गौड़ीय-गुरु-वर्ग की धरोहर
इस जगत में, चार प्रामाणिक वैष्णव सम्प्रदाय या सत्-सम्प्रदाय हैं:
श्री ब्रह्म-रुद्र सनका वैष्णवाः क्षिति पावनाः।
चत्वारस्ते कलौभाव्या हयुत्कले पुरुषोत्तमात्॥
श्री-सम्प्रदाय को रामानुजाचार्य-सम्प्रदाय भी कहते हैं, क्योंकि इस सम्प्रदाय के आचार्य श्रील रामानुजाचार्य हैं। इसी प्रकार, ब्रह्मा-सम्प्रदाय के आचार्य मध्वाचार्य हैं और इसे मध्वाचार्य-सम्प्रदाय या ब्रह्म-मध्व परम्परा कहते हैं। जब महाप्रभु ने इस ब्रह्म-मध्व सम्प्रदाय के अंतर्गत गुरु स्वीकार किया, तब इसमें ‘गौड़ीय’ शब्द जुड़ गया और यह ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय-सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। रुद्र-सम्प्रदाय के आचार्य विष्णु स्वामी हैं और कुमार-सम्प्रदाय के आचार्य निम्बार्काचार्य हैं।
महाप्रभु ने चारों सम्प्रदायों का सार ग्रहण किया
ये चारों प्रामाणिक वैष्णव सम्प्रदाय हैं, अतः इनके आचार्य भी प्रामाणिक वैष्णव आचार्य हैं। परन्तु, इन आचार्यों के दर्शन में द्वैतवाद को लेकर भिन्नता है। इसलिए, महाप्रभु ने सभी दार्शनिक सिद्धान्तों का सार स्वीकार करके एक अत्यन्त उच्च एवं अद्वितीय सिद्धान्त अचिन्त्य-भेदाभेद-तत्त्व प्रस्तुत किया। पाँच हज़ार वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गई थी कि अचिन्त्य-भेदाभेद-तत्त्व दर्शन उड़ीसा प्रान्त (उत्कल-भूमि) में, पुरी-धाम (जगन्नाथ-क्षेत्र) से प्रकट होकर समस्त संसार में विस्तारित होगा। आज यह भविष्यवाणी प्रत्यक्षतः फलित हो रही है।
ऐश्वर्य-परा और माधुर्य-परा
यह गौड़ीय-परम्परा सर्वोत्कृष्ट परम्परा है। किसी भी साधक को गौड़ीय वैष्णव परम्परा में गुरु स्वीकार करना चाहिए। परन्तु, कोई प्रश्न कर सकता है कि गौड़ीय वैष्णवों और गौड़ीय गुरु वर्ग की वास्तविक धरोहर क्या है?
परम पुरुषोत्तम भगवान के असंख्य विस्तारों को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है- ऐश्वर्य-परा एवं माधुर्य-परा।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
“हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |” (भगवद् गीता 4.7)
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
“भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |” (भगवद् गीता 4.8)
ये स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के वाक्य हैं। परित्राणाय साधूनाम्, साधुओं की रक्षा (साधु-रक्षण) तथा विनाशाय च दुष्कृताम्, दुष्टों और राक्षसों का विनाश करने के लिए, भगवान प्रत्येक युग में अवतरित होते हैं। कभी-कभी राक्षस धरती पर बोझ बन जाते हैं। तब भगवान पृथ्वी का भार हरण (भू-भार-हरणाय) और भागवत-धर्म की स्थापना (धर्म-संस्थापनार्थाय) हेतु अवतरित होते हैं। ये भगवान के ऐश्वर्य-परा स्वरूप के कार्य (ऐश्वर्यक) हैं। अर्थात वे वसुदेव-नंदन या देवकी-नंदन ऐश्वर्य-परा स्वरूप मेंभू-भार-हरणाय, असुर-हरणाय, तथा साधु-रक्षण का कार्य करते हैं। ये सभी गौण-कार्य हैं। अतः द्वारका और मथुरा में वासुदेव-कृष्ण की लीलाएँ गौण-लीला मानी जाती हैं।
भगवान की मुख्य लीलाएँ
तो फिर भगवान की मुख्य लीलाएँ क्या हैं? वे अपनी मुख्य लीलाएँ माधुर्य-परा स्वरूप, नंद-नंदन कृष्ण, और यशोदा-नंदन कृष्ण के रूप में सम्पादित करते हैं। व्रजभूमि में श्रीकृष्ण अतिशय सुन्दर, माधुर्यक-निलय, हैं। वे श्याम-त्रिभंग-ललित हैं, उनका शरीर तीन स्थानों पर वक्रित है। वे सदा एकादश वर्ष के नित्य-किशोर हैं। यह उनका माधुर्य-परा-रूप है। इस स्वरूप में भगवान् का एक मात्र कार्य प्रेम-लीला विस्तारित करना है। कृष्ण ब्रजवासियों के साथ प्रेममयी लीलाओं में रत रहते हैं। वे दास्य-रति, सख्य-रति, वात्सल्य-रति, और माधुर्य-कांता-भाव में लीलाएं करते हैं। नंद-नंदन, यशोदा-नंदन श्रीकृष्ण की व्रज-लीला या माधुर्य-लीला ही उनकी मुख्य लीला है। इसीलिए श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी कहते हैं – ‘माधुर्य हे भगवत्तार सार’ अर्थात् भगवान का वास्तविक सार तत्व उनका माधुर्य है, न कि ऐश्वर्य। व्रजभूमि में श्रीकृष्ण की लीलाएं केवल शुद्ध प्रेम पर आधारित है। यही प्रेम गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की वास्तविक धरोहर है। यही गौड़ीय वैष्णवों की विशेषता या अद्वितीय गुण है। इसीलिए एक साधक को गौड़ीय वैष्णव गुरु स्वीकार करना चाहिए।
अंतरंगा-लीला एवं बहिरंगा -लीला
‘स्वयं भगवान् कृष्ण शास्त्रेर प्रमाण’ - श्रीकृष्ण ही स्वयं-भगवान हैं। स्वयं भगवान इस जगत में अवतीर्ण होकर दो प्रकार की लीलाओं का संपादन करते हैं - अंतरंगा-लीला एवं बहिरंगा-लीला।
भगवान के अवतार से पूर्व, माता पृथ्वी दैत्यों के भार से भारित थी और ब्रह्माजी के समक्ष क्रंदन कर रही थीं। असुरगण पृथ्वी पर भार होते हैं। उस समय समस्त देवगण ब्रह्माजी के नेतृत्व में क्षीर-सागर के तट पर गए और भगवान से प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हुए। श्रीकृष्ण लीला-पुरुषोत्तम हैं। वे अनेक प्रकार की लीलाएँ करते हैं जैसे द्वारका-लीला, मथुरा-लीला, कुरुक्षेत्र-लीला इत्यादि। ये सभी उनकी बहिरंगा-लीलाएँ कहलाती हैं।
