श्रीदामोदराष्टकम आस्वादन
कार्तिक मास में परदत्त दीप उद्बोधित करने का महात्म्य
(श्रील सनातन गोस्वामी कृत हरि भक्ति विलास, सोलहवाँ विलास से उद्धृत)
श्लोक 126
बोधनात् परदीपस्य वैष्णवानांच सेवनात्।
कार्त्तिके फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः॥
कार्तिक मास में परदत्त दीप उद्दीपित करने से एवं वैष्णव वृंद की सुश्रुषा करने से राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञानुष्ठान जनित फल लाभ होता है।
श्लोक 127
दीयमानन्तु ये दीपं बोधयन्ति हरेर्गृहे।
परेण नृपशार्दूल ! निस्तीर्णा यमयातना॥
हे नृपशार्दूल! कार्तिक मास में श्रीहरि-मंदिर में परदत्त दीप-प्रज्वलित करने से पुनर्वार यमयातना भोगनी नहीं पड़ती है।
श्लोक 128
न तद्भवति विप्रेन्द्र! इष्टैरपि महामखैः।
कार्त्तिके यत् फलं प्रोक्तं परदीपप्रबोधनात्॥
हे विप्रवर्य्य! कार्तिक मास में अन्य कर्त्तृक प्रदत्त दीप को उद्बोधित करने से जो फल प्राप्त होता है, इष्टादि महायाग साधन से भी उस प्रकार के फल प्राप्ति की आशा नहीं है।
श्लोक 129
एकादश्यां परैर्द्दत्तं दीपं प्रज्वल्य मूषिका।
मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य परां गतिमवाप सा॥
एक मूषिका ने, एकादशी के दिन, अन्य के दिए हुए दीप को जलाया था, तज्जन्य उसको दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ और अंत में परम गति की प्राप्त हुई।
श्री दामोदराष्टकम्
(पद्म पुराण में वर्णित, श्री नारद ऋषि एवं श्री शौनक ऋषि के साथ वार्ता के अंतरगत श्री सत्यव्रत मुनि द्वारा कथित)
नमामीश्वरं सच्चिदानंदरूपं
लसत्कुण्डलं गोकुले भ्राजमानं
यशोदाभियोलूखलाद्धावमानं
परामृष्टमत्यं ततो द्रुत्य गोप्या ॥ 2॥
मैं सच्चिदानंद स्वरुप, सर्वेश्वर श्री कृष्ण की वंदना करता हूँ जिनके कपोलों पर दोदुल्यमान मकराकृत कुंडल क्रीड़ा कर रहे है, जो गोकुल नामक अप्राकृत चिन्मय धाम में परम शोभायमान है, जो दधिभाण्ड (दूध और दही से भरी मटकी) फोड़ने के कारण माँ यशोदा के भय से भीत होकर ऊखल से कूदकर अत्यंत वेगसे दौड़ रहे है और जिन्हें माँ यशोदा ने उनसे भी अधिक वेगपूर्वक दौड़कर पकड़ लिया है।
रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तम्
कराम्भोज-युग्मेन सातङ्क-नेत्रम्
मुहुः श्वास-कम्प-त्रिरेखाङ्क-कण्ठ
स्थित-ग्रैव दामोदरं भक्ति-बद्धम् ॥ 2॥
मैं उन दामोदर भगवान् की वंदना करता हूँ जो माता के हाथ में छड़ी देखकर मार खानेके भय से डरकर रोते-रोते बारम्बार अपने दोनों नेत्रों को स्वहस्तकमल से मल रहे हैं, जिनके दोनों नेत्र भय से अत्यंत विह्वल है, रोदन के आवेग से बारम्बार श्वास लेनेके कारण त्रिरेखायुक्त कंठ में पड़ी हुई मोतियों की माला आदि कंठभूषण कम्पित हो रहे हैं, और जिनका उदर (माँ यशोदा की वात्सल्य-भक्ति के द्वारा) रस्सी से बँधा हुआ है।
इतीदृक् स्वलीलाभिरानंद कुण्डे
स्व-घोषं निमज्जन्तम् आख्यापयन्तम्
तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्व
पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे ॥ 3॥
जो इस प्रकार दामबन्धनादि-रूप बाल्य-लीलाओं के द्वारा गोकुलवासियों को आनंद-सरोवर में नित्यकाल सरावोर करते रहते हैं, और जो ऐश्वर्यपुर्ण ज्ञानी भक्तों के निकट "मैं अपने ऐश्वर्यहीन प्रेमी भक्तों द्वारा जीत लिया गया हूँ" - ऐसा भाव प्रकाश करते हैं, उन दामोदर श्रीकृष्ण की मैं प्रेमपूर्वक बारम्बार वंदना करता हूँ ।
वरं देव! मोक्षं न मोक्षावधिं वा
न चान्यं वृणेऽहं वरेशादपीह
इदं ते वपुर्नाथ! गोपाल बालं
सदा मे मनस्याविरास्तां किमन्यैः ॥ 4॥
हे देव, आप सब प्रकार के वर देने में पूर्ण समर्थ हैं। फिर भी मैं मोक्ष या मोक्ष की चरम सीमारूप श्री वैकुंठ आदि लोक भी नहीं चाहता और न मैं श्रवण और कीर्तन आदि नवधा भक्ति द्वारा प्राप्त किया जाने वाला कोई दूसरा वरदान ही आपसे माँगता हूँ। हे नाथ! मै तो आपसे इतनी ही कृपा की भीख माँगता हूँ कि आपका यह बालगोपालरूप मेरे हृदय में नित्यकाल विराजमान रहे। मुझे और दूसरे वरदान से कोई प्रयोजन नहीं है।
इदं ते मुखाम्भोजम् अत्यन्त-नीलैः
वृतं कुन्तलैः स्निग्ध-रक्तैश्च गोप्या
मुहुश्चुम्बितं बिम्बरक्ताधरं मे
मनस्याविरास्तामलं लक्षलाभैः ॥ 5॥
हे देव, अत्यंत श्यामलवर्ण और लालिमा युक्त चिकने और घुंघराले काले बालो से घिरा हुआ तथा माँ यशोदा के द्वारा बारम्बार चुम्बित आपका मुखकमल और पके हुए बिम्बफल की भाँति अरुण अधर-पल्लव मेरे हृदय में सर्वदा विराजमान रहे। मुझे लाखों प्रकार के अन्य लाभों की कोई आवश्यकता नहीं है।
नमो देव! दामोदरानन्त विष्णो!
