श्रीगुरुचरण पद्म

 

मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि श्री श्री गुरु और गौरांग की अहैतुकी कृपा से मैं आज आप सब के समक्ष उपस्थित हूँ। वास्तव में, गुरु और गौरांग की कृपा के बिना आप गुह्य तत्त्व को कदापि नहीं समझ सकते हैं। न तो आप भौतिक अस्तित्व के इस भयावह सागर को पार कर सकते हैं और न ही इस जगत से परे अपने शाश्वत निवास अर्थात प्रभु के धाम (भगवद्धाम) जा सकते हैं। अतः हम श्री गुरु के चरण कमलों में प्रणति तथा प्रार्थना अर्पित करते हैं, जो हमें इस भयावह भौतिक जगत से पार कराने में एक कुशल मार्गदर्शक हैं।

                                                                 

श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म,
बन्दो मुइ सावधान मते।
याँहार प्रसादे भाई, ए भव तोरिया जाइ,
कृष्ण प्राप्ति होय जाहा हइते॥

“श्रीगुरु के चरणकमल ही एकमात्र साधन हैं जिनके द्वारा हम शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरणकमलों में भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नतमस्तक हूँ। एकमात्र उनकी कृपा से जीव भौतिक क्लेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है।” (श्रील नरोत्तम दास ठाकुर रचित श्रीगुरुचरण पद्म १)

 

एक मात्र श्री-गुरु की कृपा से ही मनुष्य इस भवसागर को पार कर सकता है और कृष्ण-भक्ति करके कृष्ण-प्राप्ति कर सकता है। यह श्री-गुरु की विशेष कृपा है।

 

श्री-गुरु सदा विद्यमान हैं

श्री-गुरु-चरण-पद्म, केवल-भक्ति-सद्म - एकमात्र श्री-गुरु के चरण कमलों में ही भक्ति है। मैं परम सजगता से श्री-गुरु के चरण कमलों में अपनी प्रार्थना तथा प्रणाम अर्पित करता हूँ। इसमें कदापि असावधान ना रहें!

 

हमें श्री-गुरु-चरण-पद्म का वास्तविक अर्थ समझना चाहिए। 'श्री' शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। 'श्री' शब्द के अनेक अर्थ हैं: शोभा, संपदा (दिव्य संपत्ति), श्रेष्ठता इत्यादि। अतः श्री-गुरु का अर्थ है ऐसे गुरु जो 'श्री' अथवा प्रेम-भक्ति से युक्त हैं। 'श्री' शब्द का प्रयोग केवल वर्तमान या प्रत्यक्ष गुरु के लिए होता है। चूँकि गुरु शाश्वत रूप से विद्यमान हैं, इसलिए उन्हें श्री-गुरु संबोधित किया जाता है। श्री-गुरु के अप्रकट होने का प्रश्न ही नहीं है, अन्यथा हम ‘श्री’ शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते। इस जगत में, केवल श्री-गुरु ही एकमात्र सौंदर्य, एकमात्र संपत्ति और एकमात्र धन हैं, अन्य कुछ भी नहीं। अतएव श्री-गुरु नित्य हैं।

 

एक विशेष प्रकार का मधु

श्री-गुरु-चरण-पद्म, श्री-गुरु के चरणों की तुलना कमल (पद्म) पुष्प से की जाती है। यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनके चरण अन्य किसी वस्तु से अतिरिक्त, केवल कमल के समान ही क्यों बताए गए हैं? चूँकि कमल पुष्प अत्यंत सुंदर होता है और इसके कोश में मीठा मधु होता है। यद्यपि भ्रमर अनेक फूलों से मधु एकत्र करता है, किंतु कमल पुष्प से एकत्रित मधु विशेष होता है। कमल पुष्प से प्राप्त मधु को पद्म-मधु कहते हैं। वह शिष्य जो भौंरे की भाँति उस मधु प्राप्ति के लिए अत्यंत क्षुधातुर और लोलुप है, पद्म-मधु का आस्वादन करता है।

 

भक्ति-रस सिंधु में कमल

कमल पुष्प जल में पुष्पित होता है, लेकिन जल से अस्पृश्य रहता है। जल का एक पर्यायवाची (प्रति-शब्द) ‘रस है। सदृश, श्री-गुरु के चरण कमल भी भक्ति-रस सिंधु में शोभित हैं। ये चरण कमल अप्राकृत हैं और दिव्य भक्ति-रस के धाम, समस्त ‘श्री’ (माधुर्यता) से युक्त हैं तथा अत्यधिक रसमय हैं। जैसे कमल नेत्रों को आकर्षक लगता है, नयनाभिराम व विशेष चमक से युक्त होने के कारण चित्ताकर्षक है, उसी प्रकार, शिष्य की दृष्टि में गुरु के चरण कमल भी प्रीतिपूर्वक दीप्तिमान हैं।

 

सुख कहाँ मिलेगा?

