा करेंगी, तभी हम कृष्ण को प्राप्त कर सकेंगे; अन्यथा यह संभव नहीं है। इसीलिए हम राधारानी के पाद-पद्मों की शरण लेते हैं..."

 

‘हरे कृष्ण’ महामंत्र का अर्थ

"...जब हम ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे’ का जप करते हैं, तो हम राधारानी से प्रार्थना करते हैं। 'हरे' शब्द 'हरा' को सम्बोधित करता है जिसका अर्थ है कृष्ण की अन्तरंगा शक्ति श्रीमती राधारानी। तत्पश्चात् हम 'कृष्ण' का उच्चारण करते हैं “हे कृष्ण!” इस प्रकार, सर्वप्रथम हम ‘हरे’ अर्थात् राधारानी को पुकारते हैं क्योंकि उनकी कृपा से ही हम कृष्ण तक पहुँच सकते हैं, अन्यथा संभव नहीं है। इसीलिए हम पहले  ‘हरे’ और फिर ‘कृष्ण’ कहते हैं। यह ‘हरे कृष्ण’ महामंत्र का गूढ़ अर्थ है। इस प्रकार, हमें श्रीमती राधारानी के चरणों की शरण लेनी चाहिए..."

 

राधा-पदाम्भोज-रेणु

श्रीमती राधारानी के चरणकमलों की रज

"...गौड़ीय गोस्वामियों ने श्रीमती राधारानी के विषय में अनेक श्लोक लिखे हैं, क्योंकि वे राधारानी के अत्यंत प्रिय सेवक हैं। उन्होंने ही वास्तव में कृष्ण को प्राप्त किया है। मैं उनके लिखे कुछ श्लोकों का उच्चारण करूँगा:

 

अनाराध्य राधा-पदाम्भोज-रेणुम्

अनाश्रित्य वृन्दाटवीं तत्-पदाङ्काम्।

असम्भाष्य-तद्-भाव-गम्भीर-चित्तान्

कुतः श्याम-सिन्धो रसस्यावगाहः॥

यदि आपने श्रीमती राधारानी के चरणरज की आराधना नहीं की है, या उनके चरणचिह्नों से अंकित पवित्र वृजभूमि की भक्ति नहीं की है, अथवा सदा राधारानी का चिंतन करने वाले भक्तों के चरण कमलों की सेवा नहीं की है, तब आप श्याम या श्रीकृष्ण नामक अमृत सागर के प्रति आकर्षित कैसे होंगे? (स्व-संकल्प-प्रकाश-स्तोत्र, श्लोक १)

 

राधा-पदाम्भोज-रेणु नाहि आराधिले

ताङ्हार पदाङ्क-पूत-व्रज ना भजिले

ना सेविले राधिका-गम्भीर-भाव-भक्त

श्याम-सिन्धु-रसे किसे हबे अनुरक्त?

“...राधा-पदांभोज-रेणु, ‘रेणु’ (धूलि), ‘अम्भोज’ (कमल) और ‘पद’ (चरण)। यदि आप राधारानी के चरण कमलों की पावन रज की आराधना नहीं करते हैं, तो आप श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ताङ्हार पदाङ्क-पूत-व्रज ना भजिले - वृन्दावन की भूमि और रज पवित्र क्यों है? क्योंकि वह श्री राधारानी के चरणों चिन्हों से अंकित है। राधारानी के चरण रखने मात्र से ही यह सम्पूर्ण भूमि पावन हो जाती है।

 

ना सेविले राधिका-गम्भीर-भाव-भक्त, श्याम-सिन्धु-रसे किसे हबे अनुरक्त? यदि आप राधारानी के भाव की सेवा नहीं करते हैं, तो आप कृष्ण को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यहाँ राधारानी के भाव का अर्थ है कि स्वयं कृष्ण राधारानी का भाव अंगीकार करके गौरांग रूप में प्रकट हुए। श्याम-सिन्धु-रसे किसे हबे अनुरक्त - श्यामरस सागर सदृश है। यदि आप गौरांग की आराधना और सेवा नहीं करते, तो उस श्यामरस सागर में आपकी रुचि उत्पन्न नहीं हो सकती”। (उद्धरण: व्याख्यान, २७.०४.१९८९)

 

नित्यानंद तत्त्व 

८५. जैसा कि इस लेख के बिंदु ५ पर उद्धृत किया गया है: श्री नित्यानंद प्रभु ही समस्त गुरु-तत्त्व (समष्टि गुरु) के स्वरूप हैं, और प्रत्येक व्यक्तिगत गुरु (व्यष्टि गुरु) श्री नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधि हैं। प्रामाणिक गुरु नित्यानंद प्रकाश हैं, अर्थात् वे नित्यानंद प्रभु से उद्भूत होते हैं। गुरु-तत्त्व और अन्य गूढ़ तत्त्व, श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज के हज़ारों प्रवचनों में विस्तार से समझाए गए हैं। नित्यानंद त्रयोदशी महोत्सव श्री श्री कृष्ण-बलराम मंदिर, भुवनेश्वर में सर्वाधिक हर्षोल्लासमय दिन होता था। वैसे तो श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज सदैव शुद्ध भक्ति ज्वर में निमग्न रहते थे, किंतु इस दिन वे और भी अधिक उन्मत्त हो जाते थे। इस दिव्य अवसर पर वे श्री नित्यानंद प्रभु की महिमा का गुणगान करते हुए निम्नलिखित भजन गाया करते थे।