प्रसीद प्रभो! दुःख-जालाब्धि-मग्नम्
कृपा-दृष्टि-वृष्ट्याति-दीनं बतानु
गृहाणेष! मामज्ञमेध्यक्षिदृश्यः ॥ 6॥
हे देव! हे भक्तवत्सल दामोदर! हे अचिन्त्य शक्तियुक्त अनंत! हे सर्वव्यापक विष्णो! हे (मेरे ईश्वर) प्रभो! हे परमस्वत्रन्त ईश! मुझपर प्रसन्न होवे! मै दुःखसमूहरूप सागर में डूब रहा हूँ। अतएव आप अपनी कृपादृष्टिरूप अमृत की वर्षाकर मुझ अत्यंत दीन-हीन शरणागत पर अनुग्रह कीजिये एवं मेरे नेत्रों के सामने साक्षात् रूप से दर्शन दीजिये।
कुबेरात्मजौ बद्ध-मूर्त्यैव यद्वत्
त्वया मोचितौ भक्ति-भाजौ कृतौ च
तथा प्रेम-भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ
न मोक्षे ग्रहो मेऽस्ति दामोदरेह ॥ 7॥
हे दामोदर! यद्द्यपि आप माता यशोदा द्वारा ऊखल में बंधे थे, फिर भी आपने कृपापूर्वक (नलकुबेर और मणिग्रिव नामक) कुबेर के दोनों पुत्रों का (नारदजी के श्राप से प्राप्त) वृक्षयोनि से उद्धार कर उन्हें परम प्रयोजनरूप प्रेम-भक्ति प्रदान की थी। उसी प्रकार मुझे भी आप अपनी प्रेम-भक्ति प्रदान कीजिये। यही मेरा एकमात्र आग्रह है। किसी भी अन्य प्रकार के मोक्ष के लिए मेरा तनिक भी आग्रह नहीं है।
नमस्तेऽस्तु दाम्ने स्फुरद्-दीप्ति-धाम्ने
त्वदीयोदरायाथ विश्वस्य धाम्ने
नमो राधिकायै त्वदीय-प्रियायै
नमोऽनन्त-लीलाय देवाय तुभ्यम् ॥ 8॥
हे दामोदर! आपके उदर को बाँधनेवाली उज्जवल रज्जू (रस्सी) को प्रणाम है। निखिल ब्रह्मतेज के आश्रय और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आधारस्वरूप आपके उदर को प्रणाम है। आपकी प्रियतमा श्रीराधारानी के चरणों में मेरा बारम्बार प्रणाम है और हे अनंत अद्भुत लीलाओं को भी सैकड़ों प्रणाम अर्पित करता हूँ।
श्रीदामोदराष्टकम आस्वादन
नेदं यशो रघुपते: सुरयाच्ञयात्त-
लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्न:।
रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्रपूगै:
किं तस्य शत्रुहनने कपय: सहाया:॥
“विभिन्न लीलाओं में सदैव संलग्न दिव्य देहधारी भगवान रामचंद्र का वास्तविक यश इसमें नहीं है कि उन्होंने देवताओं के आग्रह पर बाणों की वर्षा करके रावण का वध किया और समुद्र पर सेतु का निर्माण किया। ना तो कोई भगवान रामचंद्र के तुल्य है ना उनसे बढ़कर; अतएव उन्हें रावण पर विजय प्राप्त करने में वानरों से कोई सहायता लेने की आवश्यकता नहीं थी” (श्रीमद्भागवतम् 9.11.20)
वेदों में कहा गया है -
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.8)
"भगवान को कुछ भी नहीं करना होता और कोई भी न तो उनके तुल्य है न उनसे बढ़कर है क्योंकि उनकी विविध शक्तियों के द्वारा ही सब सहज भाव से और व्यवस्थित रूप से घटित होता है।" भगवान को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है (न तस्य कार्यं करणं च विद्यते) - वे जो भी करते हैं वह उनकी लीला है। भगवान को किसी के अधीन रहकर कुछ भी कार्य नहीं करना पड़ता। फिर भी वे अपने भक्तों की रक्षा करने अथवा अपने शत्रुओं का वध करने के लिए प्रकट होते हैं। निस्सन्देह भगवान का कोई शत्रु नहीं हो सकता क्योंकि उनसे बढ़कर कौन अधिक शक्तिशाली हो सकता है? अतएव किसी के उनके शत्रु होने का प्रश्न ही नहीं उठता, किंतु जब उन्हें लीलाओं का आनंद लेना होता है तो वे इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और मनुष्य की भाँति कर्म करते हैं और इस तरह अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए अद्भुत महिमामय कार्यकलाप करते हैं। उनके भक्त उन्हें विविध कार्यों में सदा विजयी होते देखना चाहते हैं, अतएव स्वयं को तथा भक्तों को प्रसन्न करने के लिए भगवान कभी-कभी मनुष्य की भाँति कर्म करने के लिए राजी होते हैं। अतएव वे भक्तों को संतुष्ट करने के लिए अद्भुत असाधारण लीलाएँ करते हैं (श्रीमद्भागवतम् 9.11.20, तात्पर्य)
भगवान् राम ने वानरों की सहायता क्यों लिया?
भगवान श्रीरामचंद्र को किसी सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान हैं। न तो कोई उनके सम है और ना ही उनसे श्रेष्ठ। केवल अपने भक्तों के आनंद वर्धन हेतु उन्होंने वानरों की सहायता ली। वास्तव में, परम भगवान स्वयं कुछ नहीं करते हैं। भगवान् की इच्छा मात्र से उनकी शक्तियाँ समस्त कार्य सम्पादित करती हैं "न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न "। भगवान् के समस्त कार्य उनका लीला-विलास है। भगवान बाध्य होकर कार्य नहीं करते हैं। फिर भी वे अपने भक्तों की रक्षा एवं दुष्टों के संहार के लिए कार्य करते हुए प्रतीत होते हैं। वास्तव में भगवान का कोई शत्रु नहीं है। भगवद्गीता (9.29) में भगवान् कहते हैं, समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: अर्थात् मैं सभी प्राणियों के प्रति सम हूँ; न तो कोई मेरा शत्रु है और न कोई विशेष प्रिय।
परन्तु, जब भगवान लीला आस्वादन करना चाहते हैं, तब वे इस भौतिक जगत में मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं और अपने भक्तों के आनन्द वर्धन हेतु अद्भुत कार्य करते हैं। इसी प्रकार लीला रसास्वादन हेतु, वे कभी-कभी युद्ध करने की इच्छा प्रकट करते हैं, “मैं युद्ध करूंगा। मैं रौद्र-रस का आनंद लेना चाहता हूँ।” परंतु उनके साथ युद्ध कौन करेगा? न तो कोई उनके समान है, न उनसे अधिक शक्तिशाली। यदि विरोधी समान शक्ति वाला न हो, तो युद्ध में आनंद नहीं आता है। अतः जब भगवान रौद्र-रस का आस्वादन करना चाहते हैं, तब भगवान् की अद्भुत इच्छा से उनके कुछ भक्त राक्षसों के रूप में इस धराधाम में आते हैं और वे शत्रु रूप में उनसे युद्ध करते हैं।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का अगला जन्म रावण और कुम्भकर्ण के रूप में हुआ। वे दोनों भाई वैकुण्ठ में जय और विजय थे। वे इस जगत में तीन जन्मों तक दैत्य रूप में प्रकट हुए और उन्होंने भगवान से युद्ध किया। इस प्रकार भगवान् ने रौद्र-रस का आस्वादन किया। साथ ही, भक्तों ने भी आनंद प्राप्त किया। अतः यह आनन्द पारस्परिक था। भक्त सदा भगवान को विजयी देखना कहते हैं, इसलिए अपने तथा भक्तों के सुख के लिए भगवान् मनुष्य रूप में अद्भुत, अलौकिक लीलाएँ करते हैं। अन्यथा, भगवान को इस भौतिक जगत में आने की कोई आवश्यकता नहीं है। यही अकाट्य सत्य है।
मैं प्रेम-रज्जु से बंध जाता हूँ
भगवान् असमोर्ध्व-तत्त्व अर्थात् न तो कोई उनके समान है, न उनसे श्रेष्ठ। तो फिर कौन भगवान को अपने अधीन कर सकता है? हरि-भक्ति-सुधोदया (14.29) में स्वयं भगवान कहते हैं -
सदा मुक्तोऽपि बद्धोऽस्मि भक्तेन स्नेह-रज्जुभिः।
अजितोऽपि जितोऽहं तैरवशोऽपि वशीकृतः॥
“यद्यपि मैं नित्य मुक्त और स्वतंत्र हूँ, तथापि अपने भक्तों के प्रेम रज्जु से मैं बंध जाता हूँ।”
