कौन अधिक दयालु है?
प्रिय पाठकगण
श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की महती कृपा से हम अपने शुद्धीकरण हेतु विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर रहें हैं। इस लेख में हम भक्ति विधि के मर्म, अर्थात् चैत्य गुरु तथा महांत गुरु से कृपा प्राप्त करने की उचित विधी पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।
अत्यंत उदार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान स्वयं पतितात्माओं के उद्धार हेतु हरिनाम महामंत्र के रूप में प्रकट होते हैं। अपने इस उदात्त प्रयोजन की सफलता सुनिश्चित करने हेतु वे परम करुणामय नाम-कीर्तनकारी गुरु के रूप में अवतरित होकर हमें हरिनाम जप तथा हरिनाम की सेवा का प्रशिक्षण भी देते हैं। नाम कीर्तनकारी गुरु, दो रूपों में हरिनाम के दिव्य रसों का वितरण करके पतितात्माओं को चरम गंतव्य की प्राप्ति हेतु अद्वितीय सहायता प्रदान करते हैं - प्रथमतः दीक्षा गुरु के रूप में और द्वितीय शिक्षा गुरु के रूप में। श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला १.४७ में श्रील कृष्णदास गोस्वामीपाद ने स्पष्ट उल्लेख किया है, “मनुष्य को चाहिए कि वह शिक्षा-गुरु को कृष्ण का स्वरूप समझे। भगवान कृष्ण स्वयं को परमात्मा रूप में तथा भगवान के सर्वश्रेष्ठ भक्त के रूप में प्रकट करते हैं।”
देहधारी जीवों के कल्याण हेतु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान गुरु-तत्व के दो रूप ग्रहण कर भौतिक धरातल पर प्रकट होते हैं: हृदय के भीतर चैत्य गुरु अथवा परमात्मा के रूप में और बाह्यतः आध्यात्मिक गुरु अथवा भगवान के सर्वोत्कृष्ट भक्त के रूप में। महांत गुरु, जिनकी विस्मयजनक भुवनमंगलकारी लीलाओं का हम दर्शन करते हैं, वे ही जीव के भीतर चैत्य गुरु के रूप में विद्यमान हैं। समस्त जीवात्माओं के अंतःहृदय में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण, परमात्मा रूप में जीव के त्रिगुण अथवा प्रवृत्ति को नियंत्रित करते हैं और बाह्य रूप से दीक्षा व शिक्षा गुरु के रूप में जीव की अन्तश्चेतना शुद्ध कर दिव्यज्ञानमयी दृष्टि का विकास करते हैं। इस प्रकार बद्धजीवों के प्रति उनका अवदान अद्भुत व सर्वोच्च है। शिक्षा-गुरु साधन तत्व की शिक्षाओं से बद्धजीवों के हृदय स्थित अविद्या रूपी विष्ठा को दूर करते हैं। चूँकि अंतःहृदय में विद्यमान चैत्य-गुरु हमें दिव्य ज्ञान के अनुशीलन हेतु शुद्ध बुद्धि प्रदान करते हैं, अतः वे भी हमारे शिक्षा गुरु हैं। इसी कारण से श्रीउद्धव भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं, “हे प्रभु, योगी, कवि तथा आध्यात्मिक विज्ञान में पटु व्यक्ति आपके प्रति अपनी कृतज्ञता पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सके यद्यपि उन्हें ब्रह्माजी जितनी दीर्घायु प्राप्त थी क्योंकि आप दो रूपों में - बाह्यतः आचार्य के रूप में और आंतरिक रूप में परमात्मा की तरह देहधारी जीव को अपने पास आने का निर्देश करते हुए उद्धार करने के लिए प्रकट होते हैं। [श्रीमद् भागवतम ११.२९.६]