श्री-गुरु के कार्य-कलाप, रूप, गुण, लीलाएँ इत्यादि साधक-भक्त को अतिप्रिय हैं। अपने चिंतन में, वह निरंतर श्री-गुरु के सुंदर चरण कमल का दर्शन करता है और उनके दर्शन मात्र से वह अपने संतप्त हृदय में अद्भुत सुख का अनुभव करता है। प्रत्येक जीव त्रितापों  से पीड़ित है - आध्यात्मिक (मन और शरीर से उत्पन्न कष्ट); आधिदैविक (प्रकृति से उत्पन्न कष्ट); और आधिभौतिक (अन्य प्राणियों से प्रदत्त कष्ट)। जब शिष्य श्री-गुरु के सुंदर चरण कमल का ध्यान करता है, तो उसके समस्त कष्ट शमित हो जाते हैं एवं पद्म-पुष्प की मीठी सुगंध के सदृश, शिष्य श्री-गुरु के चरणों से उत्सर्जित मधुमय सुगंध का अनुभव करता है।

 

भ्रमर विभिन्न प्रकार के फूलों में विचरण करता है। भारतवर्ष में एक विशेष प्रकार का केतकी पुष्प खिलता है जो बहुत सुगंधित होता है, परन्तु गुलाब की तरह उसकी पंखुड़ियों में भी कंटक होते हैं। जब भौंरा केतकी पुष्प की सुगंध से आकर्षित होकर पुष्प के निकट जाता है, तो उसके पंख कांटों में उलझ कर विदीर्ण हो जाते हैं और उसे असहनीय कष्ट होता है। भौंरा सोचता है, "ओह, मेरे पंख विदीर्ण हो चुके हैं और मैं बहुत कष्ट में हूँ। मैं कहाँ जा सकता हूँ? ऐसा कौन-सा आश्रय है जहाँ कोई कष्ट व पीड़ा न हो, केवल शांति का अनुभव हो? मुझे यह सुख कहाँ मिलेगा?" सर्वत्र भटकने के पश्चात, अंततः वह कमल के फूल की शीतल, सुखमय शरण में आता है। "ओह, यह कितना सुखदायक स्थान है!" इसलिए वह पद्म-पुष्प के कोश में शरण लेता है, जो उसे शीतलता प्रदान करता है। साथ ही, पद्म-पुष्प भौंरे को अपना मधुर शहद व पोषण भी प्रदान करता है।

 

ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव, - इसी प्रकार, एक जीव भौतिक जगत में असंख्य ब्रह्मांडों में भिन्न-भिन्न योनियों में भटकता है। परन्तु, उसे केवल दुख, कष्ट, पीड़ा और यातना प्राप्त होती है; कोई सुख या शीतलता नहीं। वह केवल संसार-दावानल, भौतिक जीवन की धधकती दावाग्नि में जल रहा है। सामान्यतः वन में कोई भी अग्नि प्रज्वलित नहीं करता है, किंतु वायु के प्रभाव से दो काष्ठ के परस्पर रगड़ने से स्वतः ही आग लग जाती है और संपूर्ण वन नष्ट हो जाता है। इस दावाग्नि से अनेक वन्यप्राणी कष्ट पाते हैं। इसी प्रकार, इस भौतिक जगत में बद्ध-जीव आत्माएँ तीन प्रकार के कष्टों से संतप्त हो रहीं हैं: आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। उन्हें निरंतर उष्णता का अनुभव होता है। अतः असंख्य योनियों में भटकने के पश्चात, कोई भाग्यवान-जीव, श्री-गुरु के चरण कमलों की शीतल छाया में शरण लेता है। श्री-गुरु उसे आश्रय प्रदान करते हैं और जिस प्रकार भौंरा कमल से मीठा शहद का पान करता है, उसी प्रकार, गुरु-पाद-पद्म भी, उस जीव-आत्मा को मधुर शहद का पान करने की अनुमति प्रदान करते हैं। इस प्रकार वह पूर्ण पोषण, प्रेमानंद व वस्तविक सुख का अनुभव करता है ।

 

श्री गुरु-पाद-पद्म-मधु

पद्म-मधु औषधीय गुणों से युक्त एक विशेष मधु है। नेत्रों में अशुद्धियाँ, धुंधलापन, अथवा दर्द इत्यादि होने पर आयुर्वेदिक चिकित्सक पद्म-मधु का उपयोग करने का सुझाव देते है। इससे आँखों की अशुद्धियां दूर हो जाएंगी और आप स्पष्ट रूप से देख पाएंगे, अर्थात आपकी दृष्टि-शक्ति पुनः विकसित हो जाएगी। इस प्रकार आप अति सूक्ष्म वस्तुएं भी देख सकेंगे। इसका उल्लेख आयुर्वेद शास्त्र में दिया गया है। इसी प्रकार गुरु-पाद-पद्म-मधु, गुरु के चरण कमलों से उत्पन्न मधु, अति मधुर तथा अमृतमय है। यदि कोई भाग्यशाली भक्त इसका आस्वादन करता है, तो उसके सभी भौतिक कल्मष दूर हो जायेंगे। हमारे भौतिक चक्षु अज्ञान के घने अंधकार से आवृत हैं:

 

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥

"मैं घोर अज्ञान के अंधकार में जन्मा था, परन्तु मेरे आध्यात्मिक गुरु ने अपनी अहैतुकी कृपावश ज्ञान की मशाल से मेरी चक्षु खोल दिए हैं। मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ।"

 

गुरु के दिव्य चरण कमलों में शरणागत होकर जीव उनकी कृपा प्राप्त करता है। गुरु उस शरणागत आत्मा को अपने चरण कमलों से उत्सर्जित अमृतमय मधु का आस्वादन करने की अनुमति देते हैं। इस औषधि से समस्त भौतिक कल्मष दूर हो जाते हैं और दिव्य दृष्टि विकसित होती है। जीव अज्ञान के घने अंधकार या भौतिकवाद से अंधा हो गया था। गुरु की शरणागति में, जीव का अज्ञान दूर हो जाता है और उसे दिव्य-ज्ञान-चक्षु प्राप्त होते  हैं। गुरु तत्त्व-ज्ञान प्रदान करते हैं। गुरु कृपा से जीव की दिव्य दृष्टि विकसित होती है, जिसके द्वारा वह श्यामसुंदर का दर्शन करने में सक्षम होगा। समस्त अंधकार या अज्ञान नष्ट हो जाता है, सर्वत्र तेज प्रकाश उदित होता है। गुरु के चरण कमलों से उत्सर्जित मधु अद्भुत है। इसलिए, श्री-गुरु के चरणों की तुलना कमल से की जाती है - श्री-गुरु-चरण-पद्म। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।