भगवान् नित्य मुक्त, अबद्ध और पूर्ण स्वतंत्र हैं। उनके बंधन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु, वे स्वयं कहते हैं, सदा मुक्तोऽपि बद्धोऽस्मि भक्तेन स्नेह-रज्जुभिः, “कभी-कभी मैं अपने भक्तों के द्वारा प्रेम-रज्जु से बंध जाता हूँ।” यह भगवान् का भक्त-वात्सल्य है। अजितोऽपि जितोऽहं तैरवशोऽपि वशी कृतः, भगवान् अजित हैं, परंतु भक्त-वात्सल्य वश वे कभी-कभी भक्तों द्वारा जीत लिए जाते हैं। इसलिए, यही अवसर है, अपने प्रेम द्वारा भगवान् को जीत लो! यह प्रेम-रस की बात है। भगवान श्रीकृष्ण भक्त-भाव अंगीकार करके श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए और उन्होंने कृष्ण-प्रेम वितरित किया। वे प्रेम-पुरुषोत्तम हैं, जो निःशुल्क और भेदभाव रहित कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं। वे स्वयं भी इसी प्रेम से बंध जाते हैं। प्रेमी-भक्त सर्वत्र और सर्वदा श्रीकृष्ण के दर्शन करते हैं; वे हरि को अपने हृदय में बाँध लेते हैं। उन्हें एक क्षण के लिए भी भगवान् का विस्मरण नहीं होता और न ही कृष्ण उनकी दृष्टि से कभी ओझल होते हैं। भगवद्गीता (6.30) में श्रीकृष्ण कहते हैं -
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
“जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।”
यही पूर्ण कृष्ण चेतना है। एक प्रेमी-भक्त सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन करता है। वह अपने अन्तः और बाह्य, सर्वत्र कृष्ण का अनुभव करता है। श्रील कविराज गोस्वामी ने चैतन्य-चरितामृत (मध्य-लीला 25.127) में लिखते हैं –
भक्त आमा प्रेमे बान्धियाछे हृदय - भितरे।
याहाँ नेत्र पड़े ताहाँ देखये आमारे॥
“अति उन्नत भक्त मुझ भगवान् को प्रेम द्वारा अपने हृदय में बाँध सकता है। वह जहाँ भी देखता है, मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं देखता।”
प्रेम का स्वाभाविक धर्म
यद्यपि श्रीकृष्ण परम स्वतंत्र, स्वराट पुरुष हैं, फिर भी वे अपने भक्तों के प्रेम में बँध जाते हैं, और भक्तों के अधीन हो जाते हैं। श्रीमद्भागवतम् में भगवान श्रीकृष्ण दुर्वासा मुनि से कहते हैं -
अहं भक्त-पराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।
साधुभिर्ग्रस्त-हृदयो भक्तैर्भक्त-जनप्रियः॥
“मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ। निस्संदेह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ। चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ। मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यंत प्रिय हैं।” (श्रीमद्भागवतम् 9.4.63)
साधुभिर् ग्रस्त-हृदयो भक्तैः, साधु-भक्त मेरे हृदय को पूर्ण रूप से अधिग्रहित कर लेते हैं। श्रीकृष्ण रसिक-शेखर हैं, अपने प्रेमी-भक्तों के शुद्ध प्रेम-रस का आस्वादन करने के लिए, वे प्रेम-रज्जु से बंध जाते हैं। यही ही उनका स्वभाव है। वे इस प्रेम-रस का आस्वादन करने के लिए सदैव लालायित रहते हैं। भक्तवात्सल्य वश, वे एक ही समय पर, अपने सभी प्रेमी-भक्तों के हृदय में एक साथ बंधे जाते हैं। क्योंकि यह प्रेम भगवान की ह्लादिनी शक्ति द्वारा संचालित है, स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान भी इस प्रेम से बंध जाते हैं । यही प्रेम का स्वाभाविक धर्म है। यह प्रेम-धर्म अत्यंत अद्भुत, उत्कृष्ट और अचिन्त्य है।
तीनों एक साथ नृत्य करते हैं
कृष्णेरे नाचाय प्रेमा, भक्तेरे नाचाय।
आपने नाचये , - तिने नाचे एक - ठाञि॥
“कृष्ण का प्रेम कृष्ण तथा उनके भक्तों को नचाता है, और स्वयं भी नाचता है। इस तरह तीनों ही एक साथ एक स्थान में नाचते हैं।” (चैतन्य-चरितामृत, अंत्य-लीला 18.18)
वह प्रेम स्वयं नृत्य करता है, और भक्त एवं श्री कृष्ण को भी नचाता है। इस प्रकार तीनों एक साथ नृत्य करते हैं। यह अत्यंत अद्भुत है!
ऐसे प्रेमी-भक्त का हृदय ही वृंदावन होता है, वहाँ श्रीकृष्ण नित्य आनंदपूर्वक निवास करते हैं। भगवान सदैव अपने प्रेमी-भक्तों के आनंद वर्धन हेतु उत्सुक रहते हैं। श्रीकृष्ण भक्तों का उच्छिष्ट भी ग्रहण करते हैं। वे गोप-बालकों के हाथों से भोजन का कौर छीन लेते हैं। इस प्रकार, वे प्रेमी-भक्तों के वश में रहते हैं क्योंकि वे भक्तवत्सल हैं। भक्त और भगवान दोनों प्रेमपूर्वक नृत्य करते हैं, और कृष्ण उस प्रेम की डोर से बंध जाते हैं। यद्यपि वे सर्वशक्तिमान हैं, लेकिन वे उस प्रेम बंधन को तोड़ नहीं सकते हैं। वे स्वयं कहते हैं न पारये, “मैं अपने शुद्ध भक्तों के प्रेम का प्रतिदान नहीं दे सकता; यह मेरे सामर्थ्य से परे है।” यही भगवान् का भक्तवात्सल्य है।
कोलावेचा श्रीधर की प्रार्थनाएँ
चैतन्य-भागवत में अकिंचन-भक्त कोलावेचा श्रीधर ने इस प्रकार प्रार्थना की है —
भक्ति-योगे भीष्म तोमा जिनिल समरे
भक्ति-योगे यशोदाय बान्धिल तोमारे ॥
“भक्ति-योग के द्वारा ही भीष्म ने आपको (कृष्ण) रणभूमि में जीत लिया, और भक्ति-योग के द्वारा ही यशोदा ने आपको बाँध लिया।”
भक्ति-योगे तोमारे वेचिल सत्यभामा
भक्ति-वशे तुमि कान्धे कैले गोप-रामा ॥
“भक्ति-योग के द्वारा ही सत्यभामा ने आपको बेच दिया, और भक्ति के वश होकर आपने एक गोपी को अपने कंधे पर बिठा लिया।”
अनन्त ब्रह्माण्ड-कोटि वहे यारे मने
से तुमि श्रीदाम-गोप वहिला आपने ॥
“अनंत ब्रह्मांडों के निवासी जिनको अपने के हृदयों में वहन करते हैं, वे स्वयं, गोपबालक श्रीदाम को अपनी पीठ पर वहन करके चलते थे।” (चैतन्य-भागवत, मध्य-खण्ड 9.212–214)
शुद्ध भक्ति-योग द्वारा भीष्म ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में कृष्ण को जीत लिया। यद्यपि भगवान् अजित हैं, फिर भी प्रेमी-भक्त उन्हें जीत लेते हैं। कृष्ण प्रसन्नतापूर्वक स्वयं अपनी पराजय स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें भक्त के हाथों पराजय में भी सुख का अनुभव होता है। भक्ति-योगे यशोदाय बान्धिल तोमारे, इसीलिए माता यशोदा ने शुद्ध भक्ति के बल पर भगवान् को बाँध लिया। अन्यथा परम भगवान् श्रीकृष्ण को कौन बाँध सकता है? कोई नहीं। केवल वात्सल्य-रस का आस्वादन करने हेतु भगवान ऐसी अद्भुत लीलाएँ प्रकट करते हैं, जिनके द्वारा वे भक्तों को आनंद प्रदान करते हैं तथा स्वयं भी अनंद की अनुभूति करते हैं।
गोपियों ने मेरे मुख पर माखन लेप दिया!
दो-तीन वर्ष की बाल्यावस्था में, कृष्ण गोपियों के घर जाकर माखन चुराते थे। वे सर्वश्रेष्ठ चोर हैं। यद्द्यपि गोपियाँ गोपाल को माखन खिलाकर परम सुख का अनुभव करती थी, फिर भी वे यशोदा के पास जाकर, गोपाल के विरुद्ध शिकायत करती थी, “यशोदा, तुम्हारा गोपाल हमारे घर का सारा माखन चुरा लेता है।” यह कितनी अद्भुत लीला है! वे गोपाल को माखन खिलाकर आनंदित होतीं और फिर यशोदा के पास जाकर शिकायत भी करतीं।
यह सुनकर यशोदा क्रोधित हो उठीं और बोलीं, “गोपाल! क्या तुमने माखन खाया है?”
बालक कृष्ण तोतली भाषा में कहते, “ओ मैय्या, मैं नेही माखन खाया।”
तब माता और अधिक क्रोधित हो गईं “तुम्हारे मुख पर माखन लगा है। क्या तुम झूठ बोल रहे हो? माखन मुख में लगा है, फिर तुम झूठ क्यों बोल रहे हो?”
गोपाल बोले, “माँ, उन्होंने (गोपियों) ही मेरे मुख पर माखन लगा दिया है!”
क्या आपको लगता है कि गोपाल ने झूठ बोला? नहीं, वे कभी झूठ नहीं बोलते। वे सदा सत्य ही कहते हैं। बस उनका बोलने का ढंग बहुत चतुर है। “ओ मैय्या, मैं नेही माखन खाया।” इस वाक्य के दो अर्थ हैं, सकारात्मक (ओ मैय्या, मैं ने ही माखन खाया) और नकारात्मक (ओ मैय्या, मैं नहीं माखन खाया)। गोपाल अति चतुर हैं, वे जानते हैं, किस प्रकार बोलने से वाक्य द्विअर्थी हो जायेंगे। हम नहीं समझ सकते, हम गलती कर बैठते हैं। परन्तु गोपाल में कोई दोष नहीं है।
गोपाल चोरी क्यों करते हैं?