नित्य रुप से व्रज भूमि में प्रकाशित श्रीकृष्ण की व्रज-लीलाएँ उनकी अंतरंग-लीलाएँ हैं। वृन्दावनं परित्यज्य पदमेकं न गच्छति - श्रीकृष्ण वृन्दावन से एक कदम भी बाहर नहीं जाते हैं। वे सदा वृन्दावन में विराजमान रहते हैं। परन्तु, कभी उनकी लीलाएँ दृश्य होती है और कभी अदृश्य। कृष्ण ने ग्यारह वर्ष (एकादश-वत्सर) पर्यंत दृश्य रुप में व्रज-लीला प्रकट किया। अपने व्रजवासी प्रेमी-भक्तों के सानिध्य में श्रीकृष्ण लीला-रस का आस्वादन किया ।
पाँच प्रमुख रस होते हैं – शान्त, दास्य, साख्य, वात्सल्य, और माधुर्य। नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण अपनी बाल्य-लीला, पौगण्ड लील तथा कैशोर लीलाओं का प्रकाशन करते हैं। व्रजवासी प्रेमी-भक्त इस लीला-रस का आस्वादन करते हैं और वे व्रजवासी ही हमारे गौड़ीय वैष्णव आचार्यगण हैं। यही गौड़ीय गुरु-वर्ग की विशेषता है।
साधन के प्रकार
साधन के दो प्रकार हैं: विधि-मार्ग एवं राग-मार्ग, अर्थात् वैधि एवं रागानुगा। साधन-भक्ति के दो अंग हैं: प्राथमिक स्तर है वैधि, तदुपरांत रागानुगा अथवा राग-मार्ग साधन भक्ति का उच्च स्तर है। जब कोई साधक नियमों और विधानों का कठोरता से पालन करते हुए साधन करता है, तो उसे वैधि-साधन या वैधि-भक्ति कहा जाता है। ऐसा साधन करने से व्यक्ति का हृदय सभी भौतिक कल्मषों से शुद्ध हो जाता है। शुद्ध हृदय में कोई भौतिक इच्छा शेष नहीं रहती और श्रीकृष्ण-कथा में साधक की रुचि उत्पन्न होती है। कथा-रुचि से राग-मार्ग-भजन आरम्भ होता है और वही हमारे लक्ष्य तक पहुँचाने वाला साधन है। आगे, रुचि, आसक्ति औरभाव के द्वारा साध्य-वस्तु अर्थात प्रेम प्राप्त होता है।
ऐश्वर्य-परा-भक्त सामान्यतया वैधि-भजन करते हैं। वे वैधि-मार्ग या विधि-मार्ग का अनुसरण करते हैं। वे श्रीकृष्ण की माधुर्य-परा-लीलाओं की मधुरता का आस्वादन नहीं कर पाते हैं। वे व्रजभूमि में श्रीकृष्ण की बाल्य-लीलाओं को महत्व नहीं देते हैं। वासुदेव-कृष्ण असुरों का वध जैसे अनेक महान कार्य करते हैं। ऐश्वर्य-परा-भक्त इन लीलाओं को विशेष महत्व देते हैं। इसलिए वे वासुदेव-कृष्ण को भगवान के रूप में स्वीकार करते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण की नन्द-नन्दन के रूप में व्रज-लीलाएँ पूर्णतया भिन्न हैं। वे अतिशय मधुर एवं सुंदर हैं। यह उनकी भगवत्ता का सार है। यह विशेषता गौड़ीय वैष्णव दर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र कही भी देखने को नहीं मिलती है।
गौड़ीय वैष्णव गुरु को स्वीकार करें
यद्द्यपि कर्मी, ज्ञानी और योगी भी भागवतम् का अध्ययन करते हैं, किन्तु वे शुद्ध-भक्ति के स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं। उनके लिए मोक्ष ही साध्य-वस्तु है। वे प्रेम को साध्य-वस्तु के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। अतः गौड़ीय वैष्णव गुरु को स्वीकार न करने के कारण वे श्रीमद्भागवतम् के वास्तविक तात्पर्य को नहीं समझ पाते हैं। इसलिए चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है -
याह, भागवत पड़ वैष्णवेर स्थाने।
एकान्त आश्रय कर चैतन्य - चरणे॥
(चैतन्य-चरितामृत, अंत्य-लीला 5.131)
वैष्णव अर्थात भक्त भागवत जो भागवतम् का साक्षात् स्वरूप और प्रेम-पुरुषोत्तम चैतन्य महाप्रभु के प्रिय भक्त हैं। ऐसे वैष्णवों से भागवतम् सुनो, उन्हीं के मार्गदर्शन में भागवतम् का अध्ययन करो और पूर्णतया श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण ग्रहण करो।
चैतन्येर भक्त - गणेर नित्य कर ‘सङ्ग’।
तबेत जानिबा सिद्धान्त - समुद्र - तरङ्ग॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की नियमित रूप से संगति करो, तभी तुम भक्ति के समुद्र की तरंगो को समझ सकोगे। (चैतन्य-चरितामृत, अंत्य-लीला 5.132)
भागवतम् महासागर सदृश है, इसमें अनेक तरंगें हैं - सिद्धांत-तरंग। महाप्रभु के भक्तों की संगति के बिना इन सिद्धान्तों को समझ पाना असम्भव है।
गौड़ीय गुरु वेदों का सार आस्वादन करते हैं
भगवान् के अति प्रिय भक्त श्रील सनातन गोस्वामी ने बृहद्-भागवतामृत नामक ग्रन्थ की रचना की है। जब महाराज परीक्षित शुकदेव गोस्वामी से श्रीमद्भागवतम श्रवण कर चुके, तब उनकी माता उत्तरादेवी ने निवेदन किया - “पुत्र! तुमने अभी-अभी जो शुकदेव गोस्वामी से कथा श्रवण किया है, उसका अमृतमय सार मुझे भी सुनाओ। यथा दूध को मथने से मक्खन प्राप्त होता है, सदृश भागवत का मंथन करके उसका अमृत-सार मुझे प्रदान करो।” इसी प्रकार बृहद्-भागवतामृत ग्रंथ वास्तव में भागवतम् का अमृत-सार है - भागवतामृत।
श्रीमद्भागवतम वैदिक कल्पवृक्ष का मधुरतम, अमृतमय रसयुक्त पक्व फल है -निगम-कल्प-तरोर् गलितं फलम्। यह सभी वेदों, उपनिषदों और अन्य समस्त वैदिक ग्रंथों का सार है। लेकिन उत्तरादेवी क्या श्रवण करना चाहती थीं? वे उस सार, मक्खन, को सुनना चाहती थीं जो दूध सदृश भागवतम् रूपी सागर का मंथन करने पर उत्पन्न होता है। सभी गौड़ीय गुरुजन इसी अमृत सार का आस्वादन करते हैं।
