श्रीगुरु का एकमात्र सुख

 

माता पिता युवतयस्तनया विभूतिः

सर्वं यदेव नियमेन मदन्वयानाम्।

आद्यस्य नः कुलपतेर्बकुलाभिरामं

श्रीमत्तदङ्घ्रियुगलं प्रणमामि मूर्ध्ना॥

मैं हमारी भक्ति परंपरा के समस्त पूर्ववर्ती आचार्यों के पवित्र और धन्य चरण-कमलों में, जो नवविकसित बकुल-पुष्पों की भाँति मनोहर हैं, विनम्रता पूर्वक अपना प्रणाम अर्पित करता हूँ। वे हमसे तथा हमारे पारिवारिक सदस्यों के साथ प्रेम और स्नेह के बंधन से नित्य युक्त हैं। अतः उनके चरण-कमलों को ही अपने माता, पिता, पुत्र, पत्नी और सम्पत्ति - अपने सर्वस्व रुप में स्वीकार करना चाहिए।

— स्तोत्र रत्नम् ५, श्री यमुनाचार्य

 

नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च।

जगत् हिताय कृष्णाय गोविंदाय नमो नमः॥

हे प्रभु! आप गौओं और ब्राह्मणों के परम हितैषी हैं, तथा आप सम्पूर्ण मानव समाज और इस जगत के कल्याणकर्ता हैं।” (विष्णु पुराण 1.19.65)

 

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते।

गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते॥

“हे कृष्ण! आप करुणा के सागर है। आप दीनों के सखा तथा जगत के स्वामी हैं। आप गोपियों के स्वामी तथा राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।”

 

तप्तकाञ्चनगौराङ्गी राधेवृन्दावनेश्वरी।
वृषभानुसुते देवी प्रणमामी हरिप्रिये॥

“मैं श्रीमती राधारानी के चरणों में सादर प्रणाम करता हूँ, जिनकी शारीरिक कांति पिघले स्वर्ण के सदृश सुनहरी है। आप वृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी हैं। आप वृषभानु महाराज की पुत्री और भगवान श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं।”

 

वृंदायै तुलसी देव्यै

प्रियायै केशवस्य च

कृष्ण-भक्ति-प्रदे देवी

सत्यवत्यै नमो नमः.

“मैं श्रीमती वृन्दादेवी, श्रीमती तुलसी महारानी को बारंबार प्रणाम करता हूँ, जो भगवान केशव (श्रीकृष्ण) को अत्यंत प्रिय हैं। हे देवी! आप श्रीकृष्ण की भक्ति प्रदान करने वाली परम सत्य स्वरूपा हैं।”

 

वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिंधुभ्य एव च।

पतितानाम् पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः

“मैं भगवान के उन समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ जो सब की इच्छा को पूर्ण करने वाले कल्पतरु के सामान है, दया के सागर है तथा पतितों का उद्धार करने वाले हैं”।

 

श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभू नित्यानंद

श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द॥

“मैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत आचार्य, श्री गदाधर पंडित, श्रीवास पंडित और महाप्रभु के सभी भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ।”

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥

 

आनन्द-लीलामय-विग्रहाय,

हेमाभदिव्यच्छविसुन्दराय।

तस्मै महाप्रेमरस-प्रदाय,

चैतन्यचन्द्राय नमो नमस्ते॥

“हे चैतन्यचंद्र! आप अलौकिक आनन्दमय लीलाओं की प्रतिमूर्ति हैं। आपका वर्ण पिघले सोने के सदृश देदीप्यमान है और आप श्रीकृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण करते हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।” (चैतन्य चंद्रामृत 11)

 

आध्यात्मिक गुरु दुखी जीवों के उद्धार हेतु आते हैं

श्री-गुरु, पतित जीवों के उद्धार हेतु, करुणावश इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं।

 

महान्त- स्वभाव एइ तारिते पामर

निज कार्य नाहि तबु यान तार घर

“सारे सन्त पुरुषों का कार्य है कि वे पतितों का उद्धार करते हैं। इसलिए वे लोगों के घरों में जाते हैं, यद्यपि वहाँ उनका कोई निजी कार्य नहीं रहता है”। (चैतन्य-चरितामृत मध्य-लीला 8.39)

 