 

नित्यानंद प्रभु, स्वयं गौरांग महाप्रभु से भी अधिक कृपालु, उदार और दीनबंधु हैं। इसलिए, वे इस दिन विशेष रूप से "निताई गुणमणि" गीत गाते थे।

 

निताई गुणमणि (नित्यानंद – गुणों के रत्न)

(श्रील लोचन दास ठाकुर कृत, भावानुवाद: श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज द्वारा)

 

निताई गुण-मणि आमार निताई गुण-मणि

आनिया प्रेमेर वन्या भासाइलो अवनी ।१।

श्रील लोचन दास ठाकुर कहते हैं, “श्रीनित्यानंद प्रभु गौड़-देश में कृष्ण-प्रेम की बाढ़ लेकर आए। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को कृष्ण-प्रेम से आप्लावित कर दिया”।

 

प्रेमेर वन्या लइया निताई आइला गौड़-देशे

डुबिलो भकत-गण दीन हीन भासे ।२।

उस दिव्य प्रेम से श्रीनित्यानंद प्रभु ने इस धरा को प्रेम रस से सराबोर कर दिया। डुबिलो भकत-गण दीन हीन भासे – भक्तगण आनंदपूर्वक भगवत्प्रेम रूपी बाढ़ (प्रेमेर वन्या) में डूब गए। परन्तु दीन-हीन, पतित आत्माएँ उस दिव्य प्रेम रस की सतह पर ही तैरती रहीं। 

 

दीन हीन पतित पामर नाहि बाछे

ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम सबाकारे जाचे ।३।

नित्यानंद प्रभु, बिना किसी भेदभाव के सबको भगवत्प्रेम प्रदान करते हैं। कृष्ण प्रेम प्राप्त करना दुर्लभ है, परन्तु वे दोनों हाथों से इसे वितरित करते हैं! "ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम " वह प्रेम जो ब्रह्मा के लिए भी अप्राप्य है, निताई बिना किसी भेदभाव के उसे पतित, पामर, योग्य अथवा अयोग्य, सभी को प्रदान करते हैं।

 

आबद्ध करुणा-सिंधु निताइ काटिया मुहाँ

घरे घरे बुले प्रेम-अमियार बान ।४।

कृष्ण-प्रेम एक विशालकाय सिंधु के सदृश है जो अब तक तटबंधित था, परंतु श्रीनित्यानंद प्रभु अपार करुणा के सागर करुणा-सिंधु हैं, अतएव उन्होंने दृढ़ तटबंध को पूर्णतया ध्वस्त कर दिया। प्रेम का वह सागर अपरिमित है। अतः बाँध के टूटने से कृष्ण-प्रेम की अमृतमयी धराएँ घर-घर प्रविष्ट हुईं तथा सारा संसार इस कृष्ण-प्रेम में डूब गया।

 

लोचन बोले हेन निताई जेबा न भजिलो

जानिया शुनिया सेइ आत्म-घाती होइलो ।५।

श्रील लोचन दास ठाकुर कहते हैं, "जो नित्यानंद प्रभु का आश्रय स्वीकार नहीं करता, उनका भजन नहीं करता और उनसे कृपा की याचना नहीं करता, वह हतभागी है। वह स्वयं ही आत्मघात कर रहा है, 'आत्म-घाती हइल '।"

 

नित्यानंद प्रभु की कृपा के लिए प्रार्थना करें

८६. "...नित्यानंद प्रभु अद्भुत रूप से करुणामय हैं। हम श्रील कानू राम दास ठाकुर द्वारा रचित भजन के माध्यम से नित्यानंद प्रभु की कृपा याचना करते हैं, दया करो मोरे निताई - हे नित्यानंद प्रभु! मुझ पर कृपा करें! इस सुन्दर भजन को अवश्य सीखना चाहिए। दया करो मोरे निताई, दया करो मोरे..." (भुवनेश्वर में श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज का प्रवचन — १७ फरवरी १९९२)

 

दया की अंतिम सीमा

८७. ".... हम, पतित-पावन, श्री श्री प्रेम दाता, नित्यानंद ठाकुर का आविर्भाव उत्सव मना रहे हैं, जिनकी कृपा असीम, अनंत व अपार है। उनकी कृपा की कोई सीमा नहीं है। यदि कृपा की सीमा रेखा का निर्धारण किया जाये तो निताई की कृपा अंतिम सीमा है। निताई आमार दयार अवधि, अवधि अर्थात् सीमा। नित्यानंद प्रभु दया की पराकाष्ठा हैं। दया की अंतिम सीमा हैं......" (भुवनेश्वर में श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज का प्रवचन - १७.०२.१९९२)