अतः यह अमृतमय मधुर रस गौड़ीय-स्मृति है। यह माधुर्य-निलय लीला या प्रेम-लीला केवल वृजभूमि में उपलब्ध है। भगवान् की समस्त ब्रज-लीलाएँ गौड़ीय-शास्त्रों में वर्णित हैं, जैसे बृहद्-भागवतामृत, चैतन्य-चरितामृत, गोपाल-चम्पू, उज्ज्वल-नीलमणि, गोविन्द-लीलामृत आदि।
न पारये - मैं उऋण नहीं हो सकता हूँ
साध्य-वस्तु प्रेम है। केवल व्रजेंद्रनंदन कृष्ण ही वह प्रेम दे सकते हैं -आमा विना अन्ये नारे व्रज-प्रेम दिते (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला 3.26)। इसलिए कृष्ण स्वयं चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए। भगवान हरि स्वयं भी उस प्रेम को नहीं समझ पाते हैं क्योंकि यह श्रीमती राधारानी और गोपियों की संपत्ति है। इसलिए कृष्ण भी गोपियों के ऋणी हो गए। वे उस ऋण को चुका नहीं पाए। वे कहते हैं, “मैं (ऋण) चुका नहीं सकता, मैं (ऋण) चुका नहीं सकता, न पारये, न पारये, न पारये।” गोपियाँ, रात्रि के गहन अंधकार में, कृष्ण की बांसुरी की मधुर ध्वनि सुनकर दौड़ी चली आती थीं। भागवतम् के दशम स्कंध में गोपी-प्रेम का वर्णन है। इसमें कर्म, या ज्ञान का लेश भी नहीं है। यह केवल शुद्ध-प्रेम है।
कृष्ण का स्वभाव कुटिल है
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीता: शनै: प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां न:॥
(श्रीमद्भागवतम 10.31.19)
गोपियाँ कह रही हैं, “हे प्रियतम कृष्ण! आपके चरण कमल अतिशय सुन्दर और कोमल हैं। हमें भय है कि कहीं वे हमारे पत्थर सदृश वक्ष की कठोरता से आहत न हो जाएँ। आप वृन्दावन के जंगलों में काँटों और नुकीले पत्थरों पर नंगे पाँव चलते हैं, क्या वे आपके कोमल चरणों को चोट नहीं पहुँचाते? हम समझ नहीं पातीं कि हमारे कठोर वक्षस्थल को छूकर आपके चरण कठोर हो जाते हैं या फिर आपके चरण-स्पर्श से काँटे और पत्थर ही कोमल हो जाते हैं। यह बात हमें रहस्यमय और विचित्र प्रतीत होती है।”
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवान्-
अतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागता:।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिता:
कितव योषित: कस्त्यजेन्निशि॥
(श्रीमद्भागवतम 10.31.16)
“हे अच्युत! आप ही हमारे प्राण और आत्मा हैं। हमारा हृदय सदा आप की ओर धावित होता है। हम अपने पति, परिवार, पुत्र, भाई तथा मित्र—सबको त्यागकर, रात्रि के इस गहन अंधकार और सघन वन में आपके लिए आयी हैं। किन्तु आप कपटी और कुटिल हैं!”
कुटिलता कृष्ण का स्वभाव है। वे तीन स्थानों पर टेढ़े हैं। वे महाप्रभु की तरह सीधे नहीं हैं। जब कभी कृष्ण अदृश्य हो जाते हैं, तो गोपियाँ कहती हैं, “आप कितने कुटिल हैं! क्या आपको नहीं पता कि हम यहाँ क्यों आयी हैं? हम तो आपकी वंशी की मधुर तान से मोहित होकर दौड़ी चली आयी हैं। यह आप भली-भाँति जानते हैं फिर भी हमें छोड़कर चले गए।”
तब कृष्ण क्या उत्तर देते हैं?
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व:।
या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खला:
संवृश्च्य तद् व: प्रतियातु साधुना॥
(श्रीमद्भागवतम 10.32.22)
“हे गोपियों! आपका मुझसे सम्बन्ध शुद्ध-प्रेम पर आधारित है। पारिवारिक बंधन बहुत प्रबल होता है - दुर्जरगेहशृङ्खला:। इसका विच्छेदन आसान नहीं है, लेकिन आप सबने मेरे लिए अपने समस्त पारिवारिक बंधनों को तोड़ दिया है। तुम्हारा मेरे प्रति प्रेम अति प्रगाढ़ है। मैं तुम्हारे प्रेम को स्वीकार करके तुम्हारा ऋणी हो गया हूँ। यहाँ तक कि यदि मेरी ब्रह्मा या देवताओं जैसी चिरायु हो - कल्प-आयुष - तब भी मैं इस ऋण को चुका नहीं सकता हूँ। अतः संवृश्च्य तद् व: प्रतियातु साधुना , आप अपने ही साधु-कार्यों से संतुष्ट हो जाओ।”
ये कृष्ण के वाक्य हैं। वे ऋणी हो गए हैं। यह व्रजभूमि-लीला है। यह व्रज-प्रेम ही साध्य-वस्तु है जिसे स्वयं कृष्ण भी समझ नहीं सकते हैं। कृष्ण कहते हैं -“मैं आपका ऋण नहीं चुका सकता हूँ। इस ऋण को चुकाने के लिए मेरे पास धन नहीं है।”
राधारानी ही एकमात्र स्वामिनी हैं
परन्तु, वह धन राधारानी की तिजोरी में है। राधारानी ही उस धन की एकमात्र स्वामिनी हैं - मादनाख्य-महाभाव-धन। बड़े-बड़े मुनि और ऋषि इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। जब स्वयं कृष्ण, श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए, तब वे उस गोपी-प्रेम या राधा-प्रेम का आस्वादन कर पाए एवं तत्पश्चात उन्होंने उस प्रेम का निःशुल्क वितरण प्रारम्भ। अतः यह केवल कृष्ण कृपा से ही सम्भव हुआ, जब वे श्री राधारानी का भाव ग्रहण करके चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए। उसी राधा-भाव, गोपी-भाव से उन्होंने व्रज-प्रेम, गोपी-प्रेम और राधा-प्रेम का रसास्वादन किया और सम्पूर्ण जगत को मुक्तहस्त प्रदान किया। श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रिय भक्त भी उस प्रेम का स्वयं आस्वादन करते हैं और सबको वितरित करते हैं। इसलिए कहा गया है:
याह, भागवत पड़ वैष्णवेर स्थाने।
एकान्त आश्रय कर चैतन्य - चरणे॥
किसी वैष्णव के पास जाओ और उनके मार्गदर्शन में भागवत का अध्ययन करो। अन्यथा इस प्रेम-तत्त्व को समझ पाना असम्भव है।(चैतन्य-चरितामृत, अंत्य-लीला 5.131)
महाप्रभु की बहिरंगा-लीला