शुद्ध भक्त अप्राकृत हैं, अतएव चैत्य गुरु से कृपा एवं यथोचित मार्गदर्शन प्राप्त किए बिना बद्धजीवात्मा शुद्ध भक्त को नहीं पहचान सकती। विभिन्न साहित्यों का गहन अध्ययन एवं वेदों में विदित सभी नियामक सिद्धांतों का कठोरता से पालन करने के पश्चात भी जीव साधु-संग की महिमा को समझने की पात्रता प्राप्त नहीं कर सकता। प्राकृत बद्धजीवों के अपूर्ण प्रयासों से साधु-संग की अपार व पारलौकिक महत्ता का बोध होना भी संभव नहीं है। यहाँ तक कि जब हमें शुद्ध भक्त के सान्निध्य में रहने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त होता है, तब भी हम उनके श्रीचरणों का आश्रय ग्रहण करने में संकोच करते हैं। अतएव, जब तक हम चैत्य-गुरु की कृपा प्राप्त नहीं कर लेते, हमारे आध्यात्मिक जीवन में सब कुछ अस्त-व्यस्त व प्रतिकूल रहेगा। चैत्य गुरु ने अपनी कृपा को दो रूपों में ध्रुवीकृत किया है: कपटयुक्त कृपा अथवा वञ्चना एवं कपटरहित कृपा अथवा वास्तविक कृपा। कपटयुक्त कृपा अथवा वञ्चना से क्या अभिप्राय है? यदि जीव शुद्ध भक्ति के अतिरिक्त कोई अन्य अभिलाषा रखता है, या फिर ज्ञान, कर्म तथा योग में संवर्धनशील होने की कामना करता है, तो परमात्मा, जो उसके मंतव्य से भली-भाँति परिचित हैं, उसे एक कर्मी, ज्ञानी, योगी, अथवा भौतिक इच्छाओं से परिपूर्ण किसी गहन भौतिकवादी या कामुक व्यक्ति को गुरु रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देते हैं। परिणामस्वरूप वह शुद्ध भक्त के प्रति ईर्ष्या तथा आपराधिक मनोवृत्ति विकसित कर लेता है। अपनी इस आवर्ती प्रवृत्ति के कारण वह शुद्ध भक्त के दिव्य गुणों का दर्शन करने में सर्वथा अक्षम रहता है, प्रत्युत वह उनमें दोष-दर्शन करने लगता है। परमात्मा, जो प्रत्येक जीवात्मा की आंतरिक मनोदशा को भली-भाँति जानते हैं, अन्य अभिलाषाओं की आपूर्ति में व्यस्त जीवों को तथा ज्ञानी, कर्मी एवं योगियों को उनके आशय अनुसार श्रद्धा प्रदान करते हैं। अतः यदि हम भक्ति के सौम्य पथ में आने के बाद भी गुरु-कृष्ण को प्रसन्न करने की शुद्ध वांछा के बजाय अन्य तृष्णाऐं बनाए रखते हैं, तो परमात्मा हमारे लिए तदनुसार संगति एवं सुविधाओं की व्यवस्था कर देते हैं ताकि हम सहजता से अपनी भौतिक इच्छाएँ पूर्ण कर सकें। यह स्पष्ट रूप से जान लीजिए कि कृष्ण-भक्त होने के कारण, हम इन अनुचित संलग्नताओं के दुष्परिणामों का दोष किसी अन्य व्यक्ति को नहीं दे सकते। कभी-कभी परिपक्वता के अभाव के कारण भक्तगण भावुकतावश परम्परा, आचार्य अथवा वैष्णवों को दोषी ठहराने लगते हैं। वास्तव में, उनकी इस प्रवृत्ति का उद्देश्य केवल दूसरों पर दोषारोपण करके स्वयं को सांत्वना देना है, “मैं निपुण तथा त्रुटिहीन हूँ!”। वे भूल जाते हैं कि परमात्मा हमारी मनोवृत्ति से भली-भाँति परिचित हैं, और उनकी इच्छा से ही हमारे जीवन में सभी व्यवस्थाएँ आती हैं।
