साधु-गुरु कृपा हि संबल

 

 

वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम् ।

गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयो: पतित: पथि ॥

“राजा वृषपर्वा समझ गया कि शुक्राचार्य उसे प्रताड़ित करने या शाप देने आ रहे हैं। फलस्वरूप, इसके पूर्व कि शुक्राचार्य उसके महल में आयें, वृषपर्वा बाहर आ गया और मार्ग में ही अपने गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। इस प्रकार उनके रोष को रोकते हुए उन्हें प्रसन्न कर लिया।” (श्रीमदभागवतम ९.१८.२६)

 

क्षणार्धमन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गव: ।
कामोऽस्या: क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥ 

“शक्तिशाली शुक्राचार्य कुछ क्षणों तक क्रुद्ध बने रहे, किन्तु प्रसन्न हो जाने पर उन्होनें वृषपर्वा से कहा: हे राजन, देवयानी की इच्छा पूरी कीजिये क्योंकि वह मेरी पुत्री है और मैं इस संसार में न तो उसे छोड़ सकता हूँ न उसकी उपेक्षा कर सकता हूँ।” (श्रीमदभागवतम ९.१८.२७)

 

कभी-कभी शुक्राचार्य जैसे महापुरुष अपने पुत्र-पुत्रियों की उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकि पुत्र-पुत्रियाँ सहज रूप से पिता पर आश्रित रहती हैं और पिता का उन पर स्नेह होता है। यद्द्यपि शुक्राचार्य जानते थे कि देवयानी तथा शर्मिष्ठा का झगड़ा बचकाना है लेकिन देवयानी के पिता के रूप में उन्हें अपनी पुत्री का पक्ष लेना पड़ रहा था। यद्द्यपि वे ऐसा करना नहीं चाहते थे, किन्तु स्नेहवश विवश थे। उन्होंने यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उन्हें राजा की कृपा की याचना नहीं करनी चाहिए थी, किंतु पुत्री-स्नेह के कारण वे ऐसा करने से अपने को बचा नहीं पाए। (श्रीमदभागवतम ९.१८.२७, तात्पर्य)

 

भौतिक आसक्ति अत्यंत प्रबल होती है

यह भौतिक स्नेह (सांसारिक मोह) अत्यंत प्रबल होता है। इससे बच पाना सरल नहीं है। जब शुक्राचार्य जैसे महान व्यक्तित्व भी इससे प्रभावित हो सकते हैं, तो सामान्य जन के बारे में क्या कहा जाए?

 

पुंस: स्त्रिया मिथुनीभावमेतं तयोर्मिथो हृदयग्रन्थिमाहु:।
अतो गृहक्षेत्रसुताप्तवित्तै-र्जनस्य मोहोऽयमहं ममेति॥

“स्त्री तथा पुरुष के मध्य का आकर्षण भौतिक अस्तित्व का मूल नियम है। इस भ्रांत धारणा के कारण स्त्री तथा पुरुष के हृदय परस्पर जुड़े रहते हैं। इसी के फलस्वरूप मनुष्य अपने शरीर, घर, संतान, स्वजन तथा धन के प्रति आकृष्ट होता है। इस प्रकार वह जीवन के मोह को बढ़ाता है और मैं तथा मेरा के रूप में सोचता है।” (श्रीमदभागवतम ५.५.८)

 

आप पूर्ण वैराग्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

भागवत के पंचम स्कंध में कहा गया है -अतो गृह-क्षेत्र-सुताप्त-वित्तैः अर्थात् "मेरा घर, मेरा धन, मेरे अनुयायी, मेरी सम्पत्ति, मेरी पत्नी, मेरा पुत्र, मेरा यश, मेरा भाई, मेरे मित्र, मेरे परिजन, मेरी जाति, मेरा वंश, मेरा देश।" यह “मेरा, मेरा, मेरा…” का भाव अत्यंत गहन और मोहग्रस्त होता है। इसे त्याग पाना कठिन है। यहाँ पर वर्णन है कि इस सत्य से भलीभाँति विज्ञ स्वयं शुक्राचार्य जैसे महाज्ञानी भी इसे त्याग नहीं सके। तो फिर कोई सामान्य व्यक्ति इसे त्याग कर पूर्ण वैराग्य कैसे प्राप्त कर सकता है? अथवा कैसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविंद में अनन्य भक्ति उत्पन्न हो सकती है? इस दुरन्त मोह को हम कैसे त्यागें?

 

आपको यह दुर्लभ मानव जन्म क्यों मिला है?

 

कि रूपे पाइब सेवा, मुइ दुराचर

श्री-गुरु-वैष्णवे रति न हइला आमार

(प्रार्थना ४६)

“मैं अत्यंत दुष्ट, मूढ़, और दुराचारी हूँ। मैंने सहस्रों बार, असंख्य निरर्थक कर्म किए हैं। हे प्रभु! मैं आपके चरणों में अनुरक्ति कैसे विकसित कर सकता हूँ? मैं आपकी सेवा कैसे करूँ? मेरा तो आपके सुन्दर चरणों में तनिक भी आकर्षण नहीं है। मेरी आसक्ति इस देह, गेह, कलत्र (पत्नी, पुत्र, पुत्री) इत्यादि में है। यह आसक्ति शक्तिशाली श्लेष (गोंद) की भाँति अत्यंत प्रबल है।”

 

मनुष्य को केवल श्रीकृष्ण के चरणकमलों में ही अनुरक्ति विकसित करनी चाहिए। श्रीकृष्ण ही एकमात्र प्रेम के विषय हैं। परन्तु, हमने इस तुच्छ, क्षणिक देह और इसके सम्बन्धियों के प्रति प्रेम और स्नेह विकसित किया है। तब आप कृष्णदास कैसे बन सकते हैं? भक्ति कैसे विकसित कर सकते हैं? दुर्लभ मानव का एकमात्र उद्देश्य भक्ति है। क्या भगवान ने यह अत्यंत दुर्लभ जन्म मल खाने के लिए दिया है? अगर ऐसा है, तो सूअर या कुत्ते का जन्म ही उचित था। फिर यह मनुष्य का जन्म क्यों मिला?

भक्त: प्रेम-भक्ति विकसित करने के लिए।

 

मैं कृष्ण दास कैसे बन सकता हूँ?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: इस मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति विकसित करना है। परंतु मैं तो ऐसा दुर्बुद्धि, दुराचारी मूर्ख हूँ कि सदा निरर्थक कर्मों में ही लिप्त रहता हूँ। मेरी भगवान के चरणों में कोई अनुरक्ति नहीं है, तो फिर मैं कृष्ण दास कैसे बन सकता हूँ?