महाप्रभु उस प्रेम को पवित्र नाम संकीर्तन के माध्यम से वितरित करते हैं - हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। मात्र चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास लेने के उपरांत महाप्रभु जगन्नाथ पुरी धाम आए। वे इस भौतिक जगत में कुल 48 वर्ष तक रहे। इन 48 वर्षों में से 24 वर्ष उन्होंने पूर्वाश्रम-लीला या गृहस्थ-जीवन में नदिया (नवद्वीप) में निमाई पंडित के रूप में व्यतीत किया। उन्होंने गया से लौटने के उपरांत नदिया में श्रीवास पंडित के आँगन में अपने पार्षदों के साथ नाम-संकीर्तन और प्रेम-धन का वितरण प्रारंभ किया। यह उनकी बहिरंगा-लीला अथवा गौण-लीला है। संन्यास के उपरान्त, शेष 24 वर्षों में, उन्होंने छह वर्षों तक दक्षिण और उत्तर भारत की यात्रा और प्रचार किया। यह भी उनकी गौण-लीला है।
युगावतार के कार्य
अंतिम 18 वर्ष महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी धाम में एक छोटे से कक्ष ‘गम्भीरा’ में व्यतीत किया। यह कक्ष काशी मिश्र के घर में था और आज राधा-कान्त मठ के नाम से प्रसिद्ध है। गम्भीरा में महाप्रभु अपने अंतरंग पार्षद यथा राय रामानन्द और स्वरूप दामोदर के साथ निरंतर गोपी-प्रेम और राधा-प्रेम का रसास्वादन करते थे। यह उनकी अंतरंगा-लीला या मुख्य लीला है।
युग-धर्म प्रचार नाम-संकीर्तन श्रीकृष्ण (स्वयं-रूप) का कार्य नहीं है। यह युगावतार का कार्य होता है। किंतु जब स्वयं-रूप श्रीकृष्ण अवतरित होते हैं, तब युगावतार भी उनमें समाहित हो जाते हैं। इसलिए नाम-संकीर्तन, प्रेम-धन वितरण इत्यादि कार्य युगावतार द्वारा संपन्न किए जाते हैं।
महाप्रभु के आविर्भाव के तीन कारण
महाप्रभु के प्रकट होने के तीन अंतरंगा कारण हैं।
श्रीराधायाः प्रणयमहिमा कीदृशो वानयैवा-
स्वाद्यो येनाद्भुतमधुरिमा कीदृशो वा मदीयः।
सौख्यञ्चास्या मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभा-
त्तद्भावाढ्यः समजनि शचीगर्भसिन्धौ हरीन्दुः॥
श्रीमती राधारानी के प्रेम की महिमा; अपने (भगवान् के) उन गुणों, जिनका आस्वादन केवल श्रीमती राधारानी प्रेम के माध्यम से करती हैं; एवं उनके प्रेम की मधुरता का आस्वादन करने पर राधारानी जिस सुख का अनुभव करती हैं, उसे समझने के लिए भगवान् श्री हरि राधा के भावों में विभोर होकर श्रीमती शची देवी की कोख से उसी प्रकार प्रकट हुए, जिस तरह समुद्र से चन्द्रमा प्रकट होता है। (श्री चैतन्य चरितामृत, आदि-लीला, 1.6)
कृष्ण की तीन इच्छाएँ थीं:
- मैं राधारानी के प्रेम को कैसे समझ सकता हूँ?
- मैं अपनी उस सुंदरता को कैसे समझ सकता हूँ, जिसका आस्वादन राधारानी करती हैं?
- मेरी सुंदरता का आस्वादन करके राधारानी को कैसा सुख मिलता है?
ये तीन इच्छाएँ ही परम भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतार ग्रहण करने के अंतरंगा-कारण हैं। यह रहस्योद्घाटन जगन्नाथ पुरी के गम्भीरा में महाप्रभु के पार्षदों की संगति में हुआ। इसीलिए वहाँ राधा-कान्त के विग्रह प्रतिष्ठित हैं। राधा-कान्त किशोर कृष्ण हैं, अर्थात व्रजभूमि के सुन्दर ग्यारह वर्ष के किशोर। व्रजभूमि में कृष्ण की स्वयं-रूप-लीला वास्तव में राधा-कान्त की लीलाएँ हैं। कृष्ण और गोपियों के मध्य शुद्ध माधुर्य लीलाएँ ही हमारे लिए साध्य-वस्तु हैं। यह प्रेम ही गौड़ीय वैष्णवों की वास्तविक संपत्ति है, तथा यह विरह-भाव या विप्रलम्भ-रस में अधिक रूप से आस्वादित होता है। यद्द्यपि यह प्रेम-रस, संभोग (मिलन) अवस्था में भी आस्वादित होता है (माधुर्य-आस्वादन), लेकिन विप्रलम्भ या विरह में इसका आस्वादन करोड़ों गुना श्रेष्ठतर होता है। इसलिए विप्रलम्भ (विरह) रस को सर्वोच्च माना गया है। इसी विरह-भाव में व्रज की गोपियाँ कृष्ण के माधुर्य और उनके रूप-सौंदर्य का आस्वादन करती हैं। उसी माधुर्य को विरह-भाव में आस्वादन करने के लिए कृष्ण, श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में, विशेषकर राधारानी के भाव, में अवतरित हुए।
मेरी हार्दिक अभिलाषा
जब कृष्ण अपने भक्तों पर वास्तविक अनुग्रह करते हैं, तो वे उन्हें विरह दशा में रखते हैं। यही वास्तविक कृपा है, क्योंकि तभी भक्त सुदुर्लभ विरह-वस्तु, प्रेम का अनुभव कर सकते हैं। यही गौरहरि एवं राधारानी की कृपा है। विशेष रूप से हमारी तो यही एकमात्र आकांक्षा है। मुझे पूर्ण विश्वाश है कि परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से मुझे यह अनुग्रह अवश्य प्राप्त होगा। यही मेरे हृदय की अभिलाषा है। यही गौड़ीय-गुरु-वर्ग की अमूल्य संपत्ति है। अतः प्रत्येक साधक को ऐसे गौड़ीय वैष्णव गुरु को स्वीकार करना चाहिए जिनके पास यह संपत्ति हो।
नेत्रों में लेपित प्रेमांजन