अतएव, भगवान के धीर, यथार्थ व उत्तम भक्त सदैव स्वयं को दोषी मानते हैं, अन्यों को नहीं। वहीं दूसरी ओर, यदि कोई भाग्यवान जीव परमात्मा की वास्तविक कृपा प्राप्त करता है, तो उसके हृदय में शुद्ध भक्त के चरणकमलों के प्रति पूर्णतया समर्पित होने की प्रेरणा तथा अविचल श्रद्धा विकसित हो जाती है। उसका मन प्रतिक्षण भौंरे के भाँति छटपटाता है। जिस प्रकार भौंरा, मधु का आस्वादन करने के लिए इतना लालायित हो उठता है कि वह पुष्पों के मध्य कष्टदायक काँटों का विचार तक नहीं करता, उसी प्रकार परमात्मा से वास्तविक कृपा प्राप्त करने पर भाग्यवान जीव परमानंद में इतना उन्मत्त हो जाता है कि वह अस्थिर भौतिक सुखों एवं व्याधियों से रंचमात्र भी प्रभावित नहीं होता। वह किसी भी मूल्य पर केवल शुद्ध भक्त के श्रीचरणों की सेवा करना, और उनके प्रति पूर्णतया शरणागत होना चाहता है।
इस संदर्भ में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर अभिव्यक्त करते हैं, “जब तक हम चैत्य गुरु से कृपा प्राप्त नहीं कर लेते, हमारे पास गुरु-सेवा करने की कोई योग्यता नहीं होती। उनकी कृपा के बिना हमारे लिए आत्म प्रदर्शक गुरु, दीक्षा गुरु तथा शिक्षा गुरु की सेवा करना सम्भव नहीं है।” यदि जीव के भीतर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्ष की कामना गंभीर रूप से निहित हो जाती है, तो चैत्य गुरु उसे उच्चतम भौतिक प्रतिफल, प्रचुर भौतिक ऐश्वर्य तथा विलक्षण भौतिक बुद्धिक्षमता प्रदान करते हैं। वहीं दूसरी ओर, यदि कोई भाग्यवान जीव शुद्ध भक्ति की प्रबल इच्छा विकसित कर ले, तो चैत्य गुरु उसे बिना किसी कपटता के शिक्षा गुरु तथा दीक्षा गुरु, दोनों के प्रति निष्काम, अविरल भक्ति प्रदान करते हैं। हमें अपनी इच्छाओं को शुद्ध करना होगा। साधु संग का वास्तविक अर्थ है अपनी दूषित अभिलाषाओं को शुद्ध तथा भगवद्भक्ति अनुकूल करना। गुरु एवं कृष्ण को प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न करने की यही एकमात्र कुँजी है। अपनी अन्य रचनाओं में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने यह भी स्पष्ट किया है कि, “चैत्य गुरु की कृपा से ही हमें महांत गुरु के सानिध्य में आने का सुअवसर प्राप्त होता है। जीव अपनी पात्रता तथा अभिलाषाओं के अनुसार ही चैत्य गुरु एवं महांत गुरु से वास्तविक कृपा अथवा वञ्चना प्राप्त करता है जिसके फलस्वरूप वह या तो अधोक्षज का नित्य सेवक बनता है या फिर आध्याहिक।” यह जानना महत्वपूर्ण है कि जहाँ कहीं महांत गुरु की सेवा भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नहीं की जाती, वहाँ चैत्य गुरु की कृपा पूर्णतया प्रकट नहीं होती। इस संदर्भ में एक विचारने योग्य प्रश्न उठ सकता है: चैत्य गुरु की कृपा के बिना हम महांत गुरु को कैसे पहचान पाएँगे? क्योंकि एक ओर यह उल्लेख है कि हम चैत्य गुरु की कृपा के बिना शुद्ध भक्त को नहीं पहचान सकते, वहीं दूसरी ओर, यदि हम महांत गुरु का आश्रय ग्रहण नहीं करते, तो चैत्य गुरु की कृपा प्रकट नहीं होती, दोनों तथ्य एक-दूसरे से विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। अतएव हमें स्वयं को बारम्बार स्मरण कराना होगा कि महांत गुरु तथा चैत्य गुरु अभिन्न हैं, अंतर केवल यह है कि चैत्य गुरु हमें हमारी आकांक्षाओं के अनुसार सहायता प्रदान करते हैं। वे कृपालु होने के साथ-साथ तटस्थ भी होते हैं। अत: पतितात्माओं के लिए उनसे दिव्य ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। वहीं, महांत गुरु करुणावश बद्धजीव की असंख्य शंकाएँ व समस्याएँ विदूरित करते हैं।
जब व्यक्तिगण कर्म, ज्ञान अथवा अन्य पद्धतियों के प्रति आसक्त होते हैं, तो इसका अनिवार्य रूप से अर्थ यह है कि परमात्मा ने उनके अभिविन्यास को अनुमोदित कर दिया है। दूसरे शब्दों में, ऐसे जीव परोक्ष रूप परमात्मा की कपटयुक्त कृपा अथवा प्रवञ्चना के पात्र हैं। किंतु महांत गुरु की कृपा अतुलनीय है।
जिस प्रकार घनी से घनी छाया में भी सूर्य के अनुपम तेजस्व पर प्रभाव डालने अथवा सूर्य को ढकने की क्षमता नहीं होती, उसी प्रकार बद्धजीवों की तुच्छतम अवस्था से महांत गुरु की अप्रतिम कृपा प्रभावित नहीं होती। महांत गुरु प्रत्येक जीव पर कृपा-वृष्टि करते हैं। किंतु यदि कोई व्यक्ति ईर्ष्यावश अपने द्वार व खिड़की बंद कर ले, तो वह ईर्ष्या की घनी छाया से पूर्णतया आच्छादित हो जाता है और सूर्यप्रकाश रूपी कृपा से लाभान्वित नहीं हो पाता। ठीक इसी प्रकार, बद्धजीव अनादि काल से मिथ्या अहंकारवश भोग-विलास में संलिप्त रहा है। जब वह भोगने की इच्छा रखता है, तो चैत्य गुरु उसे तदनुसार बुद्धिमता प्रदान करते हैं। दूसरी ओर, यदि जीव शुद्ध भक्ति के लिए तीव्रता से लालायित रहता है तो परमात्मा उस अत्यंत भाग्यशाली व्यक्ति को साधु-संग के प्रति सद्प्रेरणा व आसक्ति प्रदान करते हैं। केवल इतना ही नहीं, वे उसे महांत गुरु के चरणकमलों में शरणागत होने तथा उनकी अहैतुकी कृपा प्राप्त करने के लिए असाधारण उत्साह भी प्रदान करते हैं। जब हम बिना किसी कपटता के शुद्ध-भक्त के श्रीचरणों में शरणागत होते हैं, तो यह चैत्य गुरु की पूर्ण कृपा का प्रतीक है।
यदि हम चैत्य गुरु की अहैतुकी कृपा से शुद्ध भक्त के सानिध्य में आने के उपरांत भी उनके श्रीचरणों के प्रति निरंतर अपराध करते हैं, तो हमारे हृदय में उनके प्रति ईर्ष्यात्मक मनोवृत्ति विकसित हो जाती है। यद्यपि बाह्य रूप से हम उनकी सेवा तथा उनके प्रति आदर व्यक्त करने का दिखावा करते रहते हैं, किंतु आंतरिक रूप से हम उनकी महत्ता का अनुभव नहीं कर पाते। इन अतिशय दुर्भाग्यपूर्ण जीवों की सहायता करने में तो परमात्मा