 

श्रीगुरु-वैष्णव की कृपा से

"श्रीगुरु-वैष्णवे रति न हइला आमार" — जो भगवान की प्रेममयी सेवा में, अहर्निश, चौबीसों घंटे निमग्न रहते हैं, वही श्रीगुरु-वैष्णव हैं। उन्हें इस जड़ शरीर और इसके संबंधियों से रंचमात्र भी आसक्ति नहीं होती है। उनकी एकमात्र आसक्ति श्रीकृष्ण के चरणकमलों में होती है। जब तक ऐसे श्रीगुरु-वैष्णव की कृपा प्राप्त न हो, तब तक भगवद-आसक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

 

श्रीकृष्ण से प्रार्थना करें

 

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा है:

विषये जे प्रीति एबे आछे आमार

सेइमत प्रीति हउक् चरणे तोमार ॥

(गीतावली ४.५)

“हे प्रभु! मैं एक विषयी, अति भौतिकवादी व्यक्ति हूँ। मुझे इंद्रिय-सुख की वस्तुओं यथा घर, परिवार, पत्नी, पुत्र और पुत्री इत्यादि में प्रबल आसक्ति है। आपके चरणकमलों में मेरा कोई आकर्षण नहीं है। कृपया, मेरी इस प्रबल भौतिक आसक्ति को आपके चरणों की ओर मोड़ दीजिए।”

 

गंभीर साधक को अन्तर्हृदय से श्रीकृष्ण के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए। भगवान कुछ भी करने में समर्थ हैं। वे असंभव को संभव और संभव को असंभव कर सकते हैं। भगवान् के सम्मुख क्रंदन और कृपा याचना कीजिए। यही श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी की शिक्षा है।

 

विपदे संपदे तथा ठाकुक समभावे

दिनेदिने वृद्धि हऊक नामेर प्रभावे

(गीतावली ४.६)

"हे प्रभु! जीवन की हर परिस्थिति विपत्ति-संपत्ति में मेरा आपके चरणों में आकर्षण समभाव से बना रहे। मेरा मन सदैव आपकी ओर स्थिर और समर्पित बना रहे। दिनेदिने वृद्धि हऊक नामेर प्रभावे- दिन-प्रतिदिन यह आकर्षण, आपके पवित्र नाम के प्रभाव से वृद्धि को प्राप्त हो।" हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। यही प्रार्थना करनी चाहिए है।

 

कृपया मुझे अनन्य भक्ति दें

पशु-पक्षी हो' ये ठाकि स्वर्गे वा निरये

तव भक्ति रहुक् भक्तिविनोद-हृदये

(गीतावली ४.७)

"मैंने अनगिनत अधम पाप कर्म किये हैं। अब उनके ही दुष्परिणाम मेरे समक्ष प्रस्तुत हो रहे हैं। परिणामस्वरूप पशु, पक्षी, कीट या जीवाणु इत्यादि योनियों में मेरा जन्म निश्चित है। चूँकि यह सब मेरे पूर्व जन्मों के प्रारब्ध कर्म है, अतः यह कर्म फल मुझे स्वीकार है।

 

एक शुद्ध वैष्णव कभी भगवान को कष्ट नहीं देता कि "कृपया मेरे कर्म फलों को नष्ट कर दीजिए।" अपितु वह कहता है "मेरे प्रारब्ध कर्मों के अनुसार, पशु, पक्षी, कीट इत्यादि योनियों में जन्म मुझे सहर्ष स्वीकार है।" स्वर्ग, नरक या कहीं भी रखिए, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मेरी तो बस एक ही प्रार्थना है। भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं "तव भक्ति रहुक् भक्तिविनोद-हृदये -हे प्रभु! बस मुझे आपकी अनन्य भक्ति दीजिए। मैं किसी भी योनि में रहूँ, अथवा किसी भी लोक में ही क्यों न रहूँ, मुझे केवल आपकी भक्ति चाहिए।" यही एकमात्र प्रार्थना शुद्ध वैष्णवों ने हमें सिखाई है।

 

एकमात्र उपाय क्या है?

 

श्रील नारोत्तम दास ठाकुर कहते है:

कि रूपे पाइब सेवा मुई दुराचर

श्रीगुरु-वैष्णवे रति न हइला आमार

(प्रार्थना ४६.१)

"जब तक श्रीगुरु-वैष्णवों के चरणों में आसक्ति नहीं होगी, जब तक उनकी कृपा नहीं प्राप्त होगी, तब तक श्रीकृष्ण के चरणों में आसक्ति उत्पन्न हो पाना असंभव है ।"

 

श्रीकृष्ण के चरणों में प्रेम और आसक्ति विकसित करने का एकमात्र उपाय श्रीगुरु-वैष्णवों के चरणों में गहन आसक्ति है। अतः भौतिक बंधनों को विछिन्न करने के लिए, संसार से पूर्णतया मुक्त होने के लिए, और भौतक संबंधो के प्रति आकर्षण से मुक्त होने के लिए श्रीगुरु-वैष्णव के चरणों में पूर्ण आसक्ति विकसित करनी चाहिए। श्रीमद्भागवत में वर्णन है:

 

प्रसङ्गमजरं पाशमात्मन: कवयो विदु: ।

स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ॥

“प्रत्येक विद्वान् व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि सांसारिक आसक्ति ही आत्मा का सबसे बड़ा बन्धन है। किन्तु वही आसक्ति यदि स्वरूपसिद्ध भक्तों के प्रति हो जाय तो मोक्ष का द्वार खुल जाता है।” (श्रीमदभागवतम ३.२५.२०)

 

यही एकमात्र उपाय है। अन्यथा हम कृष्ण-दास नहीं बन सकते हैं। केवल माया-दास बने रहेंगे।

 

श्रीगुरु-वैष्णव के चरणों में शरणागति

केवल एक ही मार्ग है — श्रीगुरु-वैष्णव के चरणों में पूर्ण शरणागति। उनकी कृपा से ही श्रीकृष्ण के चरणों में आसक्ति विकसित होगी। अन्यथा कोई संभावना नहीं है।

 

श्रील नारोत्तम दास ठाकुर आगे कहते हैं:

अशेष माया ते मन मगन हेला

वैष्णव ते लेश मात्र रति न जनमिला

"मेरा मन हमेशा माया में निमज्जित रहता है। मुझमें वैष्णवों के प्रति लेशमात्र भी रति उत्पन्न नहीं हुई है।" (प्रार्थना ४६.२)

 

श्रीगुरु-वैष्णवों के चरणों में मेरी लेशमात्र भी भक्ति नहीं है, फिर श्रीकृष्ण के चरणों में भक्ति कैसे उत्पन्न होगी? अर्थात मेरे भीतर कृष्ण भक्ति उत्पन्न होने की कोई आशा नहीं है। कोई आशा नहीं है, कोई आशा नहीं है!

 

साधु की दृष्टि

 

विषये भूलिया अंध हइनु दिबा-निशि

गले फाँस दिते फिरे माया से पिशाचि

"मैं दिन-रात विषयों में ही लीन होकर अंधा हो गया हूँ। यह मायारूपी पिशाचिनी ने मेरे गले में फाँसी का फंदा डाल दिया है।" (प्रार्थना ४६.३)

 

 क्या तुम दृष्टिहीन हो?

भक्त: मै अंधा हूँ।

श्रील गौर गोविंद महाराज: [अन्य भक्तों से] और तुम? क्या तुम भी अंधे हो? वह भी अंधा है। अच्छी बात है कि तुम स्वीकार कर रहे हो। अतः सुधार की सम्भावना है। कम से कम उन्हें विदित है कि वे अंधे हैं। अनेक लोग वास्तव में अंधे हैं, परन्तु फिर भी स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं —"क्या कहा? मैं अंधा हूँ? तू अंधा है! मेरी दृष्टि ठीक हैं। मूर्ख, मुझे अंधा कहता है, मैं तुझे जूते से मारूँगा!" वे क्रोधित हो जाते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि वे वास्तव में अंधे हैं। अब प्रश्न यह है कि वास्तविक दृष्टि क्या है? कौन वास्तव में देख सकता है?

भक्त: एक आत्मसाक्षात्कारी साधु।

श्रील गौर गोविंद स्वामी: साधु? साधु की दृष्टि कैसी होती है?