माया-मुग्ध जीव को कृष्ण का विस्मरण हो गया है, परंतु कृष्ण को कभी भी जीव का विस्मरण नहीं होता है। वे सदा जीव के विषय में चिंतन करते हैं और उन पर अपनी कृपा वृष्टि हेतु अनेक व्यवस्थाएं करते हैं। सर्वप्रथम भगवान ने वेदों और पुराणों के रूप में जीव को श्रुति-ज्ञान प्रदान किया है - जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण। फिर वेदों और पुराणों का तात्पर्य समझाने के लिए वे स्वयं गुरु के रूप में प्रकट होते हैं - कृष्ण गुरु-पद्म शास्त्रेर प्रमाणे। अतःभागवत-ज्ञान या तत्त्व-ज्ञान प्रदान करने के लिए वैष्णव इस जगत में प्रकट होते हैं। एक प्रामाणिक वैष्णव गुरु, वास्तव में कृष्ण की कृपा का मूर्तिमंत स्वरूप होता है -कृष्ण-कृपा-श्रीमूर्ति। वास्तव में, गुरु साक्षात् भगवान सदृश हैं, साक्षाद-धरित्वेन समस्त शास्त्रैर। गुरुदेव अहर्निश श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा में रत रहते हैं, इसलिए वे कृष्ण के अत्यंत प्रिय हैं। वे सेवक-भगवान हैं, कृष्ण सेव्य-भगवान हैं। कृष्ण अपना दिव्य ज्ञान अपने प्रिय भक्त गुरुदेव को प्रदान करते हैं। अतः जब तक हम कोई ऐसे गुरु के प्रति शरणागत नहीं होते, हमें तत्त्व-ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। तत्त्व-ज्ञान के अभाव में नेत्रों का उन्मीलन नहीं होगा। इसीलिए हम कहते हैं –
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:॥
“मैं घोर अज्ञान के अन्धकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरे नेत्र खोल दिए हैं। मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ।” (गौतमीय तंत्र)
श्रीमद्भागवतम (३.९.११) में भगवान् के दर्शन की विधि का वर्णन है। भक्तजन श्रुतेक्षितपथो, अपने कर्णों के माध्यम से, प्रामाणिक वक्ता से श्रवण द्वारा भगवान का दर्शन करते हैं। कृष्ण इस जगत में प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं हैं। परंतु, माया सर्वत्र उपलब्ध है, इसलिए हम बार-बार माया में पड़ जाते हैं। अतः कृष्ण दर्शन की प्रक्रिया गुरु-सेवा है। गुरु से श्रवण करने पर नेत्र उन्मीलित हो जाते हैं।
प्रेमाञ्जन-च्छुरित-भक्ति-विलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरम् अचिन्त्य-गुण-स्वरूपं
गोविन्दम् आदि-पुरुषं तम् अहं भजामि॥
“जो स्वयं श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अन्तर्हृदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।” (ब्रह्म-संहिता 5.38)
अतः जब आपके नेत्र प्रेमाञ्जन से लेपित होंगे तब आप श्यामसुंदर श्रीकृष्ण का सर्वत्र दर्शन कर सकेंगे तथा अनुभव कर सकेंगे कि भगवान सहज रूप से उपलब्ध हैं।
कृष्ण आपकी स्वतंत्रता में कभी हस्तक्षेप नहीं करते
तुम्हारे नेत्र खुले नहीं हैं, क्योंकि आप श्रवण नहीं करते हैं! तुम अंधे हो! तुम कहते हो, “महाराज, मैं आपका अनुसरण नहीं कर सकता हूँ, श्रवण भी नहीं कर सकता हूँ, आपके कैम्प से दूर मैं माया के वश में हो जाऊँगा।” इस प्रकार यदि आप स्वयं तैयार नहीं हैं, तो मैं क्या कर सकता हूँ? तुम्हें अल्प स्वतंत्रता प्राप्त है। कृष्ण कभी भी आपकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, तो मैं कैसे हस्तक्षेप कर सकता हूँ? आपको कृष्ण चाहिए या माया, यह निर्णय आपको लेना है।
इसलिए भगवद्-गीता के अंतिम अठारहवें अध्याय में, कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "हे अर्जुन, क्या तुमने एकाग्र मन से मेरे वचनों को सुना? क्या तुम्हारे सभी संदेह नष्ट हो गए हैं? अब तुम जैसा चाहो वैसा करो, यथेच्छसि तथा कुरु।"
भगवान् ने अर्जुन को स्वतंत्रता प्रदान किया, "तुम युद्ध करो अथवा मत करो। यह तुम पर निर्भर है।" कृष्ण आपकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते। लेकिन अर्जुन बहुत बुद्धिमान थे। अर्जुन ने कहा-
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥
(भगवद्-गीता 18.73)
“अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।”
अर्थात अर्जुन अब युद्ध करेंगे! कृष्ण की इच्छा शिरोधार्य है। कृष्ण की प्रसन्नता सर्वोपरि है। सम्पूर्ण प्रयास कृष्ण सुख के लिए होना चाहिए, न कि स्व-सुख के लिए। आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनम्। अर्थात मेरे समस्त कार्य कृष्ण-सुख के लिए होना चाहिए, न कि मेरे सुख के लिए।
कृष्ण गुरु के रूप में कृपा वृष्टि करते हैं
कृष्ण यह दिव्य ज्ञान अपने प्रिय साधु भक्तों को प्रदान करते हैं। वे इस जगत में दिव्य ज्ञान प्रदान करने के लिए आते हैं। केवल स्वयं कृष्ण और उनके कृपा पात्र प्रिय भक्त ही यह ज्ञान को प्रदान कर सकते हैं। कृष्ण इस ज्ञान को अपने भक्तों के पास सुरक्षित रखते हैं। इसलिए देवता कृष्ण से प्रार्थना करते हैं, सद-अनुग्रह भगवान, आप साधुओं के माध्यम से जीवों पर कृपा वृष्टि करते हैं। गुरुवाष्टकम् में हम गाते हैं कि साधु-गुरु की कृपा से ही, कृष्ण की कृपा प्राप्त होती है, यस्य प्रसादात् भगवत्-प्रसादो।
कृष्ण यदि कृपा करे कोन भाग्यवाने।
गुरु-अन्तर्यामी-रुपे शिखाय आपने॥
“कृष्ण प्रत्येक जीव के हृदय में चैत्य गुरु अर्थात् अंतःकरण में स्थित गुरु के रूप में स्थित हैं। जब वे किसी भाग्यशाली बद्धजीव पर दयालु होते हैं, तो वे उसे भीतर से परमात्मा के रूप में और बाहर से गुरु के रूप में भक्ति में प्रगति करने का उपदेश देते हैं।” (श्री चैतन्य चरितामृत, म़ध्य-लीला, 22.47)
