भगवान् जगन्नाथ की स्नान यात्रा का रहस्य

आज स्नान-पूर्णिमा है, भगवान जगन्नाथ की स्नान-यात्रा। आज के दिन, जगन्नाथ पुरी में भगवान जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा देवी को सार्वजनिक रूप से स्नान कराया जाता है। उन्हें इस दिन सार्वजनिक रूप से स्नान क्यों कराया जाता है? इसका क्या रहस्य है?

भक्त: आज भगवान जगन्नाथ का प्राकट्य दिवस है।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ। आज भगवान जगन्नाथ का प्राकट्य दिवस है। जगन्नाथ कृष्ण ही हैं, लेकिन कृष्ण भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन प्रकट हुए थे, तो फिर जगन्नाथ का प्राकट्य आज कैसे है?

भक्त: आज भगवान् कृष्ण के जगन्नाथ स्वरूप का प्राकट्य दिवस है।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ। आज भगवान् जगन्नाथ, बलदेव और देवी सुभद्रा दारू स्वरूप में प्रकट हुए थे। स्कंद पुराण में इसका विस्तृत वर्णन है। इसलिए आज के दिन उन्हें सार्वजनिक स्नान कराया जाता है। इस स्नानोत्सव के पश्चात, भगवान जगन्नाथ 15 दिनों तक दर्शन नहीं देते हैं, क्योंकि वे रुग्ण होने की लीला करते हैं। पंद्रह दिनों पश्चात, वे अपने नव-यौवन वेश में रथ-यात्रा के समय दर्शन देते हैं।

 

आज हमें स्कंद पुराण से भगवान जगन्नाथ को ये प्रार्थनाएँ अर्पित करनी चाहिए और उनकी कृपा याचना करनी चाहिए। आप सभी मेरे साथ दोहराएँ और जगन्नाथ की कृपा प्राप्त करें।

 

श्रीजगन्नाथ प्रणाम

 

देव-देव जगन्नाथ, प्रपन्नार्ति विनाशन।

त्राहि मां पुण्डरीकाक्ष, पतितं भवसागरे॥

हे देवों के देव, हे जगन्नाथ!  कृपया मेरे कष्टों का विनाश कीजिये। हे कमलनयन! इस दीन, पतित जीव का इस भव संसार-सागर से उद्धार कीजिये।

 

नमः ते जगदाधार

जगतात्मन् नमोऽस्तु ते।

कैवल्य त्रिगुणातीत

गुणाञ्जन नमोऽस्तु ते॥

हे समस्त ब्रह्माण्ड के आधार! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे जगतात्मन्! मैं विनम्रतापूर्वक आपकी वंदना करता हूँ। आप न केवल त्रिगुणात्मक प्रकृति से परे हैं, अपितु निर्गुण ब्रह्म से भी श्रेष्ठ हैं। आप दिव्य, अद्भुत और अलौकिक गुणों से सुशोभित हैं। आपको मेरा सादर प्रणाम! 

 

करुणामृत-पाथोधि

सुधाम्ने नमो नमः।

दीनोद्धारैक-गुह्याय

कृपा-पाथोधये नमः॥

हे करुणामृत-सागर! हे सर्वाकर्षक धामवासी प्रभु!, मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। आप ही पतित जीवों के एकमात्र उद्धारक हैं, परंतु कोई नहीं जान सकता कि आप यह कैसे करते हैं। हे कृपा-सिंधु! मैं आपको सादर नमन करता हूँ।

 

परित्राहि जगन्नाथ

दीनबन्धो नमोऽस्तु ते।

निस्तीर्णोऽहं भवाम्बोधिं

प्राप्य त्वां तरणिं सुखम्॥

हे प्रभु जगन्नाथ! कृपासिंधु! मेरा उद्धार कीजिये। हे दीनबन्धु! आपको बारंबार प्रणाम! मुझे इस विशाल भवरूपी संसार-सागर से तार दीजिए। आपके दिव्य चरण कमलों में शरणागत होकर मुझे परम आनंद प्राप्त होगा। (स्कंद पुराण

जय जगन्नाथ!

 

श्रीबलदेव प्रणाम

अब हम श्रीबलदेव को प्रणाम अर्पित करेंगे-

 

नमस्ते तु हलग्राम

नमस्ते मुसलायुध।

नमस्ते रेवतीकांत

नमस्ते भक्तवत्सल॥

हे हलधर! आपको प्रणाम। हे मूसल धारण करने वाले प्रभु! आपको नमन। हे रेवतीनाथ! हे भक्तवत्सल! आपको बारंबार प्रणाम।

 

नमस्ते बलिनां श्रेष्ठ

नमस्ते धरनीधर।

प्रलम्बरे नमस्ते तु

त्राहि मां कृष्णपूर्वज॥

मैं भगवान बलराम को सादर प्रणाम करता हूँ, जो पराक्रमी वीरों में श्रेष्ठ और धरणीधर हैं। हे प्रलंबासुर के संहारक! आपको नमन। हे श्रीकृष्ण के अग्रज! कृपा कर मेरा उद्धार कीजिए। (स्कंद पुराण)

जय बलदेवजी की जय!