 

८८. “…. श्रील लोचन दास ठाकुर द्वारा विरचित भजन अक्रोध परमानंद नित्यानंद राय। श्रीमान नित्यानंद राय कभी क्रोधित नहीं होते। दुष्ट जगाई-मधाई ने नित्यानंद प्रभु के मस्तक पर मदिरा की भांडी (हांड़ी) से प्रहार किया और उनके मस्तक से रक्त स्राव होने लगा, परन्तु फिर भी वे क्रुद्ध नहीं हुए बल्कि उन्होंने उन दुष्टों का आलिंगन किया। श्रीनित्यानंद राय का स्वभाव अचिंत्य तथा अति दयापूर्ण है”।….(भुवनेश्वर में श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज का प्रवचन - १७.०२.१९९२)

 

नित्यानंद प्रभु भेदभाव रहित मुक्त हस्त से कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं

८९. "...... पतित-पामर नाही बाचे- नित्यानंद प्रभु पापी, तापी, पामर, उत्तम, अधम इत्यादि में कोई भेदभाव नहीं करते हैं। उत्तम अधम किछु ना कइल विचार - यद्यपि यह कृष्ण-प्रेम अत्यंत दुर्लभ है और ब्रह्मा जी के लिए भी अप्राप्य है, फिर भी वे मुक्त हस्त से सभी को कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं......।"

 

नित्यानंद और बांका राय

 १७ फ़रवरी १९९२, भुवनेश्वर, भारत में श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज द्वारा दी गई पूर्ण श्री नित्यानंद ठाकुर का प्रवचन का सार आपके समक्ष प्रस्तुत है:

 

९०. नित्यानंद प्रभु के पिता का नाम श्री हड़ाई ओझा और माता का नाम श्रीमती पद्मावती था। नित्यानंद प्रभु के प्राकट्य के कुछ अंतराल में ही माता पद्मावती ने एक और पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम ‘बाँका राय’ था। दोनों भाई, नित्यानंद और बाँका राय, एकचक्र ग्राम में प्रकट हुए थे। गाँव के निकट ही यमुना नदी बहती है और बाल्यकाल में नित्यानंद और बाँका राय अपने मित्रों व संगियों सहित नदी के तट पर विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ किया करते थे, जिसमें श्रीकृष्ण तथा श्रीराम की लीलाएँ भी सम्मिलित थीं।

 

बाँका अर्थात् ‘त्रिवक्र’ या ‘त्रिभंगी’, अतएव ‘बाँका’ शब्द श्रीकृष्ण को इंगित करता है और ‘राय’ श्रीमती राधारानी को। जब श्रीकृष्ण एवं श्रीमती राधारानी के दिव्य स्वरूप मिलते हैं, तब बाँका राय अर्थात् गौरांग महाप्रभु का आविर्भाव होता है। अतः ‘बाँका राय’ का अर्थ है राधा-कृष्ण का युगल रूप, अर्थात् श्रीगौरांग महाप्रभु।

 

द्वापर युग का विशाल सर्प

९१.  एक बार दोनों भाई अपने नाना के गाँव मयूरेश्वर गए हुए थे। उस गाँव के पास ही एक घना जंगल था। एक दिन, जब दोनों भाई उस जंगल में प्रवेश करने लगे, तो ग्रामवासियों ने उन्हें रोका, " अरे! जंगल में एक अत्यंत विशाल और विषैला सर्प रहता है, जो भी व्यक्ति वहां जाता है, वे सर्प उसे डस लेता है और वह कभी वापस नहीं लौटता। अतएव वहाँ मत जाओ।" परन्तु, दोनों भाई ग्रामवासियों की चेतावनी को अनसुनी करते हुए जंगल में प्रवेश कर गए।

 

वहाँ तमाल वृक्ष के नीचे एक अत्यंत विषैला सर्प रहता था। जैसे ही दोनों भाइयों ने जंगल में प्रवेश किया, वह अपना फन फैलाकर बाहर आया। नित्यानंद प्रभु, पूर्ण निर्भीकता से अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर कहने लगे, “अरे दुष्ट! वहीं रुक जा! आगे मत बढ़!” नित्यानंद प्रभु की गर्जना सुनकर साँप वहीं रुक गया। “तुम निर्दोष व्यक्तियों को क्यों डस रहे हो?” नित्यानंद प्रभु नागराज ‘अनंत-शेष’ हैं, इसलिए उनका निर्देश सुनकर सर्प रुक गया। तब उस सर्प ने उन्हें द्वापरयुग का अपना इतिहास बताया।

 