कृष्ण स्वयं गुरु रूप में भक्तों पर अपनी कृपा बरसाते हैं, गुरु-रूपे कृष्ण कृपा करेन भक्तगणे। जब कृष्ण किसी भाग्यशाली जीव पर कृपा वृष्टि करते हैं, तो वे उसके समक्ष गुरु रूप में प्रकट होते हैं और तत्त्व-ज्ञान प्रदान करते हैं। कृष्ण यह तत्त्व-ज्ञान उन साधुओं को प्रदान करते हैं जो सदा उनकी प्रेममयी सेवा में निमग्न रहते हैं। [भक्त के अतिरिक्त] कर्मी, ज्ञानी और योगी तत्त्व-ज्ञान प्रदान नहीं कर सकते हैं। बारह अधिकृत महाजन हैं, केवल महाजन-परम्परा के माध्यम से ही यह तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता है।
दो प्रकार के सुख
प्रत्येक जीव आनंद चाहता है, परन्तु भौतिक सुख आद्यंतवंतः अर्थात क्षणभंगुर है, और इसका परिणाम असीमित दुख है। अतः यह वास्तविक आनंद नहीं है! सुख दो प्रकार के हैं: स्व-सुख अर्थात काम, अपनी इंद्रियों को सुख देना, और प्रेम-सुख अर्थात कृष्ण की इंद्रियों को सुख प्रदान करना।
गुरुदेव स्वरूप-शक्ति-पुष्ट-परिकर हैं
जैसा पूर्व में उल्लेख किया गया है कि कृष्ण व्रजभूमि में किशोर-कृष्ण के रूप में रहते हैं। व्रजभूमि में उनकी प्रेम-लीलाओं का प्राकट्य स्वरूप-शक्ति द्वारा संपादित होती हैं। केवल अति प्रिय एवं उन्नत प्रेमी-भक्त ही इस लीला-रहस्य-तत्त्व को जानते हैं। अत्यंत सौभाग्यशाली भक्तों को ही प्रेम-लीला-तत्त्व मर्मज्ञ और स्वरूप-शक्ति-पुष्ट-परिकर गुरु के रूप में प्राप्त होते हैं। कभी-कभी गुरु को स्वरूप-शक्ति-पुष्ट-परिकर कहा जाता है क्योंकि केवल गुरु ही ऐसा तत्त्व-ज्ञान प्रदान कर सकते हैं। परन्तु, जो केवल अपने स्वार्थ की कामना करते हैं, उनकी इस व्रज-लीला कहानी में रूचि नहीं होती है और न ही वे इसे समझ सकते हैं। ऐसे व्यक्ति को प्रेम-धन प्राप्त नहीं हो सकता है, वह जीवन पर्यन्त ठगा जाएगा। परंतु जो व्यक्ति प्रेमी-भक्तों की संगति करता है, वह उनकी कृपा से यह ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
कृष्ण-कृपा-श्री-मूर्ति
भगवान् कौन हैं? वे प्रेम-मय और रस-मय कैसे हैं? वे अपने प्रिय भक्तों को सदैव इस प्रेमरस सागर में कैसे डुबोए रखते हैं? इन रहस्यों को कौन समझ सकता है? केवल प्रेमी-भक्त-गुरु की संगति में कोई भाग्यशाली जीव ही इसे समझ सकता है। जब तक किसी को कृष्ण-कृपा-श्री-मूर्ति रूपी गुरु और साधु की कृपा प्राप्त नहीं होती है, तब तक वह प्रेमराज्य का संदेश नहीं समझ सकता है। इसलिए, भगवत-स्वरूप-ज्ञान केवल भगवान के प्रिय भक्तों के माध्यम से ही प्राप्त होता है; ज्ञानियों, योगियों या कर्मियों से नहीं।
प्रेम-राज्य का संदेश
स्वतः सिद्धो वेदो हरिदयितवेधः प्रभृतितः, केवल हरि-दयित अर्थात् हरि के अति प्रिय भक्त ही प्रेम-राज्य का संदेश समझ सकते हैं। नारद, व्यास, शुकदेव जैसे महाजन तथा परवर्ती आचार्य जैसे रूप, सनातन, स्वरूप दामोदर गोस्वामी, भक्तिविनोद ठाकुर, भक्तिसिद्धांत सरस्वती और मेरे परम आराध्य गुरु भक्तिवेदांत स्वामी आदि सभी श्रीचैतन्य महाप्रभु के अति प्रिय भक्त हैं। उनकी कृपा से ही यह दिव्य संदेश इस भौतिक लोक में हम तक अवतरित हुआ है। ऐसे प्रेमी-भक्तों को वृजविहारी श्यामसुंदर श्रीकृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार हुआ होता है।
अनेक शास्त्रों को लिपिबद्ध करने के उपरांत भी जब व्यासदेव भ्रमित थे एवं उनका चित्त अशांत था, तब उनके गुरु, नारद मुनि ने उनसे कहा, “आपने अभी तक श्रीकृष्ण की अमृतमयी कथा का वर्णन नहीं किया है, तो आपको शांति कैसे प्राप्त होगी? अतः आप भागवतम् की रचना करो!” फिर गुरु की कृपा से श्रील व्यासदेव ने समाधि में भगवान के पूर्ण स्वरूप का दर्शन किया, अपश्यत्पुरुषं पूर्णं। इस प्रकार, वेदव्यास के माध्यम से हमें श्रीमद्भागवत प्राप्त हुआ। अतः श्रील वेदव्यास जगत्गुरु हैं, और भागवत प्रेम-तत्त्व से परिपूर्ण है।
दो प्रकार के भागवत
श्रीमद्भागवतम् प्रमाणममलं प्रेम पुमार्थो महान्।
श्रीचैतन्यमहाप्रभोर् मतमिदं तत्रादरः न परः॥
(चैतन्य- मञ्जूषा, श्रीनाथ चक्रवर्ती)
महाप्रभु का मत है कि श्रीमद्भागवतम् निर्मल पुराण है। इसमें प्रेम-तत्त्व प्रकट किया गया है, प्रेम पुमार्थो महान्। चैतन्य-भागवत में वृन्दावन दास ठाकुर कहते हैं-
प्रेम-मय भागवत—श्री-कृष्णेर अङ्ग।
ताहाते कहेन यत गोप्य कृष्ण-रङ्ग॥
“श्रीमद्भागवतम् प्रेम-रस से परिपूर्ण है। यह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की समस्त गोपनीय लीलाओं का वर्णन है।” (चैतन्य-भागवत, अंत्य-खण्ड 3.516)
दुइ स्थाने भागवत-नाम शुनि-मात्र
ग्रन्थ-भागवत, आर कृष्ण-कृपा-पात्र॥
“दो प्रकार के भागवत हैं -ग्रंथ-भागवत और भक्त-भागवत। श्रीकृष्ण की कृपा पात्र भक्त-भागवत होते हैं।”(चैतन्य-भागवत, अंत्य-खण्ड 3.532)”
एक भागवत बड - भागवत शास्त्र
आर भागवत -भक्त भक्ति-रस-पात्र॥
एक भागवत है महान् शास्त्र श्रीमद्भागवतम् और दूसरा है भक्ति-रस में निमग्न शुद्ध भक्त। (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला 1.99)
दुइ भागवत द्वारा दिया भक्ति-रस
ताँहार हृदये ताँर प्रेमे हय वश॥
इन दो भागवतों के कार्यों के माध्यम से भगवान् जीव के हृदय में दिव्य प्रेममयी सेवा के रस का संचार करते हैं और इस तरह भक्त के हृदय में स्थित भगवान् भक्त के प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं। (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला 1.100)