यह साधु का स्वभाव है कि वे पतित और दुखी जीवों के उद्धार हेतु इस जगत में आते हैं, अन्यथा उनका कोई व्यक्तिगत प्रयोजन नहीं होता है। अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य, अहैतुकी दयावश महात्मागण बद्ध और दुःखी जीवों के उद्धार हेतु इस जगत में अवतरित होकर विचरण करते हैं। वैष्णव परदुःख-दुःखी, जीवों को जन्म-जन्मांतर से कष्ट पाते देखकर वैष्णवों का हृदय व्यथित हो जाता है। वैष्णव साधु का ऐसा ही स्वभाव होता है क्योंकि वे भगवान श्रीकृष्ण के साथ अपने शाश्वत संबंध में स्थित रहते हैं। सेइ तो संबंधे, संबंध आमार, हमारा एकमात्र संबंध श्रीकृष्ण से है। सभी जीव कृष्ण के अंश हैं। परन्तु बद्ध जीव इस सम्बन्ध को भूल गया है। हम वास्तव में कौन हैं? हमारी वास्तविक स्थिति क्या है? हमारा भगवान के साथ शाश्वत संबंध क्या है? उस संबंध को पुनः कैसे स्थापित किया जा सकता है? ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः, अर्थात् प्रत्येक जीव परमात्मा का ही अंश है। इन्हीं विषयों का स्मरण कराने हेतु साधु, महात्मा, वैष्णव गुरु इस संसार आते हैं।

 

प्रत्येक जीव कृष्ण से सम्बंधित है

इस प्रकार, साधु प्रत्येक जीव का कृष्ण से शाश्वत सम्बंध देखते हैं। परंतु, जीव ने उस संबंध को भुला दिया है। यही बात साधु को अत्यंत दु:ख देती है। यदि आपका कृष्ण के प्रति प्रेम है, तभी आपका सभी जीवों से वास्तविक प्रेम हो सकता है। प्रत्येक जीव कृष्ण का अंश है। साधु इसी प्रकार सोचते हैं, 'ओ, यह जीव मेरे प्राणप्रिय कृष्ण का अंश है'। अतः वैष्णव साधु सबको प्रेम करते हैं। वास्तविकता यह है कि जब तक आप कृष्ण से प्रेम नहीं करते है, आप किसी से भी प्रेम नहीं कर सकते हैं। आपका तथाकथित प्रेम वास्तविक प्रेम नहीं है, यह कृत्रिम, अस्थायी एवं स्वार्थ युक्त है।

 

साधु सांसारिक द्वंद्व से मुक्त होते हैं

यह भौतिक संसार द्वंद्व या द्वैत भाव से युक्त है। कोई आपका प्रिय है, तो कोई अप्रिय। कोई आपका मित्र है, तो कोई शत्रु। परन्तु, ते द्वंद्व-मोह-निर्मुक्ताः, जो इस द्वैत भाव से रहित हैं, वे ही वास्तविक साधु या महात्मा हैं। साधु का न तो कोई प्रिय होता है और न अप्रिय। उनकी दृष्टि में प्रत्येक जीव भगवान कृष्ण से सम्बंधित है, और चूँकि कृष्ण उनको अत्यंत प्रिय हैं, इसलिए प्रत्येक जीव उन्हें अत्यंत प्रिय होता है। साधु स्वयं इस सिद्धांत का अपने निजी जीवन में पालन करते हैं और अपने व्यवहारिक आचरण एवं उदाहरण द्वारा अन्यों को शिक्षा देते हैं। महाप्रभु का सिद्धांत है, आपनि आचरि धर्म जिवेरे सिखाय, अर्थात्, पहले स्वयं इस भगवत-धर्म का आचरण कीजिए, तदुपरांत दूसरों को सिखाइए। केवल सैद्धांतिक उपदेश प्रभावी नहीं होता है।

 

एक आत्मा का उद्धार करना दुःसाध्य कार्य है

एक साधु-वैष्णव द्वारा इस संसार में शिष्य स्वीकार करना, कोई सहज कार्य नहीं है। माया  देवी के दुर्ग से एक जीव को मुक्त कराना, अत्यंत कठिन है। गुरु को सैकड़ों लीटर आध्यात्मिक रक्त बहाना पड़ता है। इसीलिए कहा जाता है कि गुरु और शिष्य का संबंध एकपक्षीय न होकर पारस्परिक होना चाहिए।

 

आध्यात्मिक गुरु प्रेम-भक्ति सूत्र के साथ अवतरित होते हैं

गुरु इस भौतिक जगत में एक रज्जु लेकर आते हैं। इस रज्जु का एक सिरा गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के चरण-कमलों से बंधा होता है, और दूसरा सिरा लेकर गुरु इस संसार में आते हैं। इस रज्जु को प्रेम-भक्ति-सूत्र कहा जाता है। हम श्री गुरु-वंदना में गाते हैं -प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते। गुरु प्रेम-भक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। जब तक जीव के हृदय में प्रेम-भक्ति विकसित नहीं होती, तब तक अज्ञान का कुछ अंश सदैव विद्यमान रहता है। कृष्ण इस प्रेम-भक्ति से बँध जाते हैं।