 

मधु जो हृदय का मार्जन करता है

पद्म-मधु केवल नेत्रों की अशुद्धियों को ठीक करता है, हृदय की अशुद्धियों को नहीं। परन्तु, गुरु के चरण कमलों से उत्पन्न मधु अद्भुत है। यह आँख और हृदय दोनों की मलिनता का मार्जन करता है। श्री-गुरु-चरण-पद्म-मधु हृदय को शुद्ध करता है और गोविंद के वास के लिए एक योग्य स्थल बनाता है।

 

तोमार हृदये सदा गोविन्द-विश्राम

गोविन्द कहेन-मोर वैष्णव प्राण

"ओ वैष्णव ठाकुर, आपका हृदय हमेशा भगवान गोविंद का विश्राम स्थल है। आपका हृदय वृन्दावन है, गोविंद का शाश्वत धाम। गोविंद आपके हृदय में शांतिपूर्वक, आनंदपूर्वक विश्राम करते हैं। वे कभी आपका हृदय नहीं छोड़ते।" (वैष्णवे विज्ञाप्ति)

 

गुरु अपने चरणों में आश्रय देकर एक शरणागत शिष्य के हृदय को गोविंद का विश्राम स्थल बना देते हैं।

 

अचूक औषधि

समस्त बद्ध जीव-आत्माएँ भव-रोगी हैं। वे विभिन्न भौतिक व्याधियों से पीड़ित हैं। अनेक औषधियाँ यथा एलोपैथिक, होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक इत्यादि के सेवन से भी रोग ठीक नहीं होते हैं। यह दीर्घकालिक रोग है। जीवन शक्ति का ह्रास हो चुका है। वे कोई भी भोज्य पदार्थ नहीं पचा सकते हैं क्योंकि उनकी पाचन अग्नि क्षीण हो गई है। उन्होंने अनेक प्रकार की औषधियाँ का सेवन किया, परन्तु रोग और असाध्य हो गया है। ऐसी दशा में व्यक्ति अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता है। वह मरणासन्न अवस्था में है। उसके रोग मुक्त होने का कोई आसार नहीं है। ऐसी स्थिति में, कविराज उसे केवल पद्म-मधु का सेवन करने की सलाह देते हैं। पद्म-मधु के सेवन से वह अपनी जीवन शक्ति पुनः प्राप्त कर सका है।

 

इसी प्रकार, जीव असंख्य ब्रह्मांडों में भटक रहा है। वह केवल दुख और कष्ट भोग रहा है, भव-रोगी। उसकी जीवन शक्ति नष्ट हो चुकी है और वह एक असाध्य रोग से ग्रस्त है। अतः वह पूर्णतया आशाहीन हो चुका है।

 

अंत में, उसे श्री-गुरु के चरण कमलों में शरणागत होने का सौभाग्य मिलता है। श्री-गुरु वैद्य हैं, जो इस भव-रोग को ठीक करने की सर्वोत्तम औषधि जानते हैं। वे इन दुखों के मूल कारण से अवगत हैं। असंख्य जन्मों से जीव भौतिक संसार की व्याधियों से पीड़ित रहा है। गुरु-पाद-पद्म-मधु के अतिरिक्त कोई भी अन्य औषधि लाभकारी नहीं होगी। जिस प्रकार कमल का फूल, केतकी पुष्प के कंटकों से क्षत भौंरे को आश्रय देता है, उसी प्रकार श्री गुरु-पाद-पद्म, भी भ्रमित व प्रताड़ित आत्मा को आश्रय और मधु पान की अनुमति देते हैं। इस प्रकार वह पीड़ित आत्मा पुनर्जीवन एवं वास्तविक पोषण पाता है। इसीलिए श्री-गुरु के चरण कमल के सदृश हैं, अर्थात 'श्री गुरु-चरण-पद्म'।

 

श्री गुरु साक्षात हरि हैं

साक्षाद् - धरित्वेन समस्त शास्त्रैर्

उक्तस् तथा भाव्यत एव सद्भिः।

किन्तु प्रभोर् यः प्रिय एव तस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

“श्रीभगवान्‌ के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्री गुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान्‌ के ही समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी श्रुति-शास्त्र व प्रामाणिक अधिकारियों ने स्वीकार किया है। भगवान्‌ श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे अतिशय प्रिय प्रतिनिधि के चरणकमलों की मैं सादर वन्दना करता हूँ।” (श्री श्री गुर्वाष्टक, श्लोक ७)

 

गुरु साक्षात्-हरि हैं। वे इस भौतिक जगत के व्यक्ति नहीं है। वे अहैतुकी कृपावश भगवद धाम से इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं। मुख्यतः वे दो कारण से इस जगत में आते हैं। प्रथम, पतित आत्माओं के कष्टों को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठता है, इसलिए वे स्वेच्छा से उनके दुखों को नष्ट करने और उन्हें भौतिक जगत से मुक्त करने के लिए आते हैं। अथवा, वे भगवान के प्रत्यक्ष निर्देश पर आते हैं।

 

भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से अप्रभावित

कृष्ण की परम इच्छा से गुरु-पाद-पद्म इस जगत में अवतरित होते हैं। भौतिक जगत में उनका आगमन केवल और केवल अनादिकाल से भौतिक अस्तित्व के भयावह सागर में डूब रही पीड़ित आत्माओं पर कृपा वृष्टि के लिए होता है।

 

कोई प्रश्न कर सकता है: "इस भौतिक जगत में प्रकृति के तीन गुण- सत्व, रजस और तमस- प्रभावी हैं। प्रत्येक जीव इन गुणों के अधीन है। तो फिर, श्री-गुरु इन गुणों से प्रभावित हुए बिना कैसे रहते हैं? उनका दिव्य स्वरूप प्रकृति के गुणों से संदूषित कैसे नहीं होता?" इसे समझना बहुत सरल है। यद्दपि कमल पुष्प जल में पुष्पित होता है, परन्तु वह सर्वदा जल से अस्पृश्य रहता है। इसी प्रकार, यद्यपि गुरु इस जगत में रहते हैं, परन्तु वे प्रकृति के गुणों से अप्रभावित हैं। भौतिक प्रकृति के तीन गुणों का उन पर कोई प्रभाव नहीं होता है। इसलिए गुरु के चरणों की तुलना कमल पुष्प से की जाती है।

 

जलाशय में स्थित कमल के कोष में बैठा हुआ भ्रमर कमल की पंखुड़ियों में आश्रय पाता है और जल से अस्पृष्ट रहता है। इसी प्रकार, यदि कोई सौभाग्यशाली शिष्य निष्ठापूर्वक श्री-गुरु के चरण कमलों में आश्रित है, तो उसे इस भौतिक जगत से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। वह भौतिक प्रकृति से प्रभावित नहीं होगा। यह श्री-गुरु के चरण कमलों की शक्ति है।

 

सूर्योदय होने पर कमल खिलता है

सूर्योदय होने पर कमल पुष्प खिलता है और सूर्यास्त होने पर उसकी पंखुड़ियाँ स्वत: बंद हो जाती हैं। इसी प्रकार, गुरु-पाद-पद्म की पंखुड़ियाँ जीव के हृदय में भक्ति-वृत्ति देखकर स्वतः खुल जाती हैं। भक्ति-वृत्ति अर्थात भक्ति की परमावश्यकता एवं तीव्र इच्छा, जब जीव अपने हृदय में भगवद धाम लौटने व कृष्ण प्राप्ति के लिए क्रंदन करता है अथवा कृष्ण को जानने की जिज्ञासा प्रकट करता है, तब उसके लिए यह परिस्थिति सूर्योदय के समान है।

 

सूर्यास्त होने पर पंखुड़ियाँ बंद हो जाती हैं

जब एक शिष्य के हृदय में तीव्र भक्ति-वृत्ति होती है, तब उसे गुरु-पाद-पद्म का आश्रय मिलता है। परन्तु, हम देखते हैं कि शिष्य अपराध (नाम-अपराध या वैष्णव-अपराध) के कारण अपनी भक्ति-वृत्ति से वियुक्त हो जाता है अथवा उसकी भक्ति-वृत्ति संकुचित हो जाती है। परिणामतः वह गुरु के आदेशों का पालन नहीं करता है, गुरु-वाणी को नहीं सुनता है, गुरु के निर्देशानुसार कार्य नहीं करता है, अथवा गुरु की अवज्ञा करता है। अर्थात ऐसे शिष्य के लिए अब सूर्य अस्त हो रहा है। सूर्यास्त होने पर कमल की पंखुड़ियाँ बंद हो जाती हैं। इस प्रकार, ऐसे शिष्य के जीवन से गुरु अप्रकट हो जाते हैं। निश्चित रूप से, यह एक उन्नत भक्त के लिए उपयुक्त नहीं है, जो दिव्य-रस की मधुरता का आस्वादन विकसित कर चुका है। अपितु यह नवदीक्षित भक्त पर निश्चित रूप से लागू होता है, जिसने  भक्ति-पथ पर कोई उन्नति नहीं की। यदि ऐसा शिष्य कोई अपराध करता है और भौतिकवादी व्यक्तियों का संग करता है तथा वास्तविक साधु-संग से वंचित रहता है तो उसके जीवन से गुरु कृपा विलुप्त हो जाएगी। उसके लिए गुरु कृपा रूपी सूर्य अस्त हो जाएगा। स्वेच्छाचारी शिष्य के जीवन से गुरु-पाद-पद्म अप्रकट हो जाते हैं।

 

परन्तु, यह बात उन उत्तम भक्तों पर लागू नहीं होती जिन्होंने इस दिव्य रस (गुरु चरणों में रति) के प्रति जात-रति विकसित कर लिया है। गुरु-चरण उनका जीवन और आत्मा है, वे इसके बिना जीवित नहीं रह सकते हैं। ऐसे भक्तों के लिए गुरु-पाद-पद्म कभी लुप्त नहीं होते हैं। वह नित्य गुरु का दर्शन करता है, सदा गुरु की उपस्थिति का अनुभव करता है। प्रत्येक परिस्थिति में, वह गुरु-पाद-पद्म की प्रेममयी सेवा में रत रहता है। वह एक निष्ठापर-भक्त है। निष्ठा की न्यूनतम अवस्था में भी स्थित साधक के हृदय से गुरु कभी विलुप्त नहीं होते हैं। परन्तु, जिस साधक की निष्ठा दृढ़ नहीं है, उसके लिए सूर्यास्त होने की आशंका बनी रहती है। यदि वह अपराध करता है और गुरु के निर्देशों और आदेशों का उल्लंघन करता है, तो गुरु उसकी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं। उसके लिए गुरु के  चरण कमल की पंखुड़ियाँ बंद हो जाएंगी और सूर्यास्त हो जाएगा।