भक्त: प्रेमाञ्जन-छुरित-भक्ति-विलोचनेन

श्रील गौर गोविंद स्वामी: प्रेमाञ्जन-छुरित-भक्ति-विलोचनेन। यदि आप सर्वत्र श्यामसुंदर श्रीकृष्ण के दर्शन करते हैं, तब आपकी दृष्टि सही है। भौतिक उन्मुखी दृष्टि वास्तव में अंधापन है। इसलिए नारोत्तम दास ठाकुर ने गाया है —"विषये भूलिया अंध हइनु दिबा-निशि। मैं एक महा भौतिकतावादी व्यक्ति हूँ। मुझे इस नश्वर शरीर, इसके संबंधियों और विषयभोग की वस्तुओं से गहन आसक्ति है। मैं दिन-रात तुच्छ, निरर्थक कर्मों में लीन रहता हूँ। हे कृष्ण! मैं आपको पूर्णतः भूल गया हूँ। गले फाँस दिते फिरे माया से पिशाचि। मै केवल कुरूप पिशाचिनी माया के ही दर्शन करता हूँ। हे श्यामसुंदर! मैं आपकी मधुर छवि का दर्शन नहीं कर पाता हूँ क्योंकि मैं -प्रेमाञ्जन-छुरित-भक्ति-विलोचननेन - दृष्टि से रहित हूँ। माया पिशाचिनी मेरे ग्रीवा में फंदा डालकर मुझे इधर-उधर खींचती रहती है”।

 

साधु-गुरु की कृपा के बिना कोई भी माया को नहीं जीत सकता

 

मायारे करिया जयछाडन ना जाय

साधु-गुरु कृपा बिना नाहिक उपाय

“यदि मैं अपने अंधेपन को दूर भी कर लूँ और मायारूपी जल्लाद को पराजित भी कर दूँ, तब भी मैं साधु-गुरु और संतों की कृपा के बिना माया से मुक्त नहीं हो सकता हूँ।”

 

साधु-गुरु की कृपा के बिना कोई भी माया को पराजित नहीं कर सकता है। भगवद्गीता (७.१४) में श्रीकृष्ण कहते हैं: दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। यह त्रिगुणमयी (सत्त्व, रज और तम) माया अत्यंत बलशाली है। तो फिर प्रश्न उठता है —ऐसी प्रबल माया को जीतने का उपाय क्या है?

मायाधीश श्रीकृष्ण कहते हैं: माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते अर्थात जो मेरी शरण में आते हैं, वे सहज ही इस माया को पार कर लेते हैं।

 

भगवद्गीता में अन्यत्र भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। प्रकृति, अर्थात यह भौतिक सृष्टि अथवा माया, मेरी अधीनता में कार्य करती है। अतः भाग्यशाली और विवेकी जीव जो मायाधीश श्रीकृष्ण के चरणों में पूर्णतया शरणागत है, केवल वे ही माया को जीत सकते हैं। परंतु, साधु-गुरु की कृपा के बिना, कोई कृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण कैसे कर सकता है? साधु-गुरु-वैष्णव पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण को समर्पित होते हैं। अतः केवल वे ही श्रीकृष्ण के चरणों में पूर्ण शरणागति सिखा सकते हैं। इसलिए, जब तक आप साधु-गुरु-वैष्णव को अपना आचार्य स्वीकार नहीं करते हैं, तब तक आप कृष्ण के प्रति समर्पित नहीं हो सकते हैं - साधु-गुरु कृपा विना नाहिक उपाय। इसलिए, प्रथम सोपान साधु-गुरु की शरण में आत्मसमर्पण है।

 

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥

भगवद्गीता (४.३४)

यही साधन है —प्रणिपात, परिप्रश्न सेवा —आत्मसमर्पण, विनम्र जिज्ञासा और सेवा। श्रीकृष्ण के परम प्रिय भक्त, साधु-गुरु, श्रीचैतन्य महाप्रभु के अत्यंत प्रिय सेवक, गौर-प्रिय-जन के चरणों में स्वयं को समर्पित कर दो - प्रणिपातशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् —हे गुरुदेव, मैं अब आपका शिष्य बन गया हूँ। ‘शिष्य’ का अर्थ है जो गुरु के अनुशासन में है।

 

गोपीनाथ को प्रार्थना

महाजन-साधु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने हमारे कल्याण हेतु गोपीनाथ के चरणों में एक अत्यंत मार्मिक प्रार्थना अर्पित की है। यह प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। अतः सबको यह प्रार्थना अर्पित करनी चाहिए –

 

गोपीनाथ, केमने शोधिबे मोरे।
ना जानि भकति, कर्मे जड़-मति,
पड़ेछि संसार-घोरे॥३॥

“हे गोपीनाथ! मेरा शोधन कैसे होगा? मुझे भक्ति का ज्ञान नहीं हैं। मेरा चित्त तो केवल भौतिक कर्मों में आसक्त है। मेरी दशा यह कि मैं इस भयानक संसार रूपी अंधे कुएँ में गिर चुका हूँ।”

 

गोपीनाथ, सकलि तोमार माया।
नाहि मम बल, ज्ञान सुनिर्मल,
स्वाधीन नहे ए काया॥४॥

“हे गोपीनाथ! यह संपूर्ण जगत आपकी अस्थायी मायाशक्ति से निर्मित है। यह शरीर भी उसी का अंश है और प्रकृति के कठोर नियमों के अधीन है। ऐसे जड़ शरीर में बद्ध होकर मैं पूरी तरह पराजित हो चुका हूँ और समस्त दिव्य ज्ञान से रहित हूँ”।

 

गोपीनाथ, नियत चरणे स्थान।
मागे ये पामर, काँदिया-काँदिया,
करह करुणा दान॥५॥

“हे गोपीनाथ! यह पामर बार-बार रोते हुए, आपके चरणों में नित्य निवास की याचना करता है। कृपया, इस पतित जीव पर कृपा कीजिये।”

 

गोपीनाथ तुमि त’सकलि पारो।
दुर्जने तारिते, तोमार शकति,
के आछे पापीर आरो॥६॥

“हे गोपीनाथ! आप सर्वशक्तिमान परम भगवान् हैं। आप समस्त नियमों को पलट सकते हैं। आप असंभव को संभव और संभव को असंभव कर सकते हैं। केवल आप ही दुर्जन पापियों का उद्धार कर सकते हैं। मैं सबसे बड़ा महान पापी हूँ।”

 

गोपीनाथ, तुमि कृपा-पाराबार।
जीवेर कारणे, आसिया प्रपन्चे,
लीला कैले सुविस्तार॥७॥

“हे गोपीनाथ! आप असीम अनुग्रह के सागर हैं। केवल पतित जीवों पर दया करने के लिए ही आप इस भौतिक-जगत में प्रकट होते हैं और अनेकों मधुर लीलायें करते हैं।”

 

गोपीनाथ, आमि कि दोषे दोषी।
असुर सकल, पाइल चरण,
विनोद थाकिल बोसि’॥८॥

“हे गोपीनाथ! मैं समस्त पापिओं में कितना बड़ा पापी हूँ? अनेकों असुर भी आपके चरणों को प्राप्त कर चुके हैं, परन्तु भक्ति-विनोद अभी भी इस संसार में निबद्ध है।”

 

गोपीनाथ - भाग २

गोपीनाथ, घुचाओ संसार ज्वाला।
अविद्या-यातना, आर नाहि सहे,
जनम-मरण-माला॥१॥

“हे गोपीनाथ! इस संसार- ज्वाला का शमन कीजिये। अविद्या ग्रस्त जन्म और मरण की यातना अब असहनीय हो गई है। इसे एक क्षण भी सहना असंभव है।”

 

श्रील गौर गोविन्द स्वामी: मैं इस भयानक भौतिक सागर में गिर चुका हूँ। इसलिए मैं तीनों प्रकार के तापों — आध्यात्मिक, आधिदैविक, और आधिभौतिक — से संतप्त होकर जल रहा हूँ। यह ज्वाला अत्यंत तीव्र है। मैं एक तप्त पात्र में पड़ा हुआ हूँ। क्या आप भी यह अनुभूति कर रहे हैं?