 

श्री सुभद्रा प्रणाम 

अब हम सुभद्रा देवी को प्रणाम अर्पित करंगे।

 

देवि त्वं विष्णु-मायाऽपि

मोहयन्ती चराचरम्।

हृत-पद्मासन-संस्थासी

विष्णु-भावानुसारिणी॥

हे देवी! आप भगवान विष्णु की दिव्य माया हैं, जो संपूर्ण चराचर जगत को मोहित कर देती हैं। आपके हृदय कमलासन पर भगवान विष्णु के प्रति महान प्रेममयी भक्ति विराजमान है।

 

जय देवि भक्तिदात्री

प्रसीद परमेश्वरि।

जय देवि सुभद्रे त्वं

सर्वेषां भद्रदायिनी॥

हे भक्तिदात्री देवी! आपकी सदा जय हो। आप परमेश्वरी के रूप में प्रसिद्ध हैं। हे सुभद्रा देवी! समस्त जीवों को मंगल प्रदान करने वाली माता! आपको कोटि-कोटि प्रणाम। (स्कंद पुराण)

सुभद्राजी की जय!

 

श्री सुदर्शन प्रणाम

सुदर्शन महाज्वाल

कोटिसूर्यसमप्रभ।

अज्ञान-तिमिरान्धानां

वैकुण्ठाब्धि प्रदर्शक॥

हे सुदर्शन! आपकी तेजोमयी प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान दैदीप्यमान है। आप अज्ञान के अंधकार को नष्ट कर वैकुण्ठ के सनातन लोक का मार्ग प्रकाशित करते हैं।

 

नमस्ते नित्यविलसद्

वैष्णवास्त्र-निकेतन।

अवार्यवीर्यं यद्रूपं

विष्णोस्तत् प्रणमाम्यहम्॥

मैं उस तेजोमय सुदर्शन चक्र को सादर प्रणाम करता हूँ, जो वैष्णवों की सब प्रकार से रक्षा करता है। मैं भगवान विष्णु के अप्रतिहत शक्तिसंपन्न दिव्यास्त्र को विनम्रतापूर्वक नमन करता हूँ। (स्कंद पुराण)

सुदर्शनजी की जय!

जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा देवी, सुदर्शन की जय!

 

तीनों का स्वरूप अद्भुत क्यों हैं

भगवान जगन्नाथ स्वयं श्रीकृष्ण हैं। तो फिर, जगन्नाथ, बलराम और उनकी बहन सुभद्रा ने ऐसा विशाल नयन व संकुचित हस्त-पाद युक्त अद्भुत रूप क्यों धारण किया है? वे इस महाभाव स्वरूप में क्यों हैं? 

भक्त: वास्तव में जगन्नाथ रूप में श्रीकृष्ण, राधारानी से तीव्र विरह-भावना की अनुभूति कर रहे  हैं।

श्री श्रीमद गौर गोविंद स्वामी: अच्छा, कृष्ण को विरह अनुभव हो रहा है। लेकिन बलराम और सुभद्रा ने यह रूप क्यों धारण किया है?

भक्त: हमने एक प्रचलित कथा सुनी है। 

श्री श्रीमद गौर गोविंद स्वामी: कौन-सी कथा? 

भक्त: यह कथा वृंदावन में सुनाई जाती है। 

श्री श्रीमद गौर गोविंद स्वामी: अरे बाबा! भगवान् जगन्नाथ इस स्वरूप में क्यों हैं? भगवान जगन्नाथ के इस स्वरूप में प्राकट्य का रहस्य क्या है? 

भक्त: यह भगवान का अपूर्ण रूप है। 

श्री श्रीमद गौर गोविंद स्वामी: परन्तु, विग्रह अपूर्ण क्यों है?

भक्त: क्योंकि राजा (महाराज इंद्रद्युम्न) ने वचन दिया था कि...