 

निष्ठा का न्यूनतम स्तर प्राप्त करें

गुरु के इस जगत में उपस्थित नहीं होने पर भी, उन्नत भक्त जिसने पूर्व में गुरु सेवा का रसास्वादन किया है, निष्ठा के न्यूनतम स्तर तक पहुँच गया है, जो सर्वदा गुरु के संग है, और रुचि, आसक्ति या भाव से परे वह जात-रति है, वह सदा गुरु की उपस्थिति का अनुभव करता है। गुरु उसकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होते हैं। अतः प्रत्येक साधक को निष्ठा का न्यूनतम स्तर प्राप्त करना चाहिए, अन्यथा गुरु-पाद-पद्म के विलुप्त होने की आशंका बनी रहती है।

 

गुरु-कृपा पाने के लिए क्रंदन करें

शिष्य को गुरु की अहैतुकी कृपा प्राप्त करने के लिए क्रंदन करना चाहिए। जब तक आप क्रंदन नहीं करेंगे, आपको कृपा कैसे प्राप्ति होगी? उदाहरणतः जब एक शिशु रोता है, तो माँ उसके पास द्रुत गति से दौड़ती हुई आती हैं। "ओह, मेरा बच्चा रो रहा है।" माँ की उपस्थिति के अतिरिक्त, अन्य किसी भी उपाय से बच्चा शान्त नहीं हो सकता है। माँ गृह कार्यों में व्यस्त होती है, वह बच्चे को बहलाने के लिए खिलौना या गुड़िया देती है, लेकिन बच्चा उन्हें फेंक देता है और जोर-जोर से रोता है। अंत में, वह स्वयं दौड़ कर आती है। गुरु-कृपा के लिए क्रंदन आवश्यक है। इसीलिए हम वैष्णव भजन का गान करते हैं -करुना ना होइले, कांदिया कांदिया, प्राण ना राखिबो आर - हमें गुरु की कृपा के लिए क्रंदन करना पड़ेगा। जिन्होंने क्रंदन किया है, उन्हें कृपा प्राप्ति हुई है।

 

अतः क्रंदन आवश्यक है। बिना रोए शिशु अपनी माँ का स्तनपान नहीं कर सकता है। सदृश, हृदय से क्रंदन किए बिना, आपको श्री-गुरु का दर्शन कैसे होगा? जब शिष्य दैन्य भाव से रोता है, तब गुरु उसकी ओर दौड़कर आते हैं। करुणा-मय गुरु अत्यंत दयालु हैं, उनकी दयालुता अहैतुकी है। जब वे इस धरा पर शारीरिक रूप से उपस्थित होते हैं, तब वे कृपापूर्वक शिष्य को साक्षात दर्शन देते हैं और जब वे इस धरा में नहीं होते हैं, तब वे स्वप्न में आकर दर्शन देते हैं।

 

गुरुदेव (श्रील भक्ति विनोद ठाकुर)

गुरुदेव!

कृपाबिन्दु दिया, कर’ एइ दासे,

तृणापेक्षा अति हीन।

सकल-सहने, बल दिया कर,

निज-माने स्पृहा-हीन॥

सकले-सम्मान, करिते शकति,

देह, नाथ! यथायथ।

तबे त’ गाइब, हरिनाम सुखे,

अपराध ह’बे हत॥

कबे हेन कृपा, लभिया ए-जन,

कृतार्थ हइबे, नाथ!

शक्ति-बुद्धि हीन, आमि अति दीन,

कर’ मोरे आत्मसाथ॥

योग्यता-विचारे, किछु नाहि पाइ,

तोमार करुणा-सार।

करुणा न हइले, काँदिया काँदिया,

प्राण ना राखिब आर॥

 

१) गुरुदेव! अपनी कृपा की एक बूंद प्रदान करके, इस अधम सेवक को तृण से भी अधिक विनम्र बना दीजिये। मुझे सभी कष्टों को सहने की शक्ति प्रदान करें तथा मुझे व्यक्तिगत सम्मान की कामना से रहित कर दीजिये।

 

२) हे प्रभु! हे स्वामी! कृपया मुझे समस्त प्राणियों का उचित सम्मान करने की शक्ति दीजिये। तभी मैं आनंदपूर्वक हरि नाम का कीर्तन कर सकूँगा तथा मेरे सभी अपराध समाप्त हो जाएंगे।

 

३) हे प्रभु और स्वामी! कब यह भक्त, आपकी कृपा प्राप्त करके धन्य होगा? सभी शक्ति और बुद्धि से रहित, मैं बहुत नीच और पतित हूँ। कृपया मुझे अपना दास बना लीजिये।

 

४) आत्मचिंतन करने पर मैं पाता हूँ कि मेरी कोई योग्यता नहीं है; आपकी कृपा ही सार है। इसलिए, यदि कृपा नहीं करेंगे तो मैं रोते-रोते अपने प्राण त्याग दूँगा।

 