 

एक प्रामाणिक गुरु प्रेम-भक्ति में स्थित होता है

कृष्ण-सूर्य-सम, माया हय अन्धकार

याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार॥

"कृष्ण सूर्य के समान तेजस्वी हैं। सूर्य के उदय होते ही अंधकार या अज्ञान के रह पाने का प्रश्न ही नहीं उठता।" (चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला 22.31)

 

जैसे ही कोई व्यक्ति कृष्ण-चेतना को अपनाता है, मायिक अज्ञान रूपी अंधकार तुरंत नष्ट हो जाता है। कृष्ण आध्यात्मिक सूर्य हैं और माया अंधकार है। अज्ञानता ही अंधकार है और ज्ञान द्वारा प्रबोधन प्रकाश है। अतः यदि आप कृष्ण को प्राप्त कर लेते हैं, तब माया के रहने का प्रश्न ही नहीं रहता। परंतु प्रेम के बिना कृष्ण को प्राप्त नहीं किया जा सकता है? क्योंकि कृष्ण तो केवल प्रेम-बंधन में ही बंधते हैं।

 

प्रमाणिक गुरु प्रेम-भक्ति में स्थित होते हैं। उन्होंने कृष्ण के प्रति प्रेम विकसित कर लिया है और अपने हृदय में कृष्ण को प्रेम-रज्जु से बाँध लिया है।

 

कृष्ण को प्रेम से बाँध लो

 

भक्त आमा प्रेमे बान्धियाछे हृदय - भितरे।

याहाँ नेत्र पड़े ताहाँ देखये आमारे॥

“अति उन्नत भक्त मुझ भगवान् को प्रेम द्वारा अपने हृदय में बाँध सकता है। वह जहाँ भी देखता है, मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं देखता।” (चैतन्य-चरितामृत, मध्‍य-लीला 25.127)

 

यह स्वयं भगवान का कथन है। इस प्रेम-बंधन को खंडित करने का सामर्थ्य कृष्ण में नहीं है। यह बंधन इतना दृढ़ है कि सर्वशक्तिमान, सर्व सामर्थ्यवान भगवान कृष्ण भी कहते हैं, “मैं इस प्रेम-बन्धन को नहीं तोड़ सकता हूँ।” शुद्ध भक्त का प्रेम ऐसा होता है। अतः ऐसा शुद्ध प्रेम विकसित कर लेने के उपरांत ही आप कृष्ण को प्राप्त कर सकते हैं और तब अज्ञान या अन्धकार का कोई प्रश्न ही शेष नहीं रह जाएगा। इसके अतिरिक्त अज्ञानता से मुक्त होने का अन्य कोई उपाय नहीं है।

 

जब कृष्ण गौर रूप में आते हैं

महाप्रभु अद्भुत करुणामय (अद्भुत-कारुण्य) तथा अद्भुत उदार (अद्भुत-वदान्य) हैं। वे पवित्र नाम जप के माध्यम से बिना किसी भेदभाव के सभी को निःशुल्क कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं। गौरांग महाप्रभु और कृष्ण में कोई भेद नहीं है। कृष्ण ही गौर हैं और गौर ही कृष्ण। किन्तु जब कृष्ण गौर रूप में प्रकट होते हैं, तो वे भक्त-भाव धारण करके भक्त के रूप में आते हैं। यद्यपि वे विषय-विग्रह हैं, परन्तु अद्भुत, असीम करुणा से युक्त होकर वे आश्रय-विग्रह के रूप में प्रकट होते हैं । वे अद्भुत-औदार्य है। यही एकमात्र भेद है। कृष्ण में गौर जैसी करुणा और उदारता नहीं है। गौर कृष्ण प्राप्ति का साधन स्वरूप, कृष्ण-प्रेम, का स्वेच्छा से वितरण करते हैं। यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है और इसके द्वारा हम अपना जीवन निश्चित रूप से सफल बना सकते हैं।

 