एकचक्र ग्राम में पाण्डव

९२. सर्प कहने लगा, “द्वापरयुग में, लाक्षागृह दहन के पश्चात्, ब्राह्मणों के वेश में पाँचों पाण्डव विभिन्न गाँवों में विचरण करते हुए गुप्त रुप से भिक्षाटन कर रहे थे। उसी समय वे एकचक्र गाँव भी पधारे जहाँ उनकी भेंट श्रील व्यासदेव से हुई। व्यासदेव ने उन्हें वेदश्रव नामक ब्राह्मण के घर पर निवास करने का निर्देश किया। वेदश्रव एक निर्धन ब्राह्मण था और भिक्षाटन करने के लिए प्रतिदिन भिन्न-भिन्न द्वारों पर जाता था। ऐसी दयनीय स्थिति में भी उसने अपने घर का आधा भाग पाण्डवों तथा माता कुंती को रहने के लिए दे दिया। तत्पश्चात प्रतिदिन चार भाई क्रमिक रूप से भिक्षाटन करने के लिए बाहर जाने लगे, और एक भाई माता कुंती के साथ रहता था। यह क्रम प्रतिदिन बदलता था।" 

 

दानव बक़ासुर

९३. एक दिन, क्रमानुसार जब भीमसेन माता कुंती के साथ रुके, तो कुंतीदेवी ने वेदश्रव की पत्नी को क्रंदन करते हुए सुना। वे उसके पास गयीं और पूछा, "बहन, तुम्हारे रुदन का क्या कारण है?" ब्राह्मणी ने बतलाया, "गाँव से चार-पाँच मील दूर बक़ासुर नामक एक दानव रहता है। पूर्वकाल में वह दानव प्रतिदिन गाँव में आकर अत्यंत निर्दयता से अनेक जानवरों तथा मनुष्यों को मारकर खा जाता था। तदुपरांत एक बार गाँव के सभी निवासियों ने एकत्रित होकर पंचायत की और सर्वसम्मति से एक निर्णय लिया। उन्होंने दानव से अनुरोध किया कि वह प्रतिदिन गाँव में आकर जीवों की हत्या न करे, गाँववासी प्रतिदिन उसके आहार हेतु एक मानव, एक अन्न से भरा शकट, चावल, पीठा और दो भैंसे स्वत: ही भेज देंगे। इसके पश्चात उसे गाँव में आकर उपद्रव मचाने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। 

 

वह दानव अत्यंत प्रसन्न हुआ और बोला, "हाँ, यह बहुत सुंदर व्यवस्था है! अगर तुम सब प्रतिदिन मेरे भोजन हेतु पर्याप्त मात्रा में आहार भेज दोगे, तो फिर मैं यहाँ क्यों आऊँगा?" इस प्रकार, एक-एक ग्रामवासी, क्रम के अनुसार प्रतिदिन अपने घर से दानव के लिए निश्चित खाद्य सामग्री भेजता है।” एकचक्र अत्यंत विशाल गाँव था और समस्त ग्रामवासी एकमत थे। अतः प्रत्येक गृहस्थ की बारी तैंतीस वर्ष, दो महीने और बीस दिन में एक बार आती थी।

 

भीम बक़ासुर का वध करता है

९४. एक दिन पहले गाँव के उद्घोषक ढोल बजाकर आगामी बारी की घोषणा किया करते थे। अतएव उन्होंने घोषणा की, "कल वेदश्रव की बारी है।" उस गरीब ब्राह्मण के परिवार में केवल चार व्यक्ति थे: ब्राह्मण वेदश्रव, उनकी पत्नी उमादेवी, उनका दस वर्षीय पुत्र विद्याधर और उनकी आठ वर्षीय पुत्री भानुमति। 

 

अतः ब्राह्मण ने दो भैंसे, एक शकट अनाज, चावल और पीठा तैयार कर लिए। फिर अगला प्रश्न यह उठा कि बक़ासुर तक उसका भोजन लेकर कौन जाएगा? वेदश्रव ने कहा, "मैं जाऊँगा।" उनके पुत्र ने कहा "नहीं, नहीं पिताजी। आप मत जाइए, मैं जाऊँगा।" जब बेटे ने ऐसा कहा, तो ब्राह्मणी रोने लगी। यह सुनकर कुंतीदेवी वहाँ आयीं और ब्राह्मणी ने उन्हें यह वृतांत सुनाया। 

 

यह सुनकर कुंतीदेवी ने कहा, "कृपया क्रंदन मत कीजिए। तुम्हारा एक ही पुत्र है, परंतु मेरे पाँच पुत्र हैं, अत: मैं उनमें से एक का बलिदान दूँगी।" कुंतीदेवी भीम के पराक्रम से भलीभाँति अवगत थीं, अत: उन्होंने कहा, "मैं भीम को भेजूँगी। भीम अवश्य उस राक्षस का वध कर देगा और इस प्रकार गाँव के सभी निवासियों की रक्षा होगी।" 

 