 

गोपीनाथ, आमि त’कामेर दास।

विषय वासना, जागिछे हृदये,

फाँदिछे करम फाँस॥२॥

“हे गोपीनाथ! मैं तो काम का निष्ठावान दास हूँ। निरंतर इंद्रिय सुख की वासनाएँ मेरे हृदय में उठ रही हैं, और यह कर्म का फंदा मुझे जकड़ चुका है।”

 

गोपीनाथ! कबे वा जागिब आमि।

कामरूप अरि, दूरे तेयागिब,

हृदय स्फुरिबे तुमि॥३॥

गोपीनाथ! कब मैं इस सबसे दुर्जय काम रूपी शत्रु का नाशकर वास्तव में जागृत हो पाऊँगा? यह केवल तभी संभव है जब आप कृपा करके मेरे हृदय में स्वयं प्रकट होंगे।

 

गोपीनाथ, आमि त तोमार जन।

तोमारे छाड़िया, संसार भजिनु,

भुलिया आपन-धन॥४॥

“हे गोपीनाथ! मैं तो आपका नित्य दास हूँ, फिर भी मैं आपको भूलकर इस मिथ्या संसार की सेवा कर रहा हूँ। इस प्रकार मैं अपने ही वास्तविक जन्मजात धन आपकी भक्ति को भूल गया।”

 

गोपीनाथ, तुमि त’सकलि जान।

आपनार जने, दन्डिया एखन,

श्रीचरणे देह स्थान॥५॥

 “हे गोपीनाथ! आप सर्वज्ञ हैं। यदि आप चाहें तो इस अपराधी सेवक को दंड दें, पर कृपा करके अपने पवित्र चरणों के पास स्थान अवश्य दें।”

 

गोपीनाथ, एइ कि विचार तव।

विमुख देखिया, छाड़ो निज-जने,

ना कर’ करुणा-लव॥६॥

“हे गोपीनाथ! क्या यही आपका मत है? क्या आप अपने ही नित्य सेवक को इस संसार में आपसे विमुख देखकर उसे त्याग देते हैं और एक बूँद भी करुणा नहीं प्रदान करते?”

 

गोपीनाथ, आमि त मूरख अति

किसे भाल हय, कभु ना बुझिनु,

ताह हेन मम गति॥७॥

“हे गोपीनाथ! निःसंदेह मैं महामूर्ख हूँ। अपने हित-अहित का भी मुझे ज्ञान नहीं है। यही मेरा दुर्भाग्य है।”

 

गोपीनाथ, तुमि त पंडितवर।

मूढ़ेर मंगल, तुमि अन्वेषिबे

ए दासे ना भाव’पर॥८॥

“हे गोपीनाथ! आप तो सर्वश्रेष्ठ पंडित हैं। अतः मेरा निवेदन है कि आप ही कृपा करके इस मूर्ख के कल्याणार्थ कोई उपाय खोजें। कृपया इस सेवक को पराया न समझें।”

 

गोपीनाथ - भाग ३

गोपीनाथ, आमार उपाय नाइ।

तुमि कृपा करि, आमारे लइले,

संसार उद्धार पाइ॥१॥

“हे गोपीनाथ! मुझे अपने उद्धार का कोई भी साधन नहीं सूझ रहा है। यदि आप अपनी अहैतुकी कृपा से मुझे भगवद धाम ले जाएँ, तो ही मैं इस संसार से उद्धार पा सकता हूँ।”

 

गोपीनाथ, पड़ेछि मायार फेरे।

धन, दारा सुत, घिरेछे आमारे,

कामेते रेखेछे जेरे॥२॥

 “हे गोपीनाथ! मैं माया के जाल में फँस चुका हूँ। धन, पत्नी, पुत्र इत्यादि ने मुझे कैद कर रखा है, और काम (वासना) की अग्नि में मुझे जला डाला है।”

 

गोपीनाथ, मन ये पागल मोर।

ना माने शासन, सदा अचेतन,

विषये रयेछे घोर॥३॥

 “हे गोपीनाथ! मेरा मन उन्मादी हो चुका है, यह किसी भी अधिकारी के अनुशासन को नहीं मानता, हमेशा अचेतन रहता है और घोर विषय-वासना में डूबा है।”

 

गोपीनाथ, हार ये मेनेछि आमि।

अनेक यतन, हइ विफल,

एखन भरसा तुमि॥४॥

 “हे गोपीनाथ! अब मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूँ। मेरे अब तक के समस्त प्रयास निष्फल हो गए हैं। अब केवल आप ही मेरी अंतिम आशा हैं।”

 

गोपीनाथ, केमने हइबे गति।

प्रबल इन्द्रिय बोशीभूत मन,

ना छाड़े विषय-रति॥५॥

“हे गोपीनाथ! मैं परम लक्ष्य (भगवद धाम) की ओर कैसे बढ़ूँ? मेरा मन पूर्ण रुप से अत्यंत प्रबल इंद्रियों के अधीन है और विषयासक्ति छोड़ने में असमर्थ हैं।”

 

गोपीनाथ, हृदये बसिया मोर।

मनके शमिया, लह निज पाने,

घुचिबे विपद घोर॥६॥

“हे गोपीनाथ! इस संसार में मैं जिस भयंकर संकट का सामना कर रहा हूँ, वह तभी शमित होगा जब आप कृपा करके मेरे हृदय में आसीन होंगे। मेरे चंचल मन को शासित करें, और मुझे अपनी ओर आकर्षित कीजिए।

 

गोपीनाथ, अनाथ देखिया मोरे।

तुमि हृषीकेश, हृषीक दमिया,

तार’हे संसृति-घोरे॥७॥

“हे गोपीनाथ! आप हृषीकेश अर्थात इंद्रियों के स्वामी हैं। मेरी इस असहाय अवस्था को समझकर मेरी इंद्रियों को नियंत्रित कीजिये और इस संसार की भयानक स्थिति से मेरा उद्धार कीजिए।”

 

गोपीनाथ, गलाय लेगेछे फाँस।

कृपा-आसि धोरि’ बन्धन छेदिया,

विनोदे करह दास॥८॥

“हे गोपीनाथ! सांसारिक बंधन का फंदा मेरी गर्दन में कसा हुआ है। अपनी कृपा रूपी तलवार से इस बंधन को काट दीजिए, और भक्तिविनोद को अपना दास बना लीजिए।”

 

साधु-महाजन, श्रीगुरु हमें यही प्रार्थना सिखाते हैं, इस प्रार्थना को हमें गोपीनाथ जी के चरणों में अर्पित करना चाहिए। साधु-कृपा विना नाहिका उपाय अर्थात साधु-गुरु की कृपा के अतिरिक्त संसार से उद्धार का कोई अन्य उपाय नहीं हैं।

 

साधु-गुरु कृपा ही केवलम्

श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने कहा है —

 

अदोष-दर्शी प्रभो, पतित उद्धार।

एत बड़ नरोत्तमे करह निस्तार॥

“हे प्रभु! पतित उद्धारक! आप जैसे उत्तम-भक्त केवल श्रीकृष्ण को ही सर्वत्र देखते हैं। आप सभी को कृष्ण का दास मानते हैं और किसी में दोष नहीं देखते हैं। हे पतितों के उद्धारक, हे प्रभु, कृपा करके इस पतित नरोत्तम दास का भी उद्धार कीजिये।”