भी अक्षम रहते हैं। चैत्य गुरु की प्रेरणा तथा मार्गदर्शन के अनुरूप जीव श्रीगुरु को अपने स्वामी एवं नियंता के रूप में स्वीकार करता है, “मैं अपने गुरु का शाश्वत शिष्य व नित्य दास हूँ।” परंतु वास्तव में, हमारा आंतरिक मंतव्य भिन्न होता है। प्रत्येक बद्धजीवात्मा के भीतर गुरु पद पर आसीन होने की तीव्र आकांक्षा नित्य विद्यमान रहती है, यह अरुचिकर सत्य है जो हमें साधु तथा शास्त्र के संदर्श को गहनता से अध्ययन करने पर प्राप्त होता है। इस सूक्ष्म इच्छा के परिणामस्वरूप, हमारे हृदय में ईर्ष्या रूपी विषाक्त एवं संकटपूर्ण मानसिकता का उदय होता है - यद्यपि हम वास्तविक शिष्य बनने के भी योग्य नहीं, तथापि हम सर्वश्रेष्ठ पद की कामना करते हैं। यह भी चैत्य गुरु द्वारा वञ्चना प्राप्त करना है। यदि हमारी प्रवृति शुद्ध भक्त के चरणकमलों के प्रति निरंतर अपराध करने की है, तो चैत्य गुरु हमें कपटपूर्ण कृपा एवं तदनुरूप बुद्धिमता प्रदान करते हैं, जिसके फलस्वरूप हमारे हृदय में साधु, गुरु तथा वैष्णवों के प्रति ईर्ष्यापूर्ण मनोवृत्ति विकसित हो जाती है, और इस दुष्टता के अधीन रहना हमारे जीवन का सनातन व्रत बन जाता है। सरल शब्दों में, यह स्पष्ट है कि हम चैत्य गुरु से कृपा प्राप्त करने के लिए तनिक भी योग्य नहीं हैं।
आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि, इस स्थिति में भी हम सोचते हैं कि हमारे सभी विचार परमात्मा द्वारा प्रेरित हैं। प्रत्येक व्यक्ति यह मानता है कि परमात्मा उसे कर्म करने की प्रेरणा व मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, चाहे वे साधु हों, या कोई चोर, धूर्त, अथवा चरित्रहीन व्यक्ति। परंतु उनमें से कोई भी यह अंतर नहीं कर पाता कि वह परमात्मा की कृपा है या वञ्चना। इसे केवल वही समझ सकता है जो महांत गुरु के पदचिह्नों का दृढ़तापूर्वक अनुसरण करता है। यदि परमात्मा इन सभी व्यक्तियों को बुद्धिमता तथा प्रेरणा देने के लिए उत्तरदायी होते, तो इनके कर्मों के लिए भी परमात्मा को ही दोषी ठहराया जाता। किंतु कटुसत्य तो यह है कि, अपनी सूक्ष्म तृष्णाओं के कारण हम चैत्य गुरु से प्राप्त वञ्चना द्वारा भ्रमित हो जाते हैं, परिणामस्वरूप हम दुर्भाग्य के मार्ग पर अग्रसर होने लगते हैं। इस तथ्य से भली-भाँति परिचित, समस्त जीवों के शुभचिंतक, परम उदार महांत गुरु हमारी अन्तश्चेतना में शब्द ब्रह्म अंतर्निहित कर हमें अपनी असंख्य भोग-अभिलाषाओं के क्रूर हाथों से रक्षा प्रदान करते हैं, और हमारे समस्त संशयों को विनष्ट कर देते हैं।