तत्पश्चात् कुंतीदेवी ने भीम से कहा, "प्रिय पुत्र भीम, तुम उस दानव बक़ासुर के पास जाओ। इस ब्राह्मण परिवार ने विपत्ति के समय हमें आश्रय प्रदान करके हम पर महान उपकार किया है। अतएव कठिन समय में अब हमें उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका केवल एक ही पुत्र है और आज उसे बक़ासुर का भोजन बनना पड़ेगा, जिसके कारण पूरा परिवार विलाप कर रहा है। इसलिए तुम्हें दानव तक उसका भोजन ले जाना चाहिए और उस दानव का वध करना चाहिए।" 

 

यह सुनकर भीमसेन अत्यंत प्रसन्न हुए, " निश्चित रूप से माता! मैं अवश्य ही उस दानव के पास जाऊँगा!" अतएव भीम ने अनाज से भरी शकट, चावल और पीठे के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। अन्न और पीठा खाते हुए वे पूरे रास्ते उच्च स्वर में दानव को ललकार रहे थे, "अरे दानव बक़ासुर, कहाँ है तू? बाहर निकल! बाहर निकल!" जब उस दानव ने देखा कि उसकी भोज्य सामग्री कोई और खा रहा है, तो वह कुपित हो उठा और उसने एक विशाल वृक्ष उखाड़ कर भीमसेन पर फेंका। प्रत्युत्तर में भीम ने भी एक विशाल वृक्ष उखाड़ कर दानव पर फेंका। तदुपरांत दोनों के मध्य भीषण युद्ध हुआ। अंतत: भीम ने उस दानव का वध कर दिया और वे पूरा भोजन खाकर रिक्त गाड़ी सहित गाँव वापस लौटने लगे। 

 

अर्जुन का नागपाश

९५. इसी बीच, अर्जुन भिक्षाटन करके वापस लौटे और उन्होंने देखा कि उनके अग्रज भ्राता भीम घर पर नहीं हैं। उन्होंने माता कुंती से पूछा, "भीम कहाँ हैं?" माता कुंती ने उन्हें पूरा वृतांत सुनाया और बताया कि भीम बक़ासुर नामक राक्षस से युद्ध करने गए हैं। अर्जुन चिंतित होकर विचार करने लगे, " भ्राता भीम अकेले ही उस दानव से युद्ध कर रहे होंगे और अवश्य विपत्ति में होंगे।" अर्जुन ने माता कुंती से कहा, "माँ, मैं भ्राता भीम की सहायता के लिए जा रहा हूँ। कृपया आप ब्राह्मण के घर में ही ठहरें।" 

 

अर्जुन ने अपना गाण्डीव उठाया और युद्धक्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। पथ पर उनके मन में विचार आया, "मुझे वहाँ पहुँचने में विलम्ब हो जाएगा और भ्राता भीम निश्चित ही व्याकुल हो रहे होंगे।" इस प्रकार चिंतामग्न मन: स्थिति में अर्जुन ने नागपाश अस्त्र प्रक्षेपित करने का निर्णय लिया। तत्पश्चात उन्होंने नागपाश अस्त्र के प्रयोग हेतु मंत्रोच्चारण किया, "हे नाग! जाओ और उस दानव को बंदी बना लो।" 

 

मार्ग पर आगे अर्जुन ने देखा कि भीम वापस आ रहे हैं। भीम ने बताया कि उन्होंने दानव का वध कर दिया है। अर्जुन ने कहा, "ओह! परंतु मैं तो नागपाश छोड़ चुका हूँ। वह उस दानव की तलाश में वहीं घूम रहा होगा और जब तक उसे वह दानव नहीं मिलेगा वह प्रत्येक प्राणी को निगल जाएगा। इसलिए मैं उसका शमन करने जा रहा हूँ।"

 

वहाँ पहुँचने पर अर्जुन ने देखा कि वह नाग इधर-उधर भ्रमण कर रहा है। अर्जुन ने उससे कहा, "हे नाग, तुम इस तमाल वृक्ष के नीचे रहो। तुम्हें कहीं अन्यत्र जाने और किसी को क्षति पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है।" तब उस नाग ने पूछा, "किंतु मैं जीवित कैसे रहूँगा? मैं भोजन क्या करूँगा?" अर्जुन ने कहा, "जो कोई भी इस तमाल वृक्ष के निकट आएगा, तुम उसे निगल लेना, परंतु इस वृक्ष से तनिक भी दूर मत जाना।" 

 

इस प्रकार उस नाग ने नित्यानंद प्रभु को अपनी जीवन गाथा सुनाई, "अतः मैं, उस दिन से लेकर अब तक इसी तमाल वृक्ष के नीचे रहता आया हूँ और जो कोई भी यहाँ आता है मैं उसे निगल जाता हूँ।" 

 