श्री श्रीमद गौर गोविंद स्वामी: यह वास्तविक कारण नहीं है! (भक्तगण हंसते हैं) सब कुछ भगवान की इच्छा से घटित होता है, तो फिर भगवान ने यह अद्भुत रूप क्यों धारण किया? यह वास्तविक कारण नहीं है कि राजा की प्रतिज्ञा (भंग) के कारण विग्रह अपूर्ण रह गए। यह तो केवल बाह्य कारण है। आपको भगवान के इस स्वरूप का वास्तविक रहस्य समझना चाहिए।

 

कृष्ण का हृदय सदा व्रजभूमि  में है 

श्रीकृष्ण व्रजभूमि  छोड़कर सर्वप्रथम मथुरा, और फिर वहाँ से द्वारका चले गए। द्वारका में, उन्होंने सोलह हजार से अधिक रानियों से विवाह किया। सभी रानियाँ अत्यंत प्रेम और भक्ति से उनकी सेवा करती थीं, परन्तु फिर भी कृष्ण द्वारका में प्रसन्न नहीं थे। उनका शरीर तो द्वारका में था, परंतु मन और हृदय सदा व्रजभूमि  में श्रीमती राधारानी, नंद बाबा, यशोदा मैया और ग्वाल-बालों के साथ था। क्योंकि वे सब उन्हें अतिशय प्रेम करते थे। कृष्ण निद्रावस्था में प्रेम-विभोर होकर अस्फुट शब्दों में - राधे! राधे! राधे! गोपी! गोपी! गोपी! - पुकारने लगते थे। उनकी रानियाँ आश्चर्यचकित होकर सोचतीं— "यह क्या हो रहा है? हम श्रीकृष्ण की इतनी प्रेमपूर्वक सेवा करती हैं, फिर भी हमारे प्रियतम ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं? यह ‘राधे’, ‘गोपी’ कौन हैं?"

 

रानियों का प्रेम ज्ञान और ऐश्वर्य से मिश्रित है

द्वारका की रानियाँ व्रज प्रेम को नहीं समझ सकती हैं, व्रज की लीलाओं में उनकी पहुँच नहीं है क्योंकि वे सब ऐश्वर्य-मयी हैं। जबकि व्रज-लीला, माधुर्य-मयी-लीला है, जहाँ ऐश्वर्य या वैभव का कोई स्थान नहीं है। व्रजभूमि में ऐश्वर्य, माधुर्य द्वारा आच्छादित है जबकि मथुरा और द्वारका में माधुर्य, ऐश्वर्य द्वारा आच्छादित है। इसलिए द्वारका की रानियों यथा रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती इत्यादि की व्रजभूमि में पहुँच नहीं है। व्रज की गोपियाँ, जिनमें राधारानी प्रधान हैं, सभी माधुर्य-मयी हैं। उनका शुद्ध प्रेम, ज्ञान और ऐश्वर्य से मिश्रित नहीं है जबकि द्वारका में रानियों का प्रेम ज्ञान और ऐश्वर्य से मिश्रित है। इसलिए यह शुद्ध नहीं है। जब प्रेम, ज्ञान और ऐश्वर्य से मिश्रित होता है, तो प्रीति संकुचित हो जाती है।

 

व्रज-लीला उन्मादित करने वाली है

इस रहस्य को जानने की इच्छा लिए कि कृष्ण कभी-कभी "राधे, राधे, गोपी, गोपी!" क्यों पुकारते हैं, सभी रानियाँ एक दिन रोहिणी माता के पास गईं और पूछा, "माँ, कृपया हमें बताएं कि कृष्ण सदा ऐसा आश्चर्यमय व्यवहार क्यों करते हैं? यद्द्यपि हम अत्यंत सावधानी और सुन्दर भाव से उनकी सेवा करती हैं।"

 

माता रोहिणी ने उत्तर दिया, "ओह, व्रज-लीला अति माधुर्य-मयी-लीला है। यह अमृतमय और मदमस्त करने वाली है। मैं इसका वर्णन कैसे कर सकती हूँ? यह इतनी आकर्षक है कि यदि मैं इसका वर्णन करुँगी, तो स्वयं कृष्ण और बलराम भी इसे सुनकर आकर्षित हो जाएँगे।"

 

"कृपया हमें विस्तार से सुनायें। यद्यपि हमारी इन लीलाओं में पहुँच नहीं है, हम रास नृत्य में भाग भी नहीं ले सकती हैं। यद्यपि हमारी योग्यता नहीं हैं, लेकिन कम से कम हम इनके बारे में श्रवण तो कर सकते हैं।" इस प्रकार उन्होंने माता रोहिणी से श्रवण का अनुरोध किया। रोहिणी माता सहमत हो गईं और कहा, "ठीक है।"

 