गोपाल विश्वम्भर हैं अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का पालन करते हैं, वे समस्त जीवों को अन्न प्रदान करते हैं। उनकी किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं है, सब कुछ उनकी ही संपत्ति हैं, वे ही एकमात्र स्वामी हैं, ईशावास्यमिदं सर्वम्। फिर वे दूसरों के घर जाकर चोरी क्यों करते हैं? वास्तव में, वे अपने प्रिय भक्तों के आनंद वर्धन हेतु ये चौर लीला करते हैं। भगवान और भक्त, दोनों को ही सुख मिलता है। जब गोपाल किसी गोपी के घर जाते हैं, तो वह प्रेमपूर्वक कहती है, “गोपाल, यह माखन खा लो।” इसलिए यदि गोपाल के मुँह पर माखन लगा रहता है, तो उसमें आश्चर्य की क्या बात है? श्वेत माखन से लेपित गोपाल का श्यामल मुख बड़ा ही मनोहर लगता है। गोपियाँ इस अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर अति प्रसन्न होती हैं। अतः गोपाल को जब भी अवसर मिलता है, वे चोरी करने चले जाते हैं। दो-तीन वर्ष के बालक तो स्वाभाविक ही चंचल होते हैं। यदि माँ यशोदा उन्हें डाँटती और दण्डित करती, तो कुछ दिनों तक वे गोपियों के घर नहीं जाते। तब गोपियाँ उनके दर्शन के लिए आतुर हो उठती, “अरे, गोपाल क्यों नहीं आ रहे?” वे यशोदा मैय्या के घर जाकर पूछती, “माँ, गोपाल क्यों नहीं आ रहे? वे कुशल तो हैं?”
वानरों को माखन खिलाना
एक दिन माँ यशोदा ने गोपाल से कहा, “तुम्हारी बुद्धि, खेल-कूद और कार्य-कलाप सब कुछ वानरों जैसा है। तुम सदा वानरों के साथ रहते भी हो। क्या तुम्हें इतने सारे वानरों से डर नहीं लगता ?”
गोपाल ने उत्तर दिया, “माँ, इन वानरों ने भगवान श्रीराम की सहायता किया था। प्रभु श्रीराम लंका विजय और रावण का वध करने जा रहे थे। उस समय इन वानरों ने अनेक अनेक कष्ट सहे थे। श्रीराम वन में विचरण कर रहे थें। उनके पास इन वानरों को देने के लिए अच्छा भोजन भी नहीं था। इस प्रकार इन वानरों ने अनेक कष्ट सहे थे। कभी-कभी इन्हें कुछ भी खाने को नहीं मिलता था, इसलिए इन्हें उपवास करना पड़ता था। कभी एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते हुए कोई फल खोजते थे। ओ माँ, अब देखो, ये कैसे अपने हाथ फैलाए माखन माँग रहे हैं, ‘माखन दो, माखन दो!’ माँ देखो अब वे कैसे आनंदपूर्वक खा रहे हैं। माँ, क्या आप देख रही हैं?” यह अति अद्भुत और मधुर लीला है! इस प्रकार भगवान अपने भक्तों को आनंद, सुख, और प्रेम के सागर में डुबो देते हैं।
माँ यशोदा भूल गईं कि कृष्ण भगवान हैं
माता यशोदा वात्सल्य-रस से अभिभूत होने के कारण भूल जाती हैं कि कृष्ण स्वयं भगवान हैं। वे सदा यही सोचती हैं कि मेरे बेटे का कल्याण कैसे हो? मेरा बेटा सुखी कैसे रहे? नंद महाराज ब्रज के राजा हैं, अतः उनके घर में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है। तो फिर उनका पुत्र चोरी क्यों करेगा? उसमें यह चोरी की प्रवृत्ति कैसे आ गई? योगमाया की व्यवस्था से माता यशोदा सब कुछ भूल जाती हैं। उनके मन में केवल एक ही विचार रहता है, “कृष्ण मेरा पुत्र है, मेरा लाल है!”
चौर-शिरोमणि
श्रीमद्भागवतम में वर्णन है-
त्रय्या चोपनिषद्भिश्च साङ्ख्ययोगैश्च सात्वतै: ।
उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम् ॥
“भगवान् की महिमा का अध्ययन तीनों वेदों, उपनिषदों, सांख्य योग के ग्रंथों तथा अन्य वैष्णव साहित्य के माध्यम से किया जाता है। फिर भी माता यशोदा परम पुरुष को अपना सामान्य बालक मानती रहीं।” (श्रीमद्भागवतम् 10.8.45)
तीनों वेद और सभी उपनिषद उनकी महिमा का गान करते हैं। सांख्य-योगी उन्हीं के विषय में विश्लेषणात्मक चर्चा करते हैं। भक्तजन भी परम पुरुष भगवान श्रीकृष्ण की प्रार्थना करते हैं। परंतु माता यशोदा कहती हैं, सामन्यतात्मजम्, “वह मेरा पुत्र है, मेरा लाल है!” यही शुद्ध वात्सल्य-रस है।
बच्चों में चोरी की प्रवृत्ति स्वाभाविक है, इसलिए बाल्यावस्था में श्रीकृष्ण माखन चोरी करते हैं। पौगण्ड-लीला (छः से दस वर्ष की आयु) में वे व्रज गोपियों के वस्त्र चुराते हैं। वे चौर-शिरोमणि हैं, चौराग्रगण्य। (सभा में उपस्थित एक भक्त से) वे तुम्हें भी चुरा सकते हैं । परन्तु, वे तुम्हें क्यों चुरायेंगे?"
भक्त: “मैं तो चुराने योग्य नहीं हूँ।”
श्रील गौर गोविन्द स्वामी: तुम कहते हो कि तुम चुराने योग्य नहीं हो, अच्छा? परन्तु, यदि तुम प्रेम-भक्ति प्राप्त कर लो, तो कृष्ण तुम्हें अवश्य चुरा लेंगे। तब तुम चुराने योग्य बन जाओगे। अतः शुद्ध प्रेम-भक्ति विकसित करो।”
इस प्रकार बाल्यकाल में वे गोपियों के घरों से माखन चुराते हैं। पौगण्ड अवस्था में व्रज-गोपियों के वस्त्र चुराते हैं। कैशोर अवस्था (ग्यारह से पंद्रह वर्ष) में वे गोपियों के हृदय चुरा लेते हैं। परम ईश्वर के रूप में, वे अपने भक्तों के पाप-ताप चुरा लेते हैं। अतः वे परम चौर हैं।
मैं अपने हाथों से माखन बनाऊँगी
जैसे-जैसे गोपाल बड़े होने लगे, उनका नटखटपन भी बढ़ने लगा। प्रत्येक दिन माँ यशोदा के पास शिकायतें आने लगीं, “आपका पुत्र गोपाल माखन चुराता है!” एक दिन माँ यशोदा को बहुत क्रोध आया। वह विचार करने लगीं, “मेरा गोपाल चोरी क्यों करता है? हमारे घर में माखन बहुतायत है, तो फिर वह दूसरों के घरों से क्यों चुराता है?” उन्होंने सोचा, “अरे, मेरे घर में दासियाँ माखन निकालती हैं, शायद गोपाल को दासियों के हाथ का माखन पसंद नहीं है, इसलिए वह दूसरों के घर जाकर चोरी करता है। आज से मैं स्वयं माखन बनाऊँगी।” यशोदा मैया ने स्वयं श्रेष्ठ गायों का दूध दुहा, दही जमाया और प्रातः उठकर गोपाल के लिए दही मथकर माखन निकालने लगीं। वे अपने मुख से गोपाल के गुण गा रही थीं। उनके हाथों में चूड़ियाँ “रुनझुन, रुनझुन, रुनझुन” की मधुर ध्वनि कर रही थीं। उस समय गोपाल निद्रा में थे। जब वे जगे, तो माँ को पास में न पाकर रोने लगे, “माँ, माँ, माँ, माँ, माँ!”