 

महाभागवत या उत्तम-भागवत सभी को केवल कृष्णदास के रूप में देखते हैं। ये साधु-गुरु-महाजनों के वाक्य हैं और शास्त्रसम्मत हैं। घर और गृहस्थी, पत्नी, पुत्र, पुत्री, तथाकथित मित्रों इत्यादि से विमोह और तत्पश्चात श्रीकृष्ण के चरणकमलों में आसक्ति केवल साधु-गुरु की कृपा से ही संभव है।

 

कृष्ण ही एकमात्र भोक्ता हैं

सर्वदा शुभता के लिए, मन में कैसे विचार होने चाहिए? साधु-महाजन कहते हैं कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण के सुखोपभोग के लिए है। कृष्ण ही एकमात्र भोक्ता हैं। कुछ भी आपके भोग के लिए नहीं है। यदि आप इस विचार को अपने मूढ़ मन में सदा अंकित कर ले, तो सब प्रकार की शुभता प्राप्त होगी।

 

स्वतंत्रता का समुचित उपयोग

आप अल्प स्वतंत्रता से युक्त एक क्षुद्र जीव हैं। करुणया-दाता परमेश्वर ने कृपा करके आपको अल्प स्वतंत्रता प्रदान की है। इस अल्प स्वतंत्रता का सही उपयोग क्या है? इस अल्प स्वतंत्रता का परित्याग कर पूर्ण रूप से समर्पण करना ही स्वतंत्रता का समुचित उपयोग है।

 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज (भगवद्गीता १८.६६)

यह भगवद्गीता का अंतिम निर्णायक उपदेश है: “सभी प्रकार के धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ जाओ।” परंतु स्वतंत्रता के बिना समर्पण असंभव है। अतः करुणया-दाता भगवान् ने जीव को अल्प स्वतंत्रता प्रदान की है। परन्तु, यदि आप कृष्ण के चरणों में समर्पित नहीं होते हैं, तो यह स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। आप माया के चंगुल में पड़ जायेंगे। अतः भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित होकर अपनी अल्प स्वतंत्रता का उचित उपयोग कीजिए। आप नित्य कृष्णदास हैं और आपको बिना छल कपट के साधु-गुरु के समुचित मार्गदर्शन में प्रेमपूर्वक कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। तब निश्चित रूप से इसी जीवन में आपको श्रीकृष्ण की प्राप्ति होगी। इसमें निराशा की कोई बात नहीं है। यह पूर्णतः आशावादी मार्ग है।

 

सदा साधु-संग

साधु-गुरु-वैष्णव अहर्निश, चौबीसों घंटे भगवान श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा में लीन रहते हैं। इस प्रकार वे निरंतर श्रीकृष्ण के संग में रहते हैं। केवल वे ही आपको कृष्ण का दर्शन करा सकते हैं। आपको उनके चरणों में आत्म समर्पण करना होगा और उनसे कृष्ण-कथा सुननी होगी। तभी सर्वमंगल होगा। उन्होनें अपने नेत्रों में प्रेम का अंजन लेपित किया हुआ है, वे भक्ति-चक्षु से युक्त हैं, प्रेमाञ्जनच्छुरित-भक्ति-विलोचनेन, वे सर्वत्र श्रीश्यामसुंदर के दर्शन करते हैं। साधु, वैष्णव, प्रेमी-भक्तों के पास ऐसी भक्ति-दृष्टि होती है। उन्होंने अपने हृदय में प्रेम-रज्जु से श्यामसुंदर श्रीकृष्ण को बाँध लिया है। यदि आप ऐसे साधु-गुरु-वैष्णवों के शरणागत होकर उनकी सेवा करें, उन्हें प्रसन्न करें और उनकी कृपा प्राप्त करें, तो आप भी उस भक्ति-दृष्टि से युक्त हो जायेंगे और सर्वत्र श्रीश्यामसुंदर के दर्शन कर सकेंगे। यही एकमात्र उपाय है। इसलिए हमें एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। “कैसे मैं ऐसे साधु की सेवा करूँ? कैसे उनकी कृपा प्राप्त करूँ? कैसे मैं ऐसे साधु का संग सदा प्राप्त करूँ? कैसे श्रीकृष्ण की सेवा कर पाऊं?” दिन-रात, ऐसी सतत व्याकुलता होनी चाहिए। यदि आप सदा ऐसे साधुओं का संग प्राप्त कर सकेंगे, तो आपके अन्तःकरण में भी श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा करने की भावना उत्पन्न होगी। तभी भक्ति-वृत्ति विकसित होगी और आप वास्तव में कृष्ण-दास बन सकेंगे। अन्यथा आप केवल माया-दास बने रहेंगे। साधु-गुरुजन हमें सिखाते हैं कि कृष्ण के प्रति समर्पण कैसे किया जाए। स्वयं के प्रयासों से समर्पण करना संभव नहीं है। आपको उनका शिष्य बनना चाहिए। शिष्य अर्थात जो अनुशासन में रहता है, वही वास्तविक शिष्य है।

 

सद्गुरु और सत शिष्य

अब प्रश्न उठता है कि सद्गुरु और सत् शिष्य कौन है?

भक्त: सद्गुरु तत्त्वदर्शी होते हैं।

श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ, सद्गुरु तत्त्वदर्शी होते हैं। वे निरंतर श्यामसुंदर श्रीकृष्ण का सर्वत्र दर्शन करते हैं। सद्गुरु ने अपने हृदय में प्रेम-रज्जु से कृष्ण को बाँध रखा है, वे अहर्निश 24 घंटे कृष्ण की प्रेममयी सेवा में लीन रहते हैं, और सदा कृष्ण के संग में रहते हैं। सत् शिष्य कौन है?

भक्त: जो बिना संशय के गुरु का अनुशासन स्वीकार करता है।

श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ, जो शिष्य बिना किसी संशय के सहर्ष सद्गुरु का अनुशासन स्वीकार करता है, वही सत् शिष्य है। जब गुरु आपके कान पकड़कर जोर से थप्पड़ मारते है और कहते हैं, "तुम मूर्ख हो", यही गुरु की कृपा है। गुरु-दंड ही गुरु की कृपा है। दूसरे शब्दों में, जो सदा गुरु को शासन करने का अवसर देता है, वही सत् शिष्य है।

भक्त: वह ऐसा क्यों करेगा?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: क्योंकि वह माया-दास है। उसकी इस तुच्छ शरीर और शारीरिक सम्बन्धियों, इंद्रिय-सुख के प्रति प्रबल आसक्ति है। उसकी कृष्ण के प्रति तनिक भी आसक्ति नहीं है। अनेक काम वासनायें उसके हृदय में हैं। इसलिए, उसे क्या चाहिए?

भक्त: अनुशासन।

श्रील गौर गोविंद स्वामी: उसे अनुशासन की आवश्यकता है। उसे दंड चाहिए।

भक्त: अगर सत् शिष्य सब कुछ सही करता है और उसमे कोई दोष भी नहीं हैं, तब?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: तुम ऐसा सोचते हो? तुम्हारे अंदर कोई दोष नहीं है?

भक्त: सत् शिष्य

श्रील गौर गोविंद स्वामी: हमने अभी 'गोपीनाथ' गीत में क्या गाया है? श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने क्या कहा है?