गुरु-तत्त्व की अंतिम सीमा

गुरु-तत्त्व नित्य, शाश्वत, तथा दिव्य तत्त्व है। यह शाश्वत रूप से प्रकट है, इसके अप्रकट होने का कोई प्रश्न नहीं है। श्री गुरु-चरण अचिंत्य हैं; भौतिक ज्ञान, बुद्धि और योग्यता के बल से इन्हें समझा नहीं जा सकता है। श्री-गुरु, श्री श्री राधा और कृष्ण के नित्य-परिकर हैं। वे नित्य रूप से गौर और कृष्ण दोनों के परिकर हैं। यह गुरु-तत्व कहलाता है। विशेष रूप से गुरु-तत्त्व की अंतिम सीमा (अवधि), नित्यानंद-तत्त्व, नित्यानंद-स्वरूप है और श्रीनित्यानंद प्रभु शाश्वत रूप से गौर-परिकर हैं। इसी प्रकार श्री-गुरु, गौर और कृष्ण दोनों के नित्य-परिकर हैं।

 

सेव्य-भगवान और सेवक-भगवान

गुरु और कृष्ण के मध्य तत्त्वतः कोई भेद नहीं है, इसलिए कहा जाता है - साक्षात्-हरित्वेन: वे साक्षात्-हरि हैं। दोनों में एकमात्र भिन्नता यह है कि एक आश्रय-तत्त्व है और दूसरे विषय-तत्त्व। भगवान हरि विषय-तत्त्व हैं, जबकि गुरु आश्रय-तत्त्व हैं। गुरु सेवक-भगवान हैं, और कृष्ण सेव्य-भगवान हैं। अन्यथा, तत्त्व में दोनों एक हैं।

 

परमात्मा रूप में गुरु आंतरिक प्रेरणा देते हैं

 

गुरु कृष्ण-रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे

गुरु-रूपे कृष्ण कृपा करेन भक्त-गणे

"समस्त प्रामाणिक शास्त्रों के सुविचारित मत के अनुसार गुरु कृष्ण से अभिन्न होता है। भगवान् कृष्ण गुरु के रूप में भक्तों का उद्धार करते हैं।" (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला १.४५)

 

कृष्ण गुरु के रूप में जीव पर कृपा करते हैं। गुरु कृपा के बिना कोई भी कृष्ण को नहीं समझ सकता है और ना ही उनका संग प्राप्त कर सकता है या भगवद् धाम लौट सकता है। वे स्वयं गुरु के रूप में हमारे सम्मुख प्रकट होते हैं। गुरु हमारे परम उद्धारक और सुहृद हैं। वे अपनी अहैतुकी कृपा से, हमें जन्म-जन्मान्तर के दुखों से मुक्त करते हैं। हृदय में विराजमान परमात्मा या चैत्य-गुरु के रूप में, वे हमें आंतरिक प्रेरणा और शुद्ध बुद्धि देते हैं। वे हमारा मार्गदर्शन करते हैं ताकि हम भक्ति-पथ पर कोई त्रुटि या अपराध न करें। यह श्री-गुरु के चरण कमलों की अतुलनीय महिमा है। वास्तव में गुरु की महिमा अवर्णनीय है।

 

कृष्ण-कृपा-श्री-मूर्ति

शिक्षा-गुरु और दीक्षा-गुरु में कोई भेद नहीं हैं, दोनों ही कृष्ण के प्रतिनिधि हैं और दोनों की कृपा अपार है।

 

यद्यपि आमार गुरु—चैतन्येर दास

तथापि जानिये आमि ताँहार प्रकाश

(चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला १.४४)

यद्यपि मैं जानता हूँ कि मेरे गुरु श्री चैतन्य दास हैं, तथापि मैं उन्हें भगवान् के स्वयं प्रकाश के रूप में जानता हूँ- ताँहार प्रकाश। यह तत्त्व है। श्री गुरुदेव कृष्ण-कृपा-श्री-मूर्ति हैं। वास्तव में, कृष्ण की कृपा ही शरीर धारण करके, श्री-गुरु के रूप में प्रकट होती है। अतः गुरु-भक्ति विकसित होने पर कृष्ण स्वतः लभ्य हो जाते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद (६.२३) में कहा गया है:

 

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥

“जिन महात्माओं के हृदय में श्री भगवान तथा गुरु दोनों के प्रति परम श्रद्धा होती है उनमें वैदिक ज्ञान का संपूर्ण तात्पर्य स्वतः प्रकाशित हो जाता है।”

 

गुरु-भक्ति और कृष्ण-भक्ति में कोई भेद नहीं है। यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ- जिसने भगवान तथा गुरु के प्रति परा-भक्ति (सर्वोच्च भक्ति) विकसित कर ली है, वह अति भाग्यशाली जीव है। उसके हृदय में समस्त दिव्य ज्ञान स्वतः प्रकट हो जायेगा। वह समस्त वेदों के तात्पर्य को समझ जायेगा। अन्यथा, स्वाध्याय से वैदिक ज्ञान कभी प्रकट नहीं होगा।

 

राधा-प्रिय-सखी

श्री गुरु कृष्ण-प्रिय-जन और राधा-प्रिय-दासी हैं। रूप मंजरी की भाँति, श्री गुरु राधा-प्रिय-सखी हैं। मूल गुरु-तत्त्व वास्तव में नित्यानंद-तत्त्व है। इसलिए, परम्परा के माध्यम से गुरु हमारे समक्ष प्रकट होते हैं, यह नित्यानंद-तत्त्व है। दीक्षा-गुरु, शिक्षा-गुरु, और चैत्य-गुरु निताईचंद की अभिव्यक्ति हैं। वस्तुतः श्रीनित्यानंद प्रभु ही गुरु-तत्त्व हैं। केवल लीला का भेद है।

 

इसीलिए प्रतिदिन, हम श्रील नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित श्री गुरु-चरण-पद्म का गायन करते हैं। इस गीत में, श्री-गुरु के चरण-पद्म के महत्व का वर्णन है जिसकी तुलना कमल के फूल से की गई है।