माँ यशोदा बोलीं, “गोपाल, मैं यहीं हूँ। तुम्हारे लिए माखन निकाल रही हूँ। यहाँ आ जाओ।” गोपाल आए और माँ की गोद में चढ़कर स्तनपान करने लगे। माँ यशोदा ने निकट ही चूल्हे में एक बड़े बर्तन में उबलने के लिए दूध रखा हुआ था। ठीक उसी समय, दूध उबलकर बर्तन से बाहर आने लगा। जैसे ही माँ यशोदा ने दूध को गिरते देखा, उन्होंने तुरंत गोपाल को नीचे उतार दिया, और चूल्हे की ओर भागी ताकि दूध बह न जाए। गोपाल स्तनपान कर रहे थे और अभी तक तृप्त नहीं हुए थे। इसलिए उन्हें बहुत क्रोध आया। उन्होंने एक पत्थर उठाया और दही के बर्तन पर फेंक दिया। बर्तन टूट गया और सारा दही ज़मीन पर फैल गया। परन्तु, अभी भी गोपाल का क्रोध शांत नहीं हुआ, वे रोते-रोते दूसरे घर में गए और ऊखल पर चढ़कर, ऊपर झूले पर रखे मटकों से माखन चुराने लगे।
वात्सल्य-रस की चरम सीमा
शरीर, मन और वाणी से माँ यशोदा अहर्निश कृष्ण की प्रेममय सेवा में रत रहती थीं। उनके मन में अन्य कोई विचार नहीं रहता था। दही मंथन के समय वे कृष्ण के गुणों का कीर्तन कर रही थी और मन में कृष्ण का चिंतन कर रही थीं। यही वात्सल्य-रस की सीमा है। यशोदा समस्त ब्रह्मांड की जननी हैं, निखिल-विश्व-मात्रा-स्वरूप। कृष्ण की माता यशोदा शुद्ध वात्सल्य-रस से परिपूर्ण हैं। उबलते हुए दूध को बचाने के लिए माँ यशोदा ने बालक कृष्ण को ज़मीन पर रख दिया। क्या यह क्रूरतापूर्ण कार्य था? नहीं, इसमें क्रूरता बिलकुल नहीं थी। क्योंकि कृष्ण सेव्य हैं, और यशोदा सेवक (सेविका) हैं, भक्त और भगवान्। ऐसे प्रेमी-भक्त सदैव, अहिर्निश विविध प्रकार से भगवान की प्रेममय सेवा में रत रहते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य कृष्णार्थे अखिल चेष्टा अर्थात् सब प्रकार से कृष्ण की सेवा करना और उन्हें प्रसन्न करना है। माँ यशोदा का हृदय पुत्र-स्नेह से परिपूर्ण था। वे सदा कृष्ण के सुख, क्षेम, प्रसन्नता के बारे में ही सोचती रहती थी। अतः क्रूरता का कोई प्रश्न ही नहीं है। उनके समस्त प्रयास कृष्ण की सेवा के निमित्त थे।
अपूर्व परमानन्द
इस लीला में अद्भुत लीलानन्द है, भगवान स्वयं अपनी मधुर लीलाओं का आस्वादन करते हैं। साथ ही, भक्त भी भगवान् की प्रेममय सेवा करके अपार प्रेमानन्द का अनुभव करते हैं। अतः इन लीलाओं में भगवान् का लीलानन्द और भक्तों का प्रेममानन्द है। दोनों प्रकार के आनन्द के संयोग से अपूर्व परमानन्द प्राप्त होता है; भगवान् और भक्त, दोनों ही आनंद के सागर में विलीन हो जाते हैं। यह आनन्द अवर्णनीय है। रसो वै सः, भगवान् समस्त रसों के स्रोत हैं। भगवान् स्वयं रसस्वरुप हैं। वे रसिक हैं और वे ही आस्वाद्य हैं। वे अपने प्रेमी-भक्तों को ऐसी लीला-रस का आस्वादन करने का अवसर प्रदान करते हैं।
गोपाल वानरों को माखन खिला रहे हैं
जब माता यशोदा दूध उतारकर वापस आयी तो देखा कि दही का बर्तन टूटा हुआ है और सारा मक्खन जमीन पर फैल चुका है। गोपाल गायब थे, पर फ़र्श में उनके चरणों के चिन्ह थे। माता यशोदा ने चिन्हों का पीछा किया और देखा, “ओ, गोपाल ऊखल पर खड़े हैं और छीकड में रखा माखन चुरा रहे हैं। घर बंदरों से भर गया है और वे सब माखन खा रहे हैं। गोपाल उन्हें माखन बाँट रहे हैं। इतना माखन फैला है कि पूरा फ़र्श श्वेत प्रतीत हो रहा है।”
यशोदा बहुत क्रोधित हुईं। हाथ में छड़ी लेकर चुपके से कमरे में गईं और गोपाल के ठीक पीछे खड़ी हो गईं। छड़ी देख कर बन्दर तुरंत छलाँग मार कर बाहर भाग गए। गोपाल ने पीछे मुड़कर देखा, “ओ, माँ हाथ में छड़ी लिए खड़ी हैं और बहुत क्रोधित लग रही हैं!” बन्दर तो भाग गए और गोपाल ऊखल पर अकेले रह गए। वे कूदकर उस कक्ष से बाहर जाने लगे, पर माँ यशोदा बहुत क्रोधित थी और आज कृष्ण को छोड़ने वाली नहीं थीं। माँ ने सोचा, “मुझे इसे बाँध कर रखना होगा। आज इसे छोड़ूंगी नहीं।”
माधुर्य-मय-लीला
भगवान सबके हृदय में विराजमान हैं, वे अंतर्यामी हैं। वे समझ गए कि आज माता ने उन्हें बाँधने का निश्चय कर लिया है। यह अत्यन्त माधुर्य-मय-लीला है, इसमें ऐश्वर्य का लेश भी नहीं है। लेकिन कभी-कभी इस माधुर्य-मय-लीला में भी अल्प ऐश्वर्य प्रकट हो जाता है। इस प्रेममयी लीला में भी गोपाल ने थोड़ा ऐश्वर्य का प्रदर्शन किया। उन्होंने निश्चय किया, “मैं आज माँ के हाथों पकड़ा नहीं जाऊँगा। मैं दौड़ूँगा और माँ मेरे पीछे- पीछे दौड़ेगी, परन्तु, वह मुझे पकड़ नहीं सकेगी।” यही ऐश्वर्य है। गोपाल टेढ़े-मेढ़े रास्तों में भाग रहे हैं। यशोदा उनके पीछे-पीछे दौड़ रही हैं, पर गोपाल को पकड़ नहीं पा रहीं हैं। उनका शरीर भारी है, अतः वह थक गईं और हाँफने लगीं। उनके केशों में गुँथे करवीर (कनेर) के पुष्प जमीन पर गिर गए, उनके बाल बिखर गए, और वह पूरी तरह थक गयीं।
लालिमा युक्त गोपाल के चरण कमल
माता यशोदा की दृष्टि गोपाल के लालिमा युक्त चरण कमलों पर गईं। ये चरण कमल ही भक्तों के ध्यान का परम विषय हैं। वह विचार करने लगीं, “अरे! ये चरण कमल अति कोमल हैं। यदि इनमें कोई काँटा या पत्थर चुभ जाए तो मेरे गोपाल को कितना कष्ट होगा!” इस प्रकार उनका हृदय करुणा और विषाद से भर गया। जब भक्त की दृष्टि भगवान् के इन लालिमा युक्त चरण कमलों पर स्थिर हो जाती है, तब भगवान् बँध जाते हैं। गोपाल ने सोचा, “अब मैं पकड़ में आ जाऊँगा। माँ बहुत थक चुकी हैं, अतः अब मैं माँ के द्वारा पकड़ लिया जाऊँगा।” इस प्रकार, माता यशोदा उन्हें पकड़ लेती हैं।