यह प्रेममय भागवत प्रेम-रस से परिपूर्ण है, तथा साक्षात श्रीकृष्ण का शरीर है। इसमें श्रीकृष्ण की गुह्य लीलाओं का वर्णन है। भागवत’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है- ग्रंथ-भागवत (श्रीमद्भागवतम्) और भक्त-भागवत (भक्त जो भक्ति-रस-पात्र हैं)। श्रीकृष्ण भक्ति-रस इन्हीं दो भागवतों के माध्यम से प्रदान करते हैं और वे स्वयं ऐसे प्रेमी-भक्तों के हृदय में प्रेम-भक्ति से बंध जाते हैं। श्रीमद्भागवतम् हम तक भक्त-भागवतों के माध्यम से ही ही पहुँचा है। अतः श्रीकृष्ण को समझने के लिए आपको भक्त-भागवत की शरण में जाना होगा। यदि आप श्रीकृष्ण को अपने हृदय में बाँधना चाहते हैं, तो आपको भक्त-भगवत से भक्ति-रस या प्रेम-रस प्राप्त करना होगा।”
भक्ति का उद्गम स्थान साधु-संग है
महाप्रभु ने कहा है-
कृष्ण-भक्ति-जन्म-मूल हय ‘साधु-सङ्ग’।
कृष्ण-प्रेम जन्मे, तेंहो पुनः मुख्य अङ्ग॥
“कृष्ण-भक्ति का मूल कारण महान भक्तों की संगति है। कृष्ण के प्रति सुप्त प्रेम के जाग्रत हो जाने पर भी भक्तों की संगति अत्यावश्यक है।” (चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला 22.83)
भक्ति का जन्मस्थान साधु-संग है। प्रेमी-भक्तों के संग से हमें साध्य-वस्तु अर्थात कृष्ण-प्रेम प्राप्त होता है। महाप्रभु एक व्यावहारिक शिक्षक हैं, वे स्वयं के आचरण द्वारा हमें शिक्षित करते हैं। वे सदा स्वरूप दामोदर गोस्वामी और राय रामानंद जैसे अपने अंतरंग पार्षदों के संग में रहते थे। इसी प्रकार भक्तों को भी सदा भक्तों के संग में ही रहना चाहिए। भक्तों की संगति, वास्तव में भगवान की संगति से भी श्रेष्ठ है।
ऐसा नहीं है कि शरणागति अवस्था में स्थित व्यक्ति को साधु-संग की आवश्यकता नहीं है। केवल शरणागति से ही भगवान श्रीकृष्ण नहीं मिलते हैं। पूर्ण रूप से शरणागति के स्तर पर स्थित भक्त को भी साधु-संग की आवश्यकता है। तब श्रीकृष्ण आसानी से वश में हो जाते हैं। भागवतम् में कहा गया है:
तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवत: ।
अमाययानुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्मात्मदोहरि: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 11.3.22)
अतः मनुष्य को एक प्रमाणिक गुरु के पास जाना चाहिए जो कि कृष्ण को अतिशय प्रिय हैं, प्रभोर यः प्रिय। उन्हें अपने आत्म-दैवता के रूप में स्वीकार करना चाहिए। उनसे भागवत-धर्म का ज्ञान प्राप्त करे, और निष्कपट बुद्धि से उनकी सेवा करे, परिप्रश्नेन सेवया। तब आत्माओं के भी आत्मा भगवान हरि (आत्मात्मदोहरि:) शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं।
कृष्ण कैसे प्रसन्न होते हैं?
भगवान श्रीकृष्ण भागवतम् में कहते हैं -
नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा।
तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.80.34)
“मैं वर्ण और आश्रम धर्म का पालन करने वाले, अथवा घोर तपस्या में रत व्यक्ति से उतना प्रसन्न नहीं होता हूँ जितना की गुरु-सेवा में रत व्यक्ति से।”
यह श्लोक सदा स्मरणीय है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गुरुकुल मित्र सुदामा विप्र से यह कहा था, जब वे उनसे मिलने द्वारका आए थे। पूर्ववर्ती श्लोक में भी यही वर्णन है। अतः भगवान कृष्ण वैष्णव-संगति में रहने वाले भक्तों से अति प्रसन्न होते हैं। वास्तव में, वे उनके अधीन हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त भगवद प्राप्ति का अन्य कोई उपाय नहीं है। इसीलिए नरोत्तम दास ठाकुर और भक्तिविनोद ठाकुर जैसे महाजनों ने वैष्णवों का महिमा-गान किया है।
साधु-संग एकमात्र वांछनीय वरदान
जल के भीतर तपस्या में निमग्न प्रचेताओं के समक्ष प्रकट होकर भगवान् विष्णु ने पूछा कि उन्हें क्या वरदान चाहिए। प्रचेताओं ने कहा:
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिष:॥
(श्रीमद्-भागवतम् 1.18.13)
“हम तो मर्त्य-भूमि के निवासी हैं, जहाँ जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है। हमारे लिए कौन-सा वरदान हो सकता है? हमारे लिए केवल एक ही वरदान है, भगवत्संगि-संगस्य, अर्थात् साधु-संग। स्वर्ग-लोक की प्राप्ति, या ब्रह्म-सायुज्य मुक्ति (नापुनर्भवम्) की तुलना भी एक क्षण के साधू-संग से नहीं की जा सकती है।”
जहाँ सूर्य, चन्द्र और जन्म-मृत्यु नियत है, वह मर्त्यपुर है। वहाँ के निवासियों के लिए साधु-संग ही एकमात्र वरदान है। प्रचेताओं ने कहा: “हमारे लिए साधु-संग ही एकमात्र आवश्यक वरदान है।” जड़ भरत, महाराज रहूगण से कहते हैं -
रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा।
नच्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यै-र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम् ॥
“हे राजा रहूगण, महापुरुषों के चरणकमलों की धूलि से सम्पूर्ण शरीर का मार्जन किये बिना परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य धारण करने, गृहस्थ जीवन के विधि-विधानों के अनुपालन, वानप्रस्थ के रूप में गृहत्याग अथवा संन्यास ग्रहण करने या शीत ऋतू में जल में घुसकर घोर तपस्या करने, या ग्रीष्म में अग्नि से घिरे रहने झुलसती धुप में पड़े रहने जैसी कठिन तपस्याओं से परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती। परम सत्य को जानने के और भी अनेक साधन हैं, किन्तु परम सत्य उसे ही प्राप्त होता है, जिसे किसी महान भक्त का अनुग्रह प्राप्त हो।” (श्रीमद्-भागवतम् 5.12.12)