"मैं अति पतित हूँ। मैं महा भौतिकतावादी व्यक्ति हूँ। मेरे पास कोई शुद्ध ज्ञान नहीं है। मुझे यह भी नहीं पता कि मेरे लिए क्या अच्छा है। माया ने मेरे गले में मज़बूत फंदा डाला हुआ है और मुझे अपनी ओर खींच रही है। मैं महा मूर्ख एवं अज्ञानी हूँ। इसीलिए मैं निरर्थक कार्य कर रहा हूँ। अतः मुझे दंड मिलना चाहिए। जो व्यक्ति गुरु को सदा दंड देने का अवसर प्रदान करता है और उस दण्ड को सहर्ष स्वीकारता है, वही सत् शिष्य है। यदि गुरु आपकी पीठ थपथपाते हैं, तो यह वंचना है।

 

साधु-गुरु के पास दो वस्तुएं होती हैं: कृपा और वंचना। अगर गुरु आपकी पीठ थपथपाए, “अरे, तुम बहुत अच्छे हो।” तो आपको केवल वंचना प्राप्त हो रही है। इसके विपरीत, अगर आपको दंड मिलता है, तो वही वास्तविक कृपा है। इसलिए कहा गया है कि जो शिष्य सदा गुरु को कठोर दंड देने का अवसर प्रदान करता है, वही सत् शिष्य है। तब आपको गुरु की कृपा प्राप्त होगी और आप पूर्णतः श्रीकृष्ण के चरणों में आत्म-समर्पण कर सकेंगे। कृष्ण उन्हीं को स्वीकार करते हैं जो उनके समक्ष पूर्ण रूप से समर्पण करते हैं और श्रीकृष्ण उनकी सभी इच्छाओं को भी पूर्ण करते हैं। कृष्ण सेइ सत्य करे, यत माँगे भृत्य (चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला १५.६६)।

 

कृष्ण के चरण कमल ही हमारे एकमात्र आश्रय हैं। यदि आपका इस वाक्य में दृढ़ विश्वास है, तब आप पूर्ण रूप से उनके चरणों में आत्म-समर्पण कर सकेंगे और आप निर्भय हो जाएंगे। फिर आपको इस भौतिक संसार की किसी भी परिस्थिति से कभी भय नहीं लगेगा। इस संसार में कदम-कदम पर विपदा है — पदे पदे विपदं। इस भौतिक संसार में प्रत्येक जीव प्रति क्षण विपद में है। सभी भय की स्थिति में हैं, लेकिन आत्म-समर्पित जीव निर्भय होता है। वह सदा प्रसन्न रहता है। वह प्रशान्त और आनंदमय रहता है, क्योंकि उसने श्रीकृष्ण के चरणों में पूर्णतः शरण ली है।

 

भय और शोक से रहित

अभय-अशोक-अमृतेर स्थल

तोमारा चरण-द्वय

ताहाते एकोन, विश्राम लाभिया

छाड़िलूं भावेर भय

(शरणागति – श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)

“हे कृष्ण! आपके सुन्दर युगल चरण भय, शोक और मृत्यु से रहित हैं। आपके चरणों में शरण लेकर मैं समस्त भौतिक कष्ट, शोक, और मृत्यु के भय से मुक्त हो गया हूँ।” जिनका श्रीकृष्ण के चरणकमलों में पूर्ण विश्वास है, उनका निश्चित रूप से परम मंगल होता है। इस मंगलमयता का न तो वर्णन किया जा सकता है और न ही इसकी कल्पना की जा सकती है। परन्तु, पूर्ण आत्म-समर्पित जीव ही इसे प्राप्त कर सकता है। यही हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए।

 

साधु-गुरु की शरण ग्रहण करो

अतः सार यह है कि एक साधु-गुरु की शरण ग्रहण कीजिए। साधु-गुरु, श्रीकृष्ण के प्रिय सेवक, प्रेमी-भक्त, और महाप्रभु के अति प्रिय सेवक अर्थात गौर-प्रिय जन होते हैं और वे २४ घंटे कृष्ण की प्रेममयी सेवा में रत रहते हैं। कृष्ण सेवा के अतिरिक्त उनका अन्य कोई कार्य नहीं हैं; उन्होंने अपने हृदय में प्रेम-रज्जु से श्रीकृष्ण को बाँध लिया है; वे अन्तः और बाह्य सर्वत्र श्यामसुंदर का दर्शन करते हैं।

ऐसे साधु-गुरु के सन्निकट जाइए, उनकी शरण ग्रहण कीजिए, उनकी सेवा कीजिए, उन्हें प्रसन्न कीजिए और उनसे कृष्ण-कथा श्रवण कीजिए । केवल वे ही तुम्हें कृष्ण प्रदान कर सकते हैं और कृष्ण का दर्शन करा सकते हैं। श्रवण के अतिरिक्त, अन्य कोई उपाय नहीं है। परिणाम स्वरूप आपका सौभाग्य उदित होगा। तभी आप समझ सकेंगे कि कृष्ण कौन हैं, आप कौन हैं, और आपका कृष्ण के साथ शाश्वत संबंध क्या है? बद्ध जीव कृष्ण को भूल चूका है। वह स्वर्गलोक, भूलोक, नरकलोक में कभी देवता, असुर, मनुष्य, पक्षी, जानवर, साँप, कीड़ा, अथवा अन्य सूक्ष्म योनियों में जन्म और मृत्यु के चक्र में घूम रहा है। कभी वह स्वामी बनता है, तो कभी दास।

 

ऐई रूपे संसार भ्रमिते कोण जन

साधु-संगे निज-तत्त्व अवगत हन

(प्रेम-विवर्त ६.७)

इस प्रकार, लाखों ब्रह्माण्डों में भ्रमण करने के पश्चात कोई भाग्यवान-जन साधु-संग के लिए उन्मुख होता है। साधु से श्रवण करने के उपरान्त उसे विदित होता है, "अरे! मैं तो कृष्ण-दास हूँ!" कृष्ण ही एकमात्र भोक्ता हैं। क्या आप भोक्ता हैं?

भक्त: नहीं। जीव भोक्ता नहीं है।

श्रील गौर गोविंद स्वामी: क्या तुम सच में कह सकते हो कि तुम भोक्ता नहीं हो? कुकुर या शुकर ऐसा नहीं कह सकते हैं। केवल पूर्ण शरणागत प्रेमी-भक्त ही ऐसा कह सकता है। परन्तु, मिथ्या अहंकार से गर्वित बद्ध जीव, अहंकार-विमूढ़ात्मा, कहता है “मैं भोक्ता हूँ। प्रत्येक वस्तु मेरे भोग के लिए है।” परन्तु, जीव भोक्ता नहीं हो सकता है। सब कुछ कृष्ण सुख के लिए है। जिसने एक सद्गुरु, वैष्णव, साधु को गुरु के रूप में स्वीकार किया है और उनके कठोर अनुशासन में है, जो ऐसे वैष्णवों का कुत्ता बन गया है, “ओ वैष्णव ठाकुर, आमि तोमार कुक्कुर।” केवल वही ऐसा कह सकता है। इसके विपरीत, अहंकार-विमूढ़ात्मा सत् शिष्य नहीं हैं। उनकी इस भौतिक संसार में और इस संसार के सम्बन्धियों में घोर आसक्ति है, वे ऐसा नहीं कह सकते हैं ।

 

निज-तत्त्व जानी द्रुत संसार न चाय

केन वा भजिनु माया, करे हाय हाय

(प्रेम-विवर्त ६.८)