नित्यानंद प्रभु के पास केवल एक कुंडल है

९६. तत्पश्चात, नित्यानंद प्रभु ने नाग से कहा, "तुम इस छिद्र (बिल) के भीतर निवास करो। बाहर आकर किसी भी जीव को निगलने की आवश्यकता नहीं है।" यह सुनकर नाग ने पूछा, "मैं आहार के बिना जीवित कैसे रहूँगा?" नित्यानंद प्रभु ने उत्तर में कहा, "आज से स्थानीय लोग यहाँ आकर तुम्हारी पूजा-अर्चना करेंगे और तुम्हें भोग अर्पित करेंगे। तुम केवल वही भोग को ग्रहण करना। तुम्हें किसी मनुष्य, पशु या अन्य जीव का भक्षण करने की आवश्यकता नहीं है।" 

 

नित्यानंद प्रभु ने अपने कर्ण से एक स्वर्ण का कुंडल उतारकर छिद्र के मुख पर रख दिया। उस दिन से नित्यानंद प्रभु अथवा बलराम के पास केवल एक ही कुंडल है। वह कुंडल धीरे-धीरे एक बृहत् शिला में बदल गया, और आज उसके ऊपर एक अति सुंदर मंदिर स्थित है। अब यह पवित्र स्थान कुंडली-ताल, या कुंडली-दमन के नाम से जाना जाता है। आज भी, बहुत से लोग उस नाग की पूजा करने और भोग चढ़ाने जाते हैं।

 

बाँका राय का तिरोभाव

९७. एक बार, बाँका राय एक खेत की रखवाली कर रहे थे। वह लगभग पाँच या दस हेक्टेयर की कृषि भूमि थी, परन्तु उस भूमि के अधिकांश भाग में खरपतवार उगे हुए थे। कुछ श्रमिक मिलकर उन्हें साफ़ कर रहे थे। मध्याह्न के समय बाँका राय ने श्रमिकों से कहा, "आपको भूख लगी होगी, घर जाकर भोजन कर लीजिए और अल्प विश्राम के उपरांत, अपराह्न में यह कार्य समाप्त कर लेना।" 

 

श्रमिकों के जाने के पश्चात, बाँका राय ने स्वयं पूरे क्षेत्र की खरपतवार को एक घंटे से भी कम समय में निर्मूलित कर दिया। वास्तव में, यह कार्य पचास श्रमिक एक साथ मिलकर भी नहीं कर सकते थे। 

 

जब श्रमिकों ने बाँका राय के इस अद्भुत कार्य को देखा, तो वे बाँका राय के पिता के पास गए और कहने लगे, "पंडित जी, हमारी श्रांतता देख आपके छोटे पुत्र बाँका राय ने हमें घर जाकर भोजन और विश्राम करने के लिए कहा, और फिर उन्होंने स्वयं ही एक घंटे के भीतर सभी खरपतवार साफ़ कर दिए; यह अत्यंत ही अद्भुत है। खरपतवार का ढेर अभी भी वहीं पर हैं।" यह सुनकर, सभी ग्रामीण, पिता हड़ाई पण्डित और माता पद्मावती सहित इस अद्भुत दृश्य को देखने हेतु गए। सभी ने खरपतवार का ढेर देखा किंतु बाँका राय उन्हें कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुए क्योंकि वे अप्रकट हो गए थे।

 

नित्यानंद प्रभु ने बंकिम देव का विग्रह स्थापित किया 

९८. जब माता पद्मावती और सभी ग्रामीण क्रंदन करने लगे, तब अकस्मात्  आकाशवाणी हुई, "आप अब मुझे नहीं देख पाएँगे, परन्तु आगामी एकादशी के दिन, आप मुझे एक दारु के रूप में यमुना नदी पर तैरते हुए पाएँगे। आप मेरी उसी रूप में सेवा-अर्चना कीजिए।" एकादशी के दिन कदंब-खंडी नामक स्थान पर ग्रामीणों को यमुना नदी पर एक दारू तैरता हुआ मिला। नित्यानंद प्रभु ने स्वयं उस दारु से बंकबिहारी, कृष्ण का एक विग्रह उत्कीर्ण किया और विग्रह को बंकिम देव के रूप में स्थापित किया। आज वहाँ बंकिम राय जी का एक अत्यंत सुन्दर मंदिर है और प्रत्येक नित्यानंद त्रयोदशी पर, मंदिर में धूम-धाम से एक विशाल उत्सव का आयोजन किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नित्यानंद प्रभु उन्ही  विग्रह में प्रविष्ट होकर अप्रकट हुए थे । 

 

श्रील प्रभुपाद मंत्र विक्रेता नहीं अपितु आश्रयदाता हैं 

९९.  श्रील गौर गोविन्द स्वामी महाराज अपने परम पूज्य गुरुदेव श्रील ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के बारे में कहते हैं: वे मंत्र विक्रेता नहीं थे। वे केवल मंत्र-दत्त-गुरु नहीं थे।

 

१००. अपितु प्रभुपाद कृष्ण-दत्त-गुरु हैं जो आपको वास्तव में श्रीकृष्ण प्रदान करते हैं। 

 