यही एकमात्र वरदान है! भागवतम् के सातवें स्कंध में वर्णन है -
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ:।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत्॥
“जब तक भौतिकतावादी जीवन के प्रति झुकाव रखने वाले लोग ऐसे वैष्णवों के चरणकमलों की धुलि अपने शरीर में नहीं लगा लेते जो भौतिक कल्मष से पूर्णतया मुक्त हैं, तब तक वे भगवान् के चरणकमलों के प्रति आसक्त नहीं हो सकते जिनका यशोगान उनके अपने असामान्य कार्यकलापों के लिए किया जाता है। केवल कृष्णभावनाभावित बनकर एवं इस प्रकार से भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करके ही मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो सकता है।” (श्रीमद्-भागवतम् 7.5.32)
साधु-संग की महिमा
श्रीमद्भागवतम् में साधु-संग की महिमा का वर्णन है। स्त्रियों में आसक्त मनुष्य, योषित-संगी, स्त्री-संगी सदा भ्रमित रहता है, इसके विपरीत एकभागवत-संगी का भ्रम नष्ट हो जाता है। साधु-संग से आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है, उस पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यह साधु-संग की महिमा है। भागवत के दशम स्कंध में कहा गया है –
भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-ज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागम:।
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ परावरेशे त्वयि जायते मति:॥
“असंख्य ब्रह्माण्डों में असंख्य योनियों में जीव का जन्म चक्र तत्क्षण समाप्त हो जाता है, हे अच्युत! जब वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त करता है, क्योंकि उसके अन्तः में कृष्ण-भक्ति उत्पन्न होती है।” (श्रीमद्-भागवतम् 10.51.53)
अर्थात, जब जीव का इस भौतिक संसार और असंख्य योनियों में भ्रमण का काल समाप्त हो जाता है, तब उसे साधु-संग का अवसर प्राप्त होता है।
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव।
गुरुकृष्ण - प्रसादे पाय भक्तिलता - बीज॥
“लाखों-लाखों योनियों में भटकते हुए और असंख्य ब्रह्माण्डों में घूमते हुए, जब किसी जीव का सौभाग्य उदित होता है, तब उसे साधु-संग प्राप्त होता है” (चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला 19.151)
उपरोक्त श्लोक भी भागवतम् के सिद्धांत की पुष्टि करता है। जब जीव को साधु-संग प्राप्त होता है तो समझना चाहिए कि उसका सौभाग्य उदित हुआ है। अन्यथा वह साधु-संग के लिए नहीं आ सकता है।
हाय! मैं मायादास क्यों हूँ?
भक्तिस्तु भगवद्भक्तसङ्गेन परिजायते, भक्तों और साधुओं के संग से ही भक्ति उत्पन्न होती है। साधु के संपर्क और श्रवण के उपरान्त ही जीव भक्ति-पथ पर आता है। अन्यथा कोई भी भक्ति विकसित नहीं कर सकता है। भक्तों के संग से भौतिक वृत्ति समाप्त होती है, और जीव भगवान श्रीकृष्ण की ओर आकर्षित होता है।
एइ रूपे संसार भ्रमिते कोना जन।
साधु-सङ्गे निज-तत्त्व अवगत हन॥
निज-तत्त्व जानी’ दृढ संसार न चाय।
केन वा भजिनु माया करे हाय हाय॥
(श्री प्रेम-विवर्त 6.7–8)
महाप्रभु की परिभाषा सरल है: कृष्ण-तत्त्व वेत्ता ही गुरु है, येई कृष्ण-तत्त्व-वेता, सेई ‘गुरु’ हय। जब कोई जीव किसी कृष्ण-तत्त्व-वित् साधु के संपर्क में आता है और उनसे श्रवण करता है, तब उस सौभाग्यशाली जीव को विदित होता है, “मैं कौन हूँ? मैं तो कृष्ण का दास हूँ।” तब वह विलाप करता है -“हाय! हाय! मैं माया-दास क्यों बन गया? अब और माया का संग नहीं करूँगा! मैं लाखों जन्मों तक माया-दास क्यों बना रहा? असंख्य जन्मों से मैं माया-दास हूँ! अब और नहीं!”
लेकिन प्रश्न यह है कि आप माया-दास क्यों बने? क्योंकि साधु के वाग्बाण आपके अन्तः हृदय में प्रवेश नहीं कर रहे हैं। भौतिक जीवन की परत अत्यंत कठोर हो चुकी है कि साधु की वाणी द्वारा सका भेदन नही हो पाया ।
माया शक्तिहीन हो जाती है
केन्दे बोले, ओहे कृष्ण! आमि तव दास
तोमार चरण छाड़ि’ हइल सर्व-नाश॥
तब वह कृष्ण के सम्मुख क्रंदन करता है, "हे कृष्ण! मैं आपका दास हूँ। परन्तु, आपके चरणों की उपेक्षा करके मैंने अपना ही विनाश कर लिया है।” (श्री प्रेम-विवर्त 6.9)
अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥
“हे नन्द-तनुज! मैं आपका किंकर हूँ, किन्तु मैं इस भयावह भौतिक सागर में गिरा पड़ा हूँ और अनंतकाल से डूब रहा हूँ। कृपया मुझे अपने चरण-कमलों की रज का एक कण के रूप में स्वीकार करें। अपने तुच्छ दास को अपनी सेवा में नियुक्त करे।” (शिक्षाष्टक 5)
साधु के सम्पर्क तथा उनसे श्रवण के उपरांत जीव तत्त्वतः समझ पाता है कि 'मैं कृष्ण-दास हूँ।' फिर वह इस प्रकार प्रार्थना करता है। तब कृष्ण विचार करते हैं- अब यह जीव मेरे लिए क्रंदन कर रहा है। कृष्ण येना चित्-शक्तिर अबल माया होय दुर्बल, उस समय चित्-शक्ति प्रकट होती है। भक्त अत्यन्त सशक्त हो जाता है और माया पूरी तरह शक्तिहीन हो जाती है।
Add New Comment