यदि कोई भाग्यवान जीव सरल हृदय से महांत गुरु के श्रीमुख से उद्भव शब्द-ब्रह्म का श्रवण करता है, तो उसके हृदय में साधु-संग के प्रति अविचल श्रद्धा तत्क्षणात विकसित हो जाती है, जिसके फलस्वरूप चैत्य गुरु उस जीव पर कापट्य रहित अपनी पूर्ण कृपा करते हैं। अतः महांत गुरु चैत्य गुरु से कई अधिक करुणामय हैं, वे उनके भाँति तटस्थ नहीं हैं। वे किसी भी बद्धात्मा को अपनी कृपा से वंचित नहीं रखते जब तक कि वह साधु तथा गुरु के प्रति गम्भीर अपराध न करे। यद्यपि श्रीकृष्ण प्रत्येक जीवात्मा के भीतर परमात्मा रूप में विराजमान हैं, और वे शास्त्रों के रूप में भी अवतरित होते हैं, परंतु फिर भी महांत गुरु की उपस्थिति नितांत आवश्यक है। श्रीकृष्ण इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हैं, अतएव वे भौतिक धरातल पर अपने विश्वस्त परिकरों को भेजते हैं, ताकि वे पतितात्माओं का भक्ति के अप्राकृत तथा दिव्य पथ पर मार्गदर्शन कर सकें। जब तक महांत-गुरु आचार्य के रूप में अपनी प्रभुता स्थापित नहीं करते, जीव उनका सानिध्य प्राप्त नहीं कर सकता। यदि हम केवल चैत्य गुरु के साहचर्य पर निर्भर रहते हैं, तो उनके संग से लाभान्वित होने पर भी हम अपनी अक्षमताओं व अपरिपक्वता के कारण असंख्य अपराध करेंगे। यद्यपि महांत गुरु स्वभाव से अत्यंत विनयशील होते हैं तथापि वे अपनी सर्वोच्चता प्रदर्शित करते हैं, ताकि वे हमारे समक्ष यह प्रमाणित करके हमारा उद्धार कर सकें कि वे प्रभु के कितने अंतरंग और प्रिय हैं। यह उनका दम्भ, धन उपकर्षण की युक्ति, अथवा पूजा या सेवा प्राप्त करने का षड्यंत्र नहीं, अपितु अहैतुकी कृपा है।
कोई प्रश्न कर सकता है कि, “कृष्ण शुद्ध बुद्धिमता प्रदान करके बद्धात्माओं की सहायता क्यों नहीं करते हैं?” वास्तव में श्रीकृष्ण सभी जीवों पर समान अथवा निष्पक्ष रूप से कृपा-वृष्टि करते हैं। वे हमें सहायता प्रदान करते हैं, परंतु हम अपनी तथाकथित स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने के कारण उनकी सहायता स्वीकार नहीं कर पाते। श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त बुद्धिमता अथवा कृपा को समझने व अनुभव करने हेतु भक्ति-उन्मुख सुकृतियों की अनिवार्यता होती है। किंतु सुकृतियों को किस प्रकार अर्जित किया जाए? श्रीकृष्ण महांत गुरु के रूप में उसकी व्यवस्था भी कर देते हैं। वे शब्द-ब्रह्म, श्रीविग्रह, तथा श्रीगुरु के रूप में प्रकट होते हैं। बद्धजीवों को स्वीकृति प्रदान करने हेतु यह श्रीकृष्ण की चाल है। यदि हमें उनके इन अभिन्न स्वरूपों को सेवा अर्पित करने का स्वर्ण अवसर प्राप्त होता है, तो हम सुकृति अर्जित कर सकते हैं। तभी हमारे हृदय में शुद्ध वांछाएँ उदित होंगी और तदनुसार चैत्य गुरु हमें बुद्धिमता प्रदान करेंगे, जिसके फलस्वरूप हम महांत गुरु को पहचानकर निष्ठापूर्वक उनके श्रीमुख के हरि-कथा का श्रवण, उनकी सेवा व उनसे कृपा प्राप्त कर पाएँगे, जिससे अंततोगत्वा हमारा जीवन सफल होगा। निष्कर्ष यह है कि, यद्यपि महांत गुरु एवं चैत्य गुरु, दोनों ही श्रीकृष्ण के विस्तार हैं परंतु महांत गुरु चैत्य गुरु से कई अधिक करुणामय हैं!
दासानुदासः
हलधर स्वामी
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