१०१. वे आगे कहते हैं, प्रभुपाद आश्रय-दत्त-गुरु हैं अर्थात वे आपको शरण देते हैं।

 

सम्प्रदाय का प्रवाह

१०२. श्रील गौर गोविन्द स्वामी ने सम्प्रदाय की प्रमाणिकता के लिए तीन प्रसिद्ध श्लोक उद्धृत किये हैं -

 

सम्प्रदाय विहीना ये मन्त्रास्ते विफला मताः।

अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः।

श्री ब्रह्म-रुद्र सनक वैष्णवाः क्षिति पावनाः।

चत्वारस्ते कलौभाव्या हयुत्कले पुरुषोत्तमात्॥

“जब तक कोई व्यक्ति किसी प्रामाणिक गुरु द्वारा वैध गुरु-परम्परा में दीक्षित नहीं है, उसके द्वारा प्राप्त कोई भी मंत्र निष्फल है। इसलिए कलियुग में लक्ष्मी देवी, ब्रह्मा जी, शिव जी और सनत-कुमार की परम्परा में चार वैष्णव सम्प्रदाय उड़ीसा के जगन्नाथपुरी नामक पवित्र स्थान में प्रकट होंगे और सम्पूर्ण पृथ्वी को पवित्र करेंगे।” (पद्म पुराण; श्रील बलदेव विद्याभूषण द्वारा प्रेमेय-रत्नावली, श्लोक 5 में उद्धृत)

 

रामानुजं श्रीः स्वीकृत्य मध्वाचार्यं चतुर्मुखः।

श्रीविष्णुस्वामिनं रुद्रोनिम्बादित्यं चतुःसनः॥

“लक्ष्मी देवी ने श्री रामानुजाचार्य को अपने सम्प्रदाय का प्रतिनिधि चुना। इसी प्रकार, ब्रह्माजी ने मध्वाचार्य को, भगवान शिव ने विष्णुस्वामी को, और चार कुमारों ने श्री निम्बार्काचार्य को स्व स्व सम्प्रदाय का प्रतिनिधि चुना।” (पद्म पुराण; श्रील बलदेव विद्याभूषण द्वारा प्रेमेय-रत्नावली, श्लोक ६ में उद्धृत)

 

१०३. श्रील गौर गोविन्द स्वामी इन श्लोकों का निरन्तर उद्धरण देते थे, और जब इस पंक्ति पर आते - ह्युत्कले पुरुषोत्तमात्। वे कहते कि चारों सम्प्रदाय का उद्गम पुरुषोत्तम धाम, श्री जगन्नाथ पुरी में हुआ है। वे आगे कहते थे कि जब मायावादियों के प्रमुख, सार्वभौम भट्टाचार्य, को श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री जगन्नाथ पुरी में परास्त किया, तो यह घटना चारों सम्प्रदायों के चारों दर्शनों के एक साथ आने का प्रतीक थी।

 

आप साधू के दर्शन नहीं कर सकते हैं

१०४. “लोग सोचते हैं कि वे साधु को पहचान सकते हैं, और साधु का दर्शन कर सकते हैं, परन्तु वास्तव में जब तक साधु स्वयं को प्रकट न करे, आप उनके दर्शन नहीं कर सकते हैं। वे दृष्टा हैं, और हम दृश्य हैं। भगवान के विग्रह सदृश, ‘हम भगवान का दर्शन नहीं करते अपितु हम स्वयं को उनके समक्ष प्रस्तुत करके उनकी कृपापूर्ण दृष्टि की प्रार्थना करते हैं। इसी प्रकार हमें, साधु की कृपादृष्टि की प्रार्थना करनी चाहिए। परन्तु हम " दृष्ट ही सत्य है (seeing is believing)" के सिद्धांत को अधिक महत्त्व देते है। जब हम ट्रेन में बैठते हैं, तो हमें वृक्ष धावित होते प्रतीत होते हैं, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं हैं। अतः अपने बल पर गुरु को पहचानने का अहंकार न करें। उनकी कृपा दृष्टि के लिए क्रंदन कीजिये। जिन्होंने क्रंदन नहीं किया है, उन्हें कृपा नहीं मिली है; परन्तु जिन्होंने क्रंदन किया है, उन्हें कृपा प्राप्त हुई है। इसीलिए मैंने भुवनेश्वर में एक ‘क्रंदन विद्यालय’ खोला है।”

 

सम्प्रदाय एवं सिद्धान्त के रक्षक

१०५.              