श्री गुरु का एकमात्र सुख

अत: श्रीगुरु शिष्य स्वीकार करते हैं और प्रेम-भक्ति-सूत्र का दूसरा सिरा उसके हाथ में सौंप देते हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य होता है कि शिष्य प्रेम विकसित करें, कृष्ण को प्राप्त करें और अपना जीवन सफल बनाएं। जब गुरु देखते हैं कि उनके एक या दो शिष्य प्रेम-भक्ति के इस मार्ग पर प्रगति कर रहे हैं, तो वे अति प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं "मेरा उद्देश्य पूर्ण हो गया, मिशन सफल हो गया।" अन्यथा, जब कोई भी शिष्य प्रगति नहीं करता है, अपितु और भी पतित हो जाता है, तो गुरु अत्यन्त दुखी और व्यथित होते हैं। उनके अन्तः हृदय की व्यथा या पीड़ा की आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आपको गुरु की इस पीड़ा को समझना होगा। भक्ति में प्रगति करना अत्यंत गंभीर विषय है, इसे सहज मानोभाव, अथवा कृत्रिम भाव से स्वीकार नहीं करना चाहिए। यह गंभीर साधक के लिए अति आवश्यक है। यह कोइ साधारण बात नहीं, अपितु अत्यन्त गंभीर विषय है। जैसे माता-पिता बच्चे को अपना रक्त और जीवन देते हैं, वैसे ही आध्यात्मिक गुरु भी अपने रक्त से शिष्य का पोषण करते हैं। अपने शिष्य को प्रेम-भक्ति के मार्ग पर प्रगति करते देखना ही उनकी एकमात्र प्रसन्नता है। यही उनका एकमात्र सुख है। कृष्ण-प्रेम और कृष्ण की प्राप्ति अत्यंत अद्भुत है! आप जन्म और मृत्यु के चक्र में असंख्य जन्मों से विभिन्न योनियों में भ्रमण कर रहे हैं। किंतु यह आपका अंतिम जन्म होना चाहिए। अतः इस विषय पर गहराई से चिंतन करें और गंभीरता पूर्वक इस पथ को स्वीकार करें। यही गुरु को सुख प्रदान करता है।

 

सौभाग्य क्या है?

आप साधु–गुरु के उपकार का कभी प्रतिदान नहीं कर सकते हैं। आप असंख्य जन्मों से दु:ख भोग रहे है:

 

ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव।

गुरुकृष्ण - प्रसादे पाय भक्तिलता - बीज॥

“लाखों-लाखों योनियों में भटकते हुए और असंख्य ब्रह्माण्डों में घूमते हुए, जब किसी जीव का सौभाग्य उदित होता है, तब उसे साधु-संग प्राप्त होता है” (चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला 19.151)

 

प्रत्येक जीव अपने कर्मानुसार इस ब्रह्माण्ड में भटक रहा है। कोई उच्च लोकों में तो कोई निम्न लोकों में जन्म प्राप्त करता है। इस प्रकार असंख्य भ्रमणशील जीवों में से कोई अत्यंत भाग्यवान जीव ही कृष्ण की अहैतुकी कृपा से एक प्रामाणिक गुरु का सानिध्य प्राप्त करता है। तत्पश्चात, गुरु और कृष्ण की कृपा से वह जीव भक्ति–लता का बीज प्राप्त करता है।

 

एक बद्ध आत्मा जो गुरु का संग प्राप्त करता है, वह अत्यंत भाग्यवान जीव है। इंग्लैंड की महारानी अथवा किसी देश के प्रधानमंत्री अथवा अन्य किसी वैभवशाली व्यक्ति से मिलकर कुछ भौतिक लाभ प्राप्त करना वास्तविक सौभाग्य नहीं है। इससे केवल क्षणिक भौतिक इच्छाओं की पूर्ति होती हैं। परन्तु इसके उपरांत भी आप दुखी ही रहेंगे। परन्तु गुरु का संग प्राप्त कर आप पूर्ण सुखी हो जायेंगे। यही वास्तविक सौभाग्य है और इसी सौभाग्य की आवश्यकता है। यह क्षणिक भौतिक सुख नहीं है जिसका परिणाम सदा अपरिमित दुःख होता है। अपितु यह शाश्वत सुख है। इसमें दुःख का लेश भी नहीं है। सद्गुरु से भेंट पूर्णतः आध्यात्मिक, और सर्वोत्तम सौभाग्य है। गुरु का यही अभिलाष होता है कि उनका शिष्य भक्ति में उन्नति करें और उन्हें परम आध्यात्मिक आनंद प्रदान करें। अतः मेरी भी यही अभिलाषा है कि आप सभी प्रेम-भक्ति के मार्ग पर अग्रसर हों। इसी में मेरी प्रसन्नता है।

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