 

वंदो मुई सावधान मते

गुरु की वंदना अत्यंत सावधानी से करनी चाहिए। गुरु-वंदना तीन प्रकार से होती है: कायिक, वाचिक और मानसिककायिक वंदना का अर्थ है, गुरुदेव के चरण कमलों में सष्टांग दण्डवत (दंड की भाँति गिरकर) प्रणाम करना। इसके अतिरिक्त, हमें अपने शारीरिक माध्यम से अर्जित धन, भौतिक ऐश्वर्य इत्यादि, सब कुछ गुरु की सेवा में अर्पित करना चाहिए। अपने समस्त अनुयायियों यथा भार्या, सुत, पुत्री, सेवक, मित्र इत्यादि सभी के साथ गुरु की सेवा में संलग्न होना चाहिए। हमें अपनी संपूर्ण क्षमता से गुरु-सेवा करनी चाहिए।

 

वाचिक-वंदना का अभिप्राय है, हमें अपने वचनों द्वारा गुरु से प्रार्थनाएँ करनी चाहिए और उनका महिमागान करना चाहिए। गुरु-वाक्य को एकाग्रता से श्रवण करना चाहिए, और दूसरों को गुरु-वाणी का प्रचार करना चाहिए। इससे आपके माध्यम से दूसरों को गुरु-वाणी सुनने का अवसर मिलता है। परिप्रश्न भी वाचिक-सेवा है। यदि आपको कोई संदेह है, तो आपको गुरु से विनम्रतापूर्वक प्रश्न करके निवारण करना चाहिए।

 

तृतीय प्रकार मानसिक-वंदना है, अर्थात मन द्वारा सदैव श्रीगुरु के सुंदर, शांत और दिव्य आनंदमय चरण कमलों का चिंतन करना। गुरु-वाक्य पर दृढ़ एवं अविचल श्रद्धा रखनी चाहिए। आपको यह बोध होना चाहिए कि "मेरे गुरुदेव मेरा उपकार एवं अपनी कृपा वर्षित करने के लिए विभिन्न स्वरूपों में मेरे समक्ष प्रकट होते हैं।" यह मानसिक-वंदना है।

 

विश्व के समस्त वैष्णव-साधु, गुरुदेव के ही विभिन्न रूप हैं। गुरु-कृपा ही मेरी एकमात्र संपत्ति है। इसलिए हम कहते हैं, "वंदो मुई सावधान मते - मैं अत्यंत सावधानी से गुरु की वंदना करता हूँ।" इस कार्य में कभी भी असावधान न रहें!

 

गुरुदेव इस जगत में कृष्ण-संसार विस्तृत करते हैं

कृष्ण ही एकमात्र भोक्ता हैं। गुरुदेव सिखाते हैं, "इस जगत में प्रत्येक वस्तु कृष्ण के उपभोग के लिए है, स्वयं के लिए नहीं।" भगवान् हमें माया के चंगुल से मुक्त करके अपनी नित्य सेवा में नियुक्त करने के लिए अति उत्सुक हैं। कृष्ण की भोग वासना अनंत है; वे सभी जीवों के साथ भोग करना चाहते हैं। हम क्षुद्र जीव हैं, हमारी भोग करने की कोई क्षमता नहीं है। यह केवल हमारा मिथ्या पुरुष अभिमान है कि हम भोक्ता हैं। कृष्ण में असंख्य प्रकार से भोग करने की क्षमता है और जीव केवल उपभोग्य है। गुरु सिखाते हैं कि मैं कृष्ण का शाश्वत सेवक हूँ, अतः मुझे सदा कृष्ण की सेवा में नियुक्त रहना चाहिए। लेकिन कृष्ण तो आध्यात्मिक जगत या वैकुंठ में हैं और मैं इस दुखमय साकुंठ-जगत में हूँ। अतः मैं उनकी सेवा कैसे कर सकता हूँ?

 

इसलिए कृष्ण ने हमारी सहायता के लिए गुरुदेव रूपी युक्ति बनाई है। कृष्ण गुरुदेव को भौतिक जगत में भेजते है और गुरुदेव यहाँ कृष्ण-संसार का विस्तार करते हैं। यह कृष्ण की इच्छा है कि, "मेरा संसार इस जगत में प्रकट हो।" समस्त साधु और महाजन हमारे गुरु हैं, कृष्ण ने उन्हें अपना संसार प्रकट करने के लिए भेजा है। परम भगवान ने यह कदापि नहीं कहा, "भौतिक जगत में जाकर अपने-अपने संसार का विस्तार करें।" प्रत्युत, कृष्ण का उपदेश है कि, "मेरे संसार का विस्तार किया जाए।" अतः कृष्ण की इच्छा से, गुरुदेव इस भौतिक जगत में आते हैं और कृष्ण-संसार का विस्तार करते हैं। कृष्ण उनके शाश्वत स्वामी हैं। गुरुदेव ने अपना काय-मन-वाक्य (शरीर, मन और वाणी) पूर्ण रूप से कृष्ण की सेवा हेतु समर्पित कर दिया है। यही श्री-गुरु का कार्य हैं। जो जीव गुरु के चरण कमलों में शरण लेते हैं, गुरुदेव उन्हें कृष्ण-संसार में प्रवेशाधिकार देते हैं। गुरुदेव शिक्षा देते हैं, "मैं कृष्ण-संसार विस्तृत कर रहा हूँ, यहाँ सब कृष्ण सुख के लिए है। कृपया सभी कृष्ण-संसार में प्रवेश करें, तब आप माया जाल व भौतिक दुखों से मुक्त हो जाएंगे।"