क) वे प्रायः इस बात पर बल देते थे कि सम्प्रदाय की रक्षा अति आवश्यक है। अतः आचार्य का एक प्रमुख कर्तव्य है सम्प्रदाय-रक्षण।

 

ख) वे यह भी बार-बार कहते थे कि आचार्य का एक अन्य कर्तव्य है सिद्धान्त की रक्षा करना अर्थात सिद्धान्त-रक्षण।

 

चैतन्य महाप्रभु प्रत्येक कल्प में केवल एक बार अवतरित होते हैं

१०६. “…चैतन्य महाप्रभु के अंशावतार अन्य कलियुगों में अवतरित होते हैं और युग-धर्म का शुभारम्भ करते हैं। परन्तु वे बृज-प्रेम नहीं दे सकते हैं। इसी प्रकार, कृष्ण के अंश भी अन्य द्वापर-युगों में आते है। स्वयं भगवान् कृष्ण प्रत्येक कल्प में केवल एक बार द्वापर-युग में प्रकट होते हैं। चैतन्य महाप्रभु भी प्रत्येक कल्प में केवल एक बार अवतरित होते हैं और अन्य कलियुगों में, उनके अंश आते हैं। वे केवल हरिनाम-संकीर्तन का आरम्भ करते हैं, परन्तु अंशवतार बृज-प्रेम नहीं दे सकते। यह प्रेम तो केवल स्वयं कृष्ण ही दे सकते हैं, जब वे चैतन्य महाप्रभु रूप में अवतरित होते हैं…” (भुवनेश्वर व्याख्यान, ३१ मार्च १९८९)

 

महाप्रभु निरंतर अश्रुपूर्ण नेत्रों से कृष्ण-नाम संकीर्तन करते थे 

१०७. गौरांग स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जो निरंतर अपने ही नाम का जप करते हैं। नरोत्तम दास ठाकुर गाते हैं, ‘गौरांग’ बलिते हबे पुलक शरीर - गौरांग नाम का उच्चारण करते ही सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो उठेगा, क्योंकि गौरांग महाप्रभु सदा हरि के लिए क्रंदन करते हैं। हरि हरि’ बलिते नयने बबे नीर - वे स्वयं हरि हैं, फिर भी हरि-नाम का उच्चारण करते ही उनके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगती है। श्रीकृष्ण सैद्धान्तिक उपदेशक हैं, परन्तु गौरांग महाप्रभु व्यावहारिक शिक्षक हैं।  हमें कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण, उनके प्रति भक्ति और उनके लिए क्रंदन विधि सिखाने के लिए श्रीकृष्ण स्वयं गौरांग रूप में अवतरित हुए। आपको कृष्ण के लिए क्रंदन करना पड़ेगा, अन्यथा आप उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यह मूल्य आपको चुकाना ही होगा। स्व-नाम-कीर्त्य - महाप्रभु सदा अपने ही नाम का जप करते हुए अश्रु बहाते थे। श्रीचैतन्य-भागवत में श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने भक्ति का इस प्रकार वर्णन किया है -

 

भक्ति-योग, भक्ति-योग, भक्ति-योग-धन

भक्ति’ एइ-कृष्ण-नाम-स्मरण-क्रंदन

“प्रेम-भक्ति एक अमूल्य निधि है। भक्ति का अर्थ है - कृष्ण-नाम का जप और स्मरण करते हुए क्रंदन करना।” (मध्य-खंड १५.२४)

 

जो कृष्ण-नाम का जप करता है और कृष्ण के विग्रह के सम्मुख रोता है, वह उन्हें ‘क्रय’ कर लेता (खरीद लेता) है। आदि-पुराण में कहा गया है -“हे अर्जुन! जो मेरे नाम का कीर्तन करता है, मेरे अथवा मेरे विग्रह के सम्मुख नृत्य करता है और रोता है, मैं सचमुच उनके द्वारा क्रय कर लिया जाता हूँ। मैं, जनार्दन, जिसे कोई भी नहीं खरीद सकता, भक्तों के हाथों में विक्रित हो जाता हूँ।” (आदि-पुराण २.३१)

 

इस प्रकार महाप्रभु सदा कृष्ण-नाम का जप करते और अश्रु बहाते थे। वे हमें व्यवहारिक शिक्षा देते हैं।

 

कर्षण तत्पश्चात आकर्षण

१०८. कृष्ण-बलराम मंदिर का महत्व क्या है? बलराम हल धारण करते हैं, जो कर्षण का प्रतीक है और कृष्ण के हाथ में बांसुरी है, जो आकर्षण का प्रतीक है। कृष्ण के प्रति वास्तविक आकर्षण उत्पन्न करने के लिए, सर्वप्रथम हमें अपने हृदय क्षेत्र को तैयार करना होगा। बलराम अखंड-गुरु-तत्त्व या समष्टि-गुरु हैं। गुरु के हल सदृश निर्देशों द्वारा हमारे कठोर और बंजर हृदय की जुताई आवश्यक है, ताकि इसमें भक्ति-लता बीज रोपित हो सके। यह अवस्था वैधी-भक्ति कहलाती है। जब हृदय का उचित रूप से कर्षण हो जाता है, तब साधक स्वाभाविक या रागानुगा-भक्ति के स्तर पर पहुँचता है। इस प्रकार हल और बांसुरी क्रमशः कर्षण और तत्पश्चात आकर्षण का प्रतीक है। यही कृष्ण-बलराम मंदिर का वास्तविक अर्थ है।

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