"अरे! मैं तो कृष्ण-दास हूँ। मेरा श्रीकृष्ण के साथ शाश्वत, पूर्ण और प्रेममय संबंध है। कृष्ण मेरे नित्य स्वामी हैं, और मैं उनका नित्य सेवक हूँ।" तत्पश्चात उसका इस भौतिक संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, और वह कहता है "हाय! हाय! मैं लाखों जन्मों से मायादास बनकर क्यों भटक रहा हूँ? निज-तत्त्व जानी द्रुत संसार न चाय, केन वा भजिनु माया, करे हाय हाय" अन्यथा, आप कभी नहीं कह सकते हैं।

 

कांदे बोले, ओहे कृष्ण! आमि तव दास

तोमार चरण छाड़ि’ हइला सर्वनाश

(प्रेम-विवर्त ६.९)

कृष्ण के सम्मुख क्रंदन करता है "ओहे कृष्ण! आमि तव दास। ओ कृष्ण! मैं आपका दास हूँ लेकिन आपके चरणों की उपेक्षा करके इस भयावह भौतिक जगत में मेरा सर्वनाश हो गया है।" जब आप क्रंदन करते हैं, तब कृष्ण सोचते हैं, "अब यह जीव मेरे लिए क्रंदन कर रहा है।" जब तक आप हृदय से रोओगे नहीं, तब तक कृष्ण आपकी प्रार्थना को नहीं सुनेंगे।

जो भी श्रीकृष्ण के लिए रोया है, उन्हें कृष्ण प्राप्त हुए हैं। पाँच वर्ष के बालक ध्रुव रोते-रोते घर से निकल गए, "कमलनयन हरि कहाँ हैं? मेरे कमलनयन हरि कहाँ हैं?" वह सदा रोते हुए यही रट रहे थे और उन्हें हरि मिल गए। इसी प्रकार बिल्वमंगल ठाकुर रो रहे थे। उन्होंने अपने नेत्रों को फोड़ लिया और उन्हें भी श्रीकृष्ण मिल गए। अतः जब तक आप रोएंगे नहीं, तब तक कृष्ण को कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

 

अन्तः हृदय से पुकारो

ककुटि करिया कृष्णे डाके एक-बार

कृपा करि कृष्ण तारे छाड़ान संसार

(प्रेम-विवर्त ६.१०)

कर बद्ध, अश्रुपूरित नेत्रों, और हृदय की गहराई से क्रंदन करो। नकली अश्रु पूरित क्रन्दन केवल दिखावा है, कृष्ण कभी नहीं सुनेंगे। कृष्ण के सम्मुख हृदय के अंतःकरण से रोना होगा। कर बद्ध होकर उनके समक्ष प्रार्थना कीजिए, तब कृष्ण अपनी कृपा वृष्टि करेंगे और आपके हृदय में इस भौतिक संसार से पूर्ण वैराग्य उत्पन्न होगा एवं और कृष्ण के प्रति गहरी आसक्ति जाग्रत होगी। अन्यथा अन्य कोई उपाय नहीं है।

 

 तुम माया को भगा सकोगे

 मायाके पिछने राखी' कृष्णपाने चाय

भजिते भजिते कृष्ण पाद-पद्म पाय

(प्रेम-विवर्त ६.११)

कृष्ण की कृपा प्राप्त होने पर हृदय में कृष्ण के चरण कमलों के प्रति गहरी आसक्ति उत्पन्न होगी और इस भौतिक संसार से पूर्ण वैराग्य उत्पन्न होगा। तब आप माया को विदूरित कर पाएंगे। "माया, भाग यहाँ से!" जब तक आपको श्रीकृष्ण से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त नहीं होती है, तब तक आप माया को लात नहीं मार सकते हैं।

जब आप गुरु की आज्ञा पालन करते हैं, माया फिर बुलाती है, "अरे, मेरी गोद क्यों छोड़ रहे हो? मैं तो तुम्हें दीर्घ काल से अपनी गोद में लिए हुए थी।" माया तुम्हें गले लगाती है, तुम्हें थपथपाती है, चुम्बन करती है, "तुम मुझे क्यों छोड़ रहे हो?" वह एक सुंदर माला लेकर खड़ी होती है और मधुर ध्वनि करती है। आप संशय में पड़ जाते हो – "कहाँ जाऊँ? माया की ओर या फिर कृष्ण की ओर?" लेकिन संशय रहित होकर श्रीकृष्ण के चरणों में स्थिर हो जाओ। पूर्ण रूप से माया की ओर पीठ फेर दो। यह तभी संभव है जब आपको श्रीकृष्ण की कृपा मिल जाए, क्योंकि तभी आप वास्तव में शक्तिशाली हो पाओगे। जब आप साधु-गुरु के मार्गदर्शन में कृष्ण-भजन करते हो, तो अंत में श्रीकृष्ण के चरण कमलों को प्राप्त कर लोगे —भजिते भजिते कृष्ण-पाद-पद्म पाय

 

कृष्ण तारे देन निज चित्शक्तिर बल

माया आकर्षण छाड़ें, हइया दुर्बल

(प्रेम-विवर्त ६.१२)

माया बहुत शक्तिशाली है, लेकिन आध्यात्मिक बल, चित्शक्तिर बल, प्राप्त होने पर आप माया से अधिक बलवान हो जाते हैं और माया को ठोकर मार सकते हैं। उस समय माया निर्बल हो जाती है। तब आपका माया के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहता है। सदा केवल श्रीकृष्ण की ओर देखेंगे। 

 

साधु-संग आवश्यक है

साधु-संग कृष्ण-नाम — एइ मात्र चाई

संसार जिनिते आर कोन वस्तु नाइ

 (प्रेम-विवर्त ६.१३)

तब आपके हृदय में साधु-संग की तीव्र लालसा उत्पन्न होगी। साधु का संग, उनके मुख से कथा श्रवण और उनके संग में हरे कृष्ण महामंत्र के जप के अवसर की तीव्र लालसा। साधु-संग कृष्ण-नाम — एइ मात्र चाई संसार जिनिते आर कोन वस्तु नाइ — इस भौतिक संसार से वैराग्य अर्थात इस माया के आकर्षण को नष्ट करने का और कोई उपाय नहीं है।

 

इस भौतिक संसार से हमारी आसक्ति अत्यंत प्रबल है। यहाँ तक कि शुक्राचार्य जैसे महान व्यक्तित्व, जो इस सत्य से भलीभाँति परिचित थे, वह भी इसे त्यागने में असमर्थ थे। उन्हें बाध्य होकर अपने ही शिष्य के पास जाकर याचना करनी पड़ी, जैसा कि उपरोक्त श्लोक में वर्णित है। अतः व्यक्ति चाहे कितना भी महान क्यों न हो, साधु-संग के अभाव में कृष्ण के प्रति गहन आसक्ति और इस भौतिक संसार से विरक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती है।

शुक्राचार्य कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। वे असुरराज एवं महाजन बलि महाराज के गुरु थे। बलि महाराज श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त बन गए क्योंकि उन्हें अपने पितामह प्रह्लाद महाराज की कृपा प्राप्त थी। चूंकि शुक्राचार्य एक गौनिक गुरु थे अर्थात् उनकी आसक्ति भौतिक संसार में थी न कि कृष्ण में। इसलिए बलि महाराज ने उन्हें गुरु के रूप में अस्वीकार कर दिया।

 

प्रमाणिक साधु कौन है?