 

आपको श्री-गुरु की शरण में जाना होगा

गुरुदेव किसी भी एकांत स्थान यथा राधा-कुंड या श्याम-कुंड पर एक कुटिया बनाकर भजन कर सकते हैं। लेकिन वे अन्यत्र, विशेष रूप से पाश्चात्य जगते में जहाँ माया अत्यंत प्रभावी है, अर्थात घोर भौतिकवादी लोगों के स्थान में क्यों जाते हैं? अपना एकांत वास त्यागकर वे पाश्चात्य जगत में इसलिए आते हैं क्योंकि जीवों की कष्टमयी स्थिति को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठता है। वे आपको हरि-भजन का अवसर प्रदान करते हैं। आपको कृष्ण का विस्मरण हो चुका है, वे आपकी चेतना पुनर्जीवित करने के लिए आते हैं। उन्होंने एक कारखाना (मंदिर) खोला है ताकि आप उसमें एक कर्मचारी (सेवक) बन सकें; अर्थात आप कृष्ण के संसार में प्रवेश कर सकें। कुछ लोग कह सकते हैं, "मैं (स्वतन्त्र रूप से) हरि-नाम कर रहा हूँ। मैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप कर रहा हूँ।" यद्यपि आप हरि-भजन  कर रहे होंगे, परन्तु जब तक आप कृष्ण-संसार में प्रवेश नहीं करते, तब तक ऐसे भजन का कोई मूल्य नहीं हैं। कृष्ण-संसार में प्रवेश करने के लिए आपको एक प्रामाणिक श्री-गुरु की शरण में जाना होगा। गुरुदेव सबको पुकार रहे हैं, "आओ! आओ! यहाँ विस्तृत कृष्ण-संसार में प्रवेश करो।" कृष्ण-संसार में प्रवेश किये बिना, आप अपराध रहित नाम जप नहीं कर सकते हैं। आपके लाखों नाम जप केवल अपराधयुक्त हैं, इसलिए आपके अनर्थ कभी नष्ट नहीं होंगें और आध्यात्मिक पथ पर कोई प्रगति नहीं हो सकती है। अनेक लोग स्वतंत्र जप कर रहे हैं, लेकिन उन्हें क्या लाभ मिल रहा है? क्या कोई वैकुंठ जा सकता है? नहीं। अतः गुरुदेव सिखाते हैं कि आपको गुरु-संसार अर्थात कृष्ण-संसार में प्रवेश करना चाहिए। आप एक सेवक हैं, आपको गुरु-गृह में सेवा करनी चाहिए। तभी आप भक्ति-पथ पर सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।

 

कृष्ण-सेवा-यज्ञ में सम्मिलित हों

गुरु-संसार में प्रवेश करके, आप क्या लाभ की अपेक्षा रखते हैं? स्वयं से कुछ भी अर्पित ना करके, क्या आप केवल लोभी बनना चाहते हैं? आपने पहले ही गुरु कृपा से बहुत कुछ प्राप्त किया है। परन्तु, जब तक आप सेवक के रूप में गुरु-गृह में सेवा नहीं करते हैं, तब तक कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए, गुरु आपको पुकारते हैं, "आइए और कृष्ण-संसार में प्रवेश कीजिए। कृपया कृष्ण-संसार से जुड़ें! आपके सभी अनर्थ नष्ट हो जाएंगे।" अपना शरीर, मन, वाणी और आत्मा, सब कुछ श्री-गुरु की सेवा में समर्पित कीजिए।

 

आप गुरु गृह में प्रविष्ट हुए हैं। गुरु ने एक कारखाना खोला है, आपको उस कारखाने में कर्मचारी बनना चाहिए। क्या कोई सरकार आपको इतना सुगम रोजगार दे सकती है? कदापि नहीं। केवल गुरुदेव ही आपको यह नियुक्ति प्रदान कर सकते हैं, जिसे कृष्ण-सेवा-यज्ञ कहा जाता है। कृष्ण की सेवा करना यज्ञ है, सेवा-यज्ञ। जब तक आप गुरु-गृह के सेवा-यज्ञ में सम्मिलित नहीं हैं, आप इस विधि का वास्तविक लाभ नहीं प्राप्त कर सकते हैं।

 

गौरसुंदर महाप्रभु स्वयं श्री-गुरु के माध्यम से यह शिक्षा देते हैं कि आपको सब कुछ, काय-मन-वाक्य, श्री-गुरु की सेवा में अर्पित करना चाहिए, तब पूर्ण सिद्धि निश्चित है। इस संसार में अनेक बाधाएँ हैं। भौतिक जगत, अर्थात प्रत्येक पद पर विपदा, लेकिन यदि आप अपने शरीर, मन और वाणी द्वारा पूर्ण रूप से शरणागत हो जाते हैं, तो सभी बाधाएँ और विघ्न क्षणभर में नष्ट हो जाएंगें और निस्संदेह आप इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त करेंगे। गुरु-कृपागुरु-सेवा के बिना, कोई भी कृष्ण को नहीं समझ सकता और न ही कृष्ण प्राप्ति कर सकता है, जो मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इसलिए हम प्रतिदिन श्री-गुरु-वंदना करते हैं,

 

श्री-गुरु-चरण-पद्म,

केवल-भक्ति-सद्म,

वंदो मुई सावधान मते

"हमारे आध्यात्मिक गुरु के चरण कमल ही एकमात्र साधन हैं जिससे हम शुद्ध भक्ति सेवा प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरण कमलों को विनम्रता और श्रद्धा के साथ नमन करता हूँ।"

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