परन्तु, उस दिन माता अत्यंत क्रोधित थीं, क्योंकि गोपाल ने उन्हें बहुत परेशान किया था, “हर दिन चोरी की शिकायतें आती हैं, आज तो इसने मटका तोड़ दिया, फिर सारा माखन बंदरों को खिला दिया और मुझे इतना थका दिया! यह छोटा-सा नटखट बालक मुझे कितना परेशान करता है!” अपने दाएँ हाथ में उन्होंने बेंत (छड़ी) पकड़ रखी थी, और बाएँ हाथ से गोपाल को थाम लिया। तत्पश्चात माता यशोदा ने गोपाल को ऊखल से बाँध दिया।
अद्भुत रूप
श्री सत्यव्रत मुनि ने दामोदराष्टकम् (श्लोक 1) में इस लीला का वर्णन करते हुए दामोदर के स्वरूप का चित्रण किया है —
नमामि ईश्वरं सच्चिदानन्दरूपं
लसत्कुण्डलं गोकुले भ्राजमानम्।
यशोदा-भियोलूखलात् धावमानं
परामृष्टं अत्यन्ततो दृत्य गोप्या॥
“मैं सच्चिदानंद स्वरुप, सर्वेश्वर श्री कृष्ण की वंदना करता हूँ जिनके कपोलों पर दोदुल्यमान मकराकृत कुंडल क्रीड़ा कर रहे है, जो गोकुल नामक अप्राकृत चिन्मय धाम में परम शोभायमान है, जो दधिभाण्ड (दूध और दही से भरी मटकी) फोड़ने के कारण माँ यशोदा के भय से भीत होकर ऊखल से कूदकर अत्यंत वेग से दौड़ रहे है और जिन्हें माँ यशोदा ने उनसे भी अधिक वेगपूर्वक दौड़कर पकड़ लिया है।”
गोकुल की अति अद्भुत लीला! गोपाल ने माखन चुराया है, और माता यशोदा उन्हें पकड़ने के लिए पीछे-पीछे दौड़ रहीं हैं। गोपाल टेढ़े-मेढ़े रास्तों में तेजी से दौड़ रहे हैं, और माता यशोदा पीछे-पीछे अत्यंत शीघ्रता (दृत्य गोप्या) से दौड़ रहीं हैं और अंततः उन्हें पकड़ लेती हैं। क्या अद्भुत रूप है! क्या अनुपम दृश्य है! वात्सल्य-रस में स्थित भक्त इस लीला दृश्य की कामना करते हैं।
जब गोपाल ने माता को क्रोधावेश में देखा, तो वे क्रंदन करने लगे। उछ्वास के कारण उनके कुण्डल हिल रहे थे। उनका वक्षस्थल ऊपर-नीचे हो रहा था। दोनों हथेलियों से अपनी आँखें मल रहे थे। नेत्रों का काजल बहकर उनके श्यामल मुख और लाल हथेलियों पर फैल गया था। ऐसा अद्भुत, मनोहर रूप प्रकट हुआ।
भगवान् भयभीत होकर रो रहे हैं
श्री सत्यव्रत मुनि आगे लिखते हैं-
रुदन्तं मुहुः नेत्र-युग्मं मृजन्तं
कराम्भोज-युग्मेन साताङ्क-नेत्रम्।
मुहुः श्वास-कम्प-त्रिरेखाङ्क-कण्ठ-
स्थित-ग्रैव दामोदरं भक्तिबद्धम्॥
“मैं उन दामोदर भगवान् की वंदना करता हूँ जो माता के हाथ में छड़ी देखकर मार खानेके भय से डरकर रोते-रोते बारम्बार अपने दोनों नेत्रों को स्वहस्तकमल से मल रहे हैं, जिनके दोनों नेत्र भय से अत्यंत विह्वल है, रोदन के आवेग से बारम्बार श्वास लेनेके कारण त्रिरेखायुक्त कंठ में पड़ी हुई मोतियों की माला आदि कंठभूषण कम्पित हो रहे हैं, और जिनका उदर (माँ यशोदा की वात्सल्य-भक्ति के द्वारा) रस्सी से बँधा हुआ है”। (दामोदराष्टकम् श्लोक 2)
गोपाल क्रंदन कर रहे हैं, और कमल सदृश हथेलियों से अपनी आँखें मल रहे हैं। साताङ्क-नेत्रम्, उनके नेत्र भयभीत हैं। मुहुः श्वास-कम्प, वे जोर-जोर से उछ्वास ले रहे हैं। त्रिरेखा, उनके कंठ में तीन सुंदर रेखाएँ अंकित हैं। उनका वक्षस्थल ऊपर-नीचे हो रहा है। यह उनका अत्यंत मनोहर और अद्भुत रूप है। यह वात्सल्य-रस की परम अभिव्यक्ति है।
माता यशोदा हाथ में छड़ी लिए हैं और अत्यंत क्रोधित हैं। गोपाल रोते हुए बोले, “माँ, आपने यह छड़ी क्यों लिया है? कृपया इसे फेंक दो।” माता यशोदा मुस्कुराईं और बोलीं, “हाँ, अब इस छड़ी की आवश्यकता नहीं है, मैंने तुम्हें बाँध दिया है।” यशोदा ने छड़ी दूर फेंक दिया। भयानां भयङ्करः, परम भगवान् जो असुरों को भी भयभीत करने वाले हैं, वे आज अपनी माता के हाथ में छड़ी देखकर भय से व्याकुल हो रहे हैं। जब यशोदा मैया ने छड़ी फेंक दिया, तब गोपाल अपने सखाओं की ओर देखकर हँसने लगे। तब माता यशोदा ने कहा, "ओ गोपाल! तुम बहुत डरे हुए हो और रो रहे हो।” गोपाल अपने सखाओं को देखकर हँसते हैं और माता की ओर देखकर रोने लगते हैं। वे अपने हँसी को दबाते हैं, क्योंकि यदि माता यशोदा ने उनकी हँसी को देख लिया, तो लीला का रस नष्ट हो जाएगा।
इसी समय, कुछ गोप, गोपियाँ और बाल सखा वहाँ आते हैं। गोपियाँ माता यशोदा की क्लान्त अवस्था को देखकर आपस में मुस्कुराती हैं। परंतु वयोवृद्ध गोपियाँ कहती हैं, “अरी यशोदा! तू इतनी क्रोधित क्यों है? गोपाल अभी छोटा बच्चा है। उसे छोड़ दे, छोड़ दे, इस तरह मत बाँध।”
हमारा सखा कैसे मुक्त होगा?
श्रीदाम, सुबल और गोपाल के अन्य सखा थोड़ी दूर पर खड़े हैं, परन्तु निकट आने का साहस नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि माता यशोदा बहुत क्रोधित हैं। उनके हृदय में तीव्र पीड़ा हो रही है, “अरे! हमारा मित्र बंधन में है! हम उसे मुक्त कैसे करें?” यह सख्य-रस है। उनका प्रिय सखा गोपाल बंधन में है, परन्तु माता के क्रोधावेश को देखकर वे निकट नहीं जा सकते हैं। उनके हृदय में करुणा है, “हमारा मित्र कैसे छूटेगा?” गोपाल अपने सखाओं की ओर देखते हैं और सखागण धीरे से फुसफुसाते हैं, “कानु, कानु, रेंगो, रेंगो।” परम भगवान् जो सबके भव बंधन को काटने वाले हैं, आज स्वयं बंधन में हैं। यह अद्भुत रस है। सखा गणों का हृदय पीड़ित है, "हमारा कानु कैसे मुक्त होगा? वो हमारा बंधु है।" वे गोपाल को भगवान् नहीं मानते हैं।
अर्जुन वृक्ष उखड गए
गोपाल रेगंते हुए आँगन में आ गए। जब वे दो अर्जुन वृक्षों के बीच से गुजरे, तो ऊखल वृक्षों में फँस गया। जैसे ही गोपाल ने थोड़ा झटका दिया, दोनों अर्जुन वृक्ष उखड़ गए और भयंकर आवाज के साथ गिर पड़े! आवाज सुकर सभी गोकुलवासी दौड़ पड़े। माता यशोदा, नंद महाराज, गोपबालक, ग्वाले, गोपियाँ सभी दौड़ते हुए आए, “क्या हुआ? क्या हुआ?”