अब प्रश्न यह उठता है कि प्रामाणिक साधु कौन है? इसका उत्तर भगवान कपिलदेव ने श्रीमद्भागवतम् के तृतीय स्कंध में दिया है—

 

मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये द‍ृढाम्।

मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवा:॥

“ऐसा साधु अविचलित भाव से भगवान् की कट्टर भक्ति करता है। भगवान् के लिए वह संसार के अन्य समस्त सम्बन्धों यथा पारिवारिक सम्बन्ध तथा मैत्री का परित्याग कर देता है”। (श्रीमद्भागवतम् ३.२५.२२)

 

वह भगवान श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा हेतु अपने तथाकथित मित्रों और सम्बन्धियों को त्याग देता है। घर, परिवार, पत्नी, पुत्र, पुत्री और यहाँ तक इस तुच्छ शरीर से भी उसका कोई लगाव नहीं रहता है। अतः सच्चा साधु वही है जिसने भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अत्यंत प्रबल आसक्ति को विकसित कर लिया है और जिसका किसी भी अस्थायी भौतिक वस्तु से कोई लगाव नहीं है। वह अहर्निश श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा में लीन रहता है।

 

ऐसे साधु की कृपा और संग के बिना, कोई भी श्रीकृष्ण के प्रति आसक्ति विकसित नहीं कर सकता है। ऐसे साधु के संग में आप पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर सकते हैं। अन्यथा एक महा ढोंगी के सदृश आप कहेंगे, “मैंने साधु को आत्मसमर्पण कर दिया हैं।” परन्तु, वास्तविकता में आपने माया को आत्मसमर्पण किया है। आप वास्तव में महान माया-दास हैं, लेकिन दम्भपूर्वक कह रहे हैं, “मैं कृष्ण-दास हूँ।” यह केवल पाखंड है। वास्तविक कृष्ण-दास बनने के लिए आपको माया को पूरी तरह लात मारनी होगी।

 

प्रश्नोत्तर

मैं एक प्रमाणिक साधु को कैसे पहचान सकता हूँ?

भक्त: महाराज, हमें एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु को आत्मसमर्पण करना चाहिए?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: निश्चित रूप से करना चाहिए।

भक्त: क्या वह गौर-प्रिय-जन होना चाहिए?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ, हाँ, हाँ।

भक्त: परन्तु, मैं उन्हें कैसे पहचानूगाँ?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: आप उन्हें नहीं पहचान सकते हैं। आप चार दोषों से युक्त एक बद्ध जीव हो। आपकी इंद्रियाँ अपूर्ण हैं, और शुद्ध दृष्टि भी नहीं है। तो आप उन्हें कैसे पहचानोगे? आप अपने [दूषित] नेत्रों से साधु का दर्शन नहीं कर सकते हैं। ऐसा कहा गया है कि साधु को कर्णों के माध्यम से देखो अर्थात उनसे कृष्ण-कथा सुनो। वे शास्त्रों से उद्धृत केवल शुद्ध कृष्ण-कथा कहते हैं। एक प्रमाणिक साधु केवल महाजन, पूर्वाचार्यों और शास्त्रों का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। वे पूर्ण रूपेण श्रीकृष्ण को समर्पित होते हैं, इसलिए वे निरंतर कृष्ण-कथा बोलते हैं। साधु की यही एकमात्र पहचान है। कृष्ण के सम्मुख मार्मिक क्रंदन करो "हे कृष्ण! कृपया मेरी एक शुद्ध भक्त से भेंट करवा दीजिए जिनके चरणों में मैं आत्मसमर्पण कर सकूँ और आपकी सेवा में संलग्न हो सकूँ।" केवल कृष्ण को पता है कि कौन उनका शुद्ध भक्त है।

पाँच वर्ष के बालक ध्रुव ने कृष्ण के लिए क्रंदन किया। वे रोते हुए घर छोड़कर चले गए। उनकी माँ और सम्बन्धियों ने उन्हें बहुत रोका — "मत जाओ! मत जाओ! जंगल अतिशय भयानक है। तुम मात्र पाँच साल के बालक हो। वहाँ अनेक बाधाएं हैं, भयानक जानवर, राक्षस इत्यादि हैं। महान मुनि और ऋषि जो हज़ारों वर्षों तक तपस्या करते हैं, वे भी भगवान को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। अतः यह मार्ग बहुत कठिन है।" परन्तु, ध्रुव महाराज ने कुछ भी नहीं सुना। वे रोते हुए घर से चले गए "कमलनयन हरि कहाँ हैं? मैं उन्हें कैसे प्राप्त कर सकता हूँ?" तब भगवान हरि ने विचार किया, "अरे! ध्रुव तो मेरे लिए रो रहा है, लेकिन वह सीधे मेरे पास नहीं आ सकता है। उसे एक गुरु की आवश्यकता है।" इसलिए भगवान की व्यवस्था से नारद मुनि तुरंत बालक ध्रुव के समक्ष प्रकट हो गए।

 

यह गुलाबों की गोद है या काँटों की?

भक्त: आपने कहा कि अगर कोई भक्त गुरु के सम्मुख बैठकर उनसे डाँट खाता है, और सार्वजनिक रूप से उसके दोष उजागर होते हैं, तो उसे गुरु की कृपा मिलती है। लेकिन अगर कोई भक्त पीछे छुपकर बैठता है, तो क्या उसे वांचना मिलती है?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: पीछे छुपकर बैठने का अर्थ है कि वह माया से गहन आसक्ति शिथिल नहीं करना चाहता है। इसलिए वह गुरु से छुपकर रहता है। अगर वह सम्मुख हो गया तो यह आसक्ति छिन्न हो सकती है। उसने बहुत सुंदर सम्बन्ध स्थापित किये हैं। उसने माया की गोद को चुना है। क्या यह निर्णय उचित है? क्या यह गुलाबों की गोद है या काँटों की? यद्द्यपि यह बार-बार चुभती है, फिर भी उसे यह चुभन बहुत अच्छी लगाती है। यह कोई गुलाबों की कोमल गोद नहीं है, यह काँटों की गोद है बाबा!  फिर भी वह अज्ञानवश माया को ही पसंद करता है। गुरु के हाथ में तेज अर्थात धारदार छुरा है, गुरु के सम्मुख आने पर वे तुरंत [माया के सम्बन्ध को] काट देंगे।

 

अहैतुक समर्पण

भक्त: गुरुदेव, यह "हैतुक समर्पण" क्या होता है?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: समर्पण अहैतुकी होना चाहिए। "हे कृष्ण! यह व्यवस्था कर दो, वह भौतिक वस्तु दे दो, तब मैं समर्पण करूंगा।" नहीं, कोई आशा नहीं होनी चाहिए! अपितु प्रत्येक परिस्थिति में, तत्क्षण पूर्ण समर्पण! "मारबि राखबि जो इच्छा तोहार, नित्यदास-प्रति तुया अधिकार।" जैसा कि भक्तिविनोद ठाकुर ने स्वीकार किया है: 'हेनो दुष्ट कर्म नै जाहा आमी कोरी, नै साहस्र साहस्र बार होइ' —"हे प्रभु! मैं कितना बड़ा दुष्ट हूँ, महा भौतिकवादी व्यक्ति हूँ। मैंने सहस्रों बार अनेक अधम कर्म किए हैं। कोई ऐसा पाप कर्म शेष नहीं है जिसे मैंने न किया हो। मैं ऐसा दुष्ट हूँ। मैं निश्चित रूप से दंड का भागी हूँ!"  "लेकिन, फिर भी मैं आपका ही दास हूँ। आप जो चाहें करें। चाहे मुझे मारें, या रक्षा करें। मैं आपकी शरण में हूँ। आपके पास पूर्ण अधिकार है - मारबि राखबि जो इच्छा तोहार।" सब आपकी इच्छा पर निर्भर है। यह अहैतुकी समर्पण है।

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