गोपबालक बोले, “हमने प्रत्यक्ष देखा है! माता यशोदा ने कानु को ऊखल से बाँध दिया। कानु रेंगते हुए वृक्षों के बीच से निकले, तभी दोनों अर्जुन वृक्ष गिर पड़े!” अत: माता यशोदा ने कृष्ण को बाँधा था, तथा उनके पिता नंद महाराज ने कृष्ण का बंधन खोल दिया। कृष्ण के सखा अपने मित्र के मुक्त होने पर अत्यंत प्रसन्न हुए।
माता यशोदा के प्रेमाश्रु
अर्जुन वृक्षों के गिरने की भयंकर आवाज़ सुनकर सब लोग द्रुतगति से वहाँ आए। माता यशोदा घबराकर बोलीं, “मेरे गोपाल को क्या हुआ? कानु को क्या हुआ, क्या हुआ?” माता यशोदा विलखने लगीं, “मेरा गोपाल कहाँ है? मेरा गोपाल कहाँ है?” इसी समय नंद महाराज आए और उन्होंने गोपाल को बंधन से मुक्त कर दिया। माता यशोदा ने गोपाल को गोद में उठा लिया और कक्ष के भीतर गोपाल को स्तनपान कराने लगीं। यह माधुर्य-लीला अत्यंत मधुर, सुंदर और वात्सल्य-रस से परिपूर्ण है। इस लीला में थोड़ा ऐश्वर्य है, पर वह छिपा हुआ है।
गोपाल ने अत्यंत भोलेपन से पूछा, “माँ, आपको क्या हुआ? आप क्यों रो रही हो?” माता यशोदा के नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे थे। वह पश्चाताप करने लगीं, “मैंने अपने गोपाल को क्यों बाँधा?”।
गोपाल ने आगे कहा, “माँ, तुम्हें क्या हुआ? आज प्रातः आपने मुझे रुलाया था। मैं तो आपका दुग्ध पान कर रहा था, परन्तु आपने मुझे ज़मीन पर पटक दिया और बाहर चली गईं। मैं रोता रहा। अब देखो, मैंने आपको रुला दिया। अब आप रो रही हो।” माता यशोदा रो रही थीं, और गोपाल हँस रहे थे। गोपाल माँ की गोद में अत्यंत संतोष और आनंद से स्तनपान कर रहे थे। वे अपना कोमल हस्तकमल धीरे-धीरे माँ के मुख पर फेरने लगे, मानो माँ को सांत्वना दे रहे हों। भगवान अपने भक्त को ऐसे ही आशीर्वाद देते हैं।
माता यशोदा मन ही मन सोच रही थीं, “मैं कितनी मूर्ख हूँ! मैंने अपने गोपाल को बाँध दिया। मैंने अपने गोपाल को क्यों बाँधा?” वह इस प्रकार सोचते हुए प्रेमाश्रु बहा रही थीं। यह भक्ति-रस से परिपूर्ण सुंदर लीला है। यह शुद्ध भाव, शुद्ध वात्सल्य-रस है। केवल व्रजेश्वरी माता यशोदा गोपाल को बाँध सकती हैं। और कोई नहीं बाँध सकता है।
शुद्ध-भावे सखा करे स्कन्धे आरोहण
शुद्ध-भावे व्रजेश्वरी करेन बन्धन।
“शुद्ध कृष्ण चेतना में कृष्ण का मित्र कृष्ण के कन्धों पर चढ़ जाता है और माता यशोदा कृष्ण को बाँध देती है।” (चैतन्य-चरितामृत, अन्त्य-लीला 7.30)
अनन्त ब्रह्माण्ड-कोटि वहे यारे मने
से तुमि श्रीदाम-गोप वहिला आपने ॥
“असंख्य ब्रह्माण्ड आपके मन से प्रकट होते हैं, फिर भी आप स्वयं अपने गोप मित्र श्रीदाम को अपने कंधे पर बैठाकर चलते हैं।” (चैतन्य-भगवत, मध्य-खण्ड 9.214)
शुद्ध सख्य-रस में श्रीकृष्ण अपने सखा श्रीदाम को कंधे पर उठाते हैं। कभी-कभी खेल में श्रीदाम जीत जाते हैं और कृष्ण हार जाते हैं। तब कृष्ण हँसते हुए श्रीदाम को अपने कंधे पर बैठाकर पूरे व्रज में दौड़ते हैं।
प्रेमरस में सिक्त
ये-से-द्रव्य सेवकेर सर्व-भावे खाय
नैवेद्यादि विधिर ओ अपेक्षा नाहि चाय॥
अल्प द्रव्य दासे ओ ना दिले बले खाय
ता’र साक्षी ब्राह्मणेर खुद द्वारकाय॥
“भगवान् अपने भक्तों द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पित वस्तुओं को तत्क्षण ग्रहण करते हैं। वे विधि-विधानों के पूर्ण होने की प्रतीक्षा नहीं करते हैं। यदि भक्त के पास अल्प भोज्य है और वह उसे भगवान् को नहीं देना चाहता है, तो भगवान बलपूर्वक उसे स्वयं छीन लेते हैं। द्वारका में सुदामा ब्राह्मण का चिउड़ा छीनना इसका प्रमाण है।” (चैतन्य-भागवत, मध्य-खण्ड 23.461-462)
यह शुद्ध प्रेम है। अपने भक्तों पर अतिशय स्नेह के कारण भगवान कृष्ण उनके मुँह से ग्रास छीन लेते हैं। यह उनका प्रेमपूर्ण व्यवहार है। जब कोई शुद्ध भक्त प्रेमपूर्वक कुछ अर्पित करता है, तो कृष्ण उसे तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। घंटी बजाने या मंत्र पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, केवल शुद्ध प्रेम ही पर्याप्त है। वेद-विधि, नियम और अनुष्ठान आवश्यक नहीं हैं। जब भक्त प्रेम से भगवान को कुछ अर्पित करते हैं, तो किसी विधि-विधान की आवश्यकता नहीं रहती। भगवान स्वयं प्रेमवश वह अर्पण छीन लेते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण सुदामा विप्र का है। सुदामा एक निर्धन ब्राह्मण थे। वे द्वारका में भगवान कृष्ण से मिलने जा रहे थे। परन्तु, उनके घर में भगवान् को भेंट देने योग्य कुछ भी नहीं था। उनकी पत्नी पड़ोसी के घर से थोड़ा सा पुराना, टूटा हुआ और दुर्गन्धित चिउड़ा (पोहा) मांगकर ले आई। सुदामा ने उसे अपनी फटी हुई धोती में बाँध लिया और द्वारका के लिए निकल पड़े। जब वे द्वारका नगरी में पहुँचे, तो वहाँ का असीम ऐश्वर्य और वैभव देखकर वे विस्मित हो गए है। उन्हें ग्लानि होने लगी और वे सोचने लगे, “मैं क्या लेकर आया हूँ? मेरे मित्र कृष्ण का वैभव तो अतुलनीय है। यह टूटा हुआ चिउड़ा कितना तुच्छ है, मैं इसे कैसे अर्पित करूँ?” इसलिए उन्होंने वह चिउड़ा अपनी बाँह के नीचे छिपा लिया। परन्तु भगवान् कृष्ण सर्वज्ञ हैं, उन्होंने मुस्कुराते हुए सुदामा से पूछा:
किमुपायनमानीतं ब्रह्मन् मे भवता गृहात् ।
अण्वप्युपाहृतं भक्तै: प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत् ।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.81.3)
कृष्ण बोले, “हे मेरे मित्र, हे ब्राह्मण सुदामा! तुम अपने घर से मेरे लिए क्या उपहार लेकर आए हो? मुझे क्यों नहीं दे रहे हो? यदि वह वस्तु बहुत तुच्छ भी है, तो भी मेरे लिए वह भूरि, अत्यंत महान है, क्योंकि वह प्रेमरस से युक्त है। मुझे केवल प्रेम स्वीकार्य है। इसके विपरीत अभक्त यदि पर्वत-समान भेंट अर्पित करे, तो भी मैं उसे कभी स्वीकार नहीं करता हूँ। तो बताओ मित्र, मेरे लिए क्या लाए हो? मुझे क्यों नहीं दे रहे हो?”
कृष्ण ने सुदामा के हाथ से छीन लिया
सुदामा ने लज्जावश चिउड़ा बगल में छिपा रखा था। बहुत पुराना, बासी, दुर्गंधयुक्त चिउड़ा पसीने से पूर्णतया भीग गया था। अगर कोई उसे सूंघे, “अरे, छी छी! कैसी बदबू है!” इसलिए सुदामा इसे कृष्ण को दे नहीं रहे थे। परन्तु, कृष्ण ने स्वयं उस चिउड़ा को छीन लिया और एक मुट्ठी खाने लगे, “ओह अति स्वादिष्ट! अति मधुर है!” अगर आप खाते तो कहते, “छी! नमकीन, खराब!” परन्तु कृष्ण बोले, “बहुत मधुर, बहुत स्वादिष्ट।” जब वे दूसरी मुट्ठी लेने लगे, तो भागवत महापुराण (10.81.10) में वर्णन है कि साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा रुक्मिणी देवी ने भगवान् का हाथ पकड़ लिया और बोली, "बहुत खा लिया, बस! अब और नहीं" -
इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे ।
तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिन: ॥
“यह कहकर भगवान् ने एक मुट्ठी खाई और दूसरी मुट्ठी खाने ही वाले थे कि पति-परायणा देवी रुक्मिणी ने उनका हाथ पकड़ लिया।” (श्रीमद्भागवतम् 10.81.10)
अब मुझे सुदामा की सेवा करनी होगी। दूसरी मुट्ठी खाकर, क्या मुझे ही सुदामा के पास भेज देंगे? अतः अब और नहीं!” इस प्रकार लक्ष्मी देवी ने दूसरी मुट्ठी खाने नहीं दी।
यह शुद्ध प्रेमरस है। अल्प द्रव्य दासे ओ ना दिले बले खाय - सुदामा लज्जित थे, सोच रहे थे, “मैं इतनी तुच्छ वस्तु कैसे अर्पित करूँ? कृष्ण के पास तो असीम वैभव है।” परन्तु कृष्ण ने छीन लिया क्योंकि यह प्रेम से युक्त थी।
कृष्ण अपने भक्तों का उच्छिष्ट स्वीकार करते हैं
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर चैतन्य-भागवत में वर्णन करते हैं-
अवशेषे सेवकेरे करे आत्मसात्
ता’र साक्षी वन-वासे युधिष्ठिर-शाक॥
“भगवान अपने भक्तों का जूठा अन्न भी स्वीकार करते हैं। इसका प्रमाण पांडवो के वनवास के समय मिलता है जब भगवान ने युधिष्ठिर महाराज का जूठा शाक खाया था।” (चैतन्य-भागवत, मध्य-खण्ड 23.463)
जब युधिष्ठिर महाराज, उनके भाई और पत्नी द्रौपदी वन में निवास कर रहे थे, तब दुर्योधन ने एक कपटी योजना बनाई। उसने दुर्वासा मुनि को दोपहर के समय पांडवों के पास भेजा और सोचा, “इस समय उनके पास भोजन नहीं होगा। अतः दुर्वासा मुनि क्रोधित होकर उन्हें शाप देंगे, और इस प्रकार समस्त पांडव नष्ट हो जाएँगे।” ऐसे दुर्विचार से दुर्योधन ने ऋषि को भेजा। परंतु कृष्ण रक्ष्यति, कृष्ण अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। पांडव तो कृष्ण के प्रिय भक्त हैं, उन्हें कौन क्षति पहुँचा सकता है? जब द्रौपदी संकट में थी, तो उसने सुदूर स्थित कृष्ण को पुकारा। दुर्वासा मुनि अपने हज़ारों शिष्यों सहित पधारे थे और भोजन से पूर्व स्नान के लिए गए थे। तब द्रौपदी अत्यंत चिंतित हो उठीं। वह सोचने लगीं, “अब मुझे इस संकट से कौन बचा सकता है? केवल श्रीकृष्ण ही मुझे बचा सकते हैं!” तब उन्होंने पुकारा, “कृष्ण! हे कृष्ण!”
उसी क्षण श्रीकृष्ण दूर से दौड़ते हुए आए, और बोले, “द्रौपदी! द्रौपदी! द्रौपदी! मैं बहुत भूखा हूँ! बहुत भूखा हूँ! मुझे भोजन दो! मुझे भोजन दो!”
द्रौपदी बोलीं, “प्रभु, पहले मेरी बात सुनिए।”
कृष्ण बोले, “नहीं, पहले मुझे भोजन दो, फिर मैं सुनूँगा।”
द्रौपदी ने उत्तर दिया, “यही तो मेरी समस्या है, मेरे पास भोजन नहीं है।”
कृष्ण बोले, “नहीं, कुछ न कुछ अवश्य होगा। भोजन पात्र देखो, अवश्य कुछ बचा होगा।”
उस दिन द्रौपदी ने थोड़ा सा शाक (पालक) पकाया था। बर्तन के किनारे पर एक छोटा-सा पत्ता अभी भी चिपका हुआ था, जो बर्तन धोते समय नहीं निकला था। कृष्ण ने कहा, “आहा! देखो कुछ बचा है।” उन्होंने उस पत्ते को उठाया और प्रेम पूर्वक खा लिया। “अरे द्रौपदी! तुमने तो मुझे बहुत अधिक भोजन खिला दिया। मेरा उदर तृप्त हो गया है।” यह केवल विशुद्ध प्रेम है, और कुछ नहीं।
कौन कृष्ण प्रदान कर सकता है?
सेवक कृष्णेर पिता, माता, पत्नी, भाइ
`दास’ बै कृष्णेर द्वितीय आर नाइ॥
ये-रूप चिन्तये दासे सेइ रूप हय
दासे कृष्णे करिबारे पारेये विक्रय॥
“कृष्ण के पिता, माता, पत्नी और भाई, सभी उनके सेवक हैं। कृष्ण अपने सेवकों के अतिरिक्त किसी को भी नहीं पहचानते। उनका सेवक जिस रूप में ध्यान करता है, भगवान उसी रूप में प्रकट होते हैं। वास्तव में, शुद्ध भक्त तो कृष्ण को बेच भी सकते हैं।” (चैतन्य-भागवत, मध्य-खण्ड 23.464–465)
भक्त जिस रूप में कृष्ण को देखना चाहते हैं, वे उसी रूप में प्रकट होते हैं। वे अपने भक्त को इतनी शक्ति दे देते हैं कि वह उन्हें दूसरों को विक्रित भी कर सकता हैं।
श्रील ठाकुर भक्तिविनोद ने शरणागति में कहा है -
कृष्ण से तोमार, कृष्ण दिते पारो,
तोमार शकति आछे।
आमी तो कांगाल, ‘कृष्ण कृष्ण’ बोली,
धाइ तव पाछे पाछे॥
“हे श्रद्धेय वैष्णव! कृष्ण आपके हैं। आपके पास उन्हें मुझे प्रदान करने की शक्ति है। मैं कंगाल हूँ, ‘कृष्ण! कृष्ण!’ पुकारते हुए, आपके पीछे-पीछे दौड़ रहा हूँ।” (शरणागति, भजन-लालसा, गीत 7)
कृष्ण ऐसे प्रेमी-भक्तों की संपत्ति हैं, जिन्होंने अपने हृदय में उन्हें प्रेम-रज्जु से बाँध लिया है। केवल वे ही कृष्ण को प्रदान कर सकते हैं। दासे कृष्णे करिबारे, केवल प्रेमी-भक्त ही कृष्ण दे सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
प्रीति-विषय और प्रीति-आश्रय
`सेवक-वत्सल प्रभु’ चारि-वेदे गाय
सेवकेर स्थाने कृष्ण प्रकाशे सदाय॥
चारों वेद यह गाते हैं कि“परम पुरुष भगवान अपने सेवकों से प्रेम करते हैं।” । भगवान श्रीकृष्ण सदैव अपने भक्तों के समक्ष प्रकट होते हैं। (चैतन्य-भागवत, मध्य-खण्ड 23.466)
चारों वेदों का निष्कर्ष है कि श्रीकृष्ण सेवक-वत्सल या भक्त-वत्सल हैं। कृष्ण अपने प्रेमी-भक्तों के समक्ष स्वयं प्रकट हो जाते हैं। वे सदा उनके साथ रहते हैं। ये लीलाएँ अत्यंत मधुर, अद्भुत और अचिन्त्य हैं। भगवान् और भक्त दोनों को आनंदानुभव होता है। कृष्ण प्रीति-विषय हैं, जबकि प्रेमी-भक्त प्रीति-आश्रय हैं। अतः, भगवान जो आश्रय के विषय हैं, भक्त के सुख को समझने में असमर्थ हैं क्योंकि वह आनंद आश्रय-जातीय होता है। कृष्ण विषय-जातीय हैं।
रसास्वादन हेतु, कृष्ण भक्त-भाव को स्वीकार करते हैं
भक्त - प्रेमार यत दशा, ये गति प्रकार।
यत दुःख, यत सुख, यतेक विकार॥
कृष्ण ताहा सम्यक् ना पारे जानिते।
भक्त - भाव अङ्गीकरे ताहा आस्वादिते॥
“स्वयं कृष्ण भी अपने भक्तों की दशा, प्रगति, सुख तथा दुःख एवं प्रेमभावों को पूरी तरह नहीं समझ पाते। इसलिए वे इन भावों का पूर्ण आस्वादन करने हेतु भक्त की भूमिका अंगीकार करते हैं।” (चैतन्य-चरितामृत, अन्त्य-लीला 18.16–17)
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी चैतन्य-चरितामृत में वर्णन करते हैं - एक भक्त की क्या दशा है? भक्त का सुख-दुःख क्या है? उसका मनोभाव कैसा होता है? यह सब कृष्ण नहीं जान सकते हैं। इसलिए, कृष्ण स्वयं भक्त-भाव स्वीकार करके चैतन्य महाप्रभु के रूप में इस पृथ्वी पर प्रकट होते हैं। वे भक्ति-रस, अर्थात् आश्रय-जातीय रस का आस्वादन करते हैं। यह उनकी अत्यंत अद्भुत, दिव्य और रहस्यमयी लीला है।
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