सुभद्रा ने प्रवेश द्वार अवरुद्ध किए

तब कृष्ण की सभी भार्या एक विशाल सभागार में एकत्रित हुईं। माता रोहिणी ने कहा, "मैं तुम्हें एक शर्त पर कथा सुनाऊँगी। जैसा मैंने पहले ही कहा कि यह लीला इतनी मनोहर है कि कृष्ण और बलराम भी इसे सुनकर मोहित हो जाएंगे। यदि वे दोनों यहाँ आ गए तो सब कुछ चौपट हो जाएगा और मैं आगे कथा नहीं सुना पाऊंगी। अतः तुममें से किसी एक को प्रवेश द्वार पर पहरा देना होगा और जैसे ही कृष्ण और बलराम इधर आएं, तो मुझे कथा रोकने का संकेत देना होगा।" सभी रानियों की कथा सुनने में अत्यंत रुचि थी, तो फिर द्वार पर कौन खड़ा होगा? सबने सुभद्रा देवी से अनुरोध किया, "कृपया आप द्वार पर खड़ी हो जाएँ।" सुभद्रा सहमत हो गईं और अपनी भुजाएँ तानकर प्रवेश द्वार अवरुद्ध कर दिए।

 

सुभद्रा रोहिणी को संकेत नहीं कर सकीं

माता रोहिणी ने कृष्ण की मादनीय लीलाओं का वर्णन प्रारम्भ किया। सभी रानियाँ एकाग्रचित्त होकर सुनने लगी। यहाँ तक कि सुभद्रा भी व्रज-लीला सुनते-सुनते द्वार पर ही भावविभोर हो गईं। उनके हाथ और पैर शरीर में संकुचित हो गए, और उनके नेत्र विस्तीर्ण हो गए।

 

कथा के मध्य में ही, कृष्ण और बलराम द्वार पर आ गए। लेकिन सुभद्रा, जो पहले से ही कथा के मद में मदहोश थीं, माता रोहिणी को कथा रोकने का संकेत नहीं कर सकीं। देवी सुभद्रा के एक ओर श्रीकृष्ण और दूसरी ओर श्रीबलराम ने खड़े होकर माता रोहिणी से कथा का श्रवण किया, "ओह! व्रज-लीला कितनी मधुर है!" तत्पश्चात वे दोनों भी भावविभोर हो गए। उनके भी हाथ और पांव शरीर में संकुचित व नेत्र विशाल हो गए। इस तरह जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा महाभाव स्वरूप में द्वार-मार्ग में स्तब्ध खड़े रह गए।

 

नारद का अनुरोध

उसी क्षण, श्री नारद मुनि ने दूर से जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के इस अद्भुत स्वरूप, महा-भाव-प्रकाश का दर्शन किया। परन्तु, जैसे ही नारद निकट पहुँचे, उनका महा-भाव स्वरूप अदृश्य हो गया और वे तीनो अपने स्वाभाविक रूप में परिवर्तित हो गए। नारद ने कहा, "मैंने इन अद्भुत स्वरूपों का दर्शन प्राप्त किया हैं! हे प्रभु! मेरी इच्छा है कि ये रूप पुनः प्रकट हों और सभी इन रूपों की पूजा करे।" इस प्रकार नारद जी ने, जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के पुनः प्रकट होने का अनुरोध किया।

 

विरह की तीव्र पीड़ा

कृष्ण सर्वदा राधारानी का चिंतन करते थे और गोपियों व राधारानी से विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव करते थे। इसी तरह व्रजभूमि में, राधारानी और गोपियाँ भी कृष्ण से विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव करती थीं। कभी-कभी एक दूसरे का चिंतन करते हुए राधा और कृष्ण अचेत हो जाते थे।

 

कृष्ण की चेतना वापस कैसे आएगी?

एक दिन कृष्ण मूर्छित होकर गिर पड़े और अचेत हो गए। दैवयोग से नारद मुनि और उद्धव वहाँ पर आए। दोनों ही कृष्ण के बहुत प्रिय भक्त हैं। वे दोनों सर्वज्ञ हैं, इसलिए वे समझ गए कि कृष्ण राधारानी का चिंतन करते हुए विरह की तीव्र पीड़ा अनुभव कर रहे थे, इसलिए वे मूर्छित हो गए हैं।

 

कृष्ण लीला-पुरुषोत्तम हैं। अब वे एक अन्य अद्भुत रहस्यमयी लीला प्रकट करने वाले थे। फिर भी नारद और उद्धव दोनों चिंतित थे कि कृष्ण की चेतना वापस कैसे आएगी। इसी बीच बलराम भी आ गए और नारद और उद्धव के साथ मिलकर विचार-विमर्श करने लगे कि कृष्ण को पुनः चेतना में वापस कैसे ला सकते हैं। वे तीनों इस बात पर सहमत हुए कि नारद मुनि अपनी वीणा बजाते हुए (व्रज-लीला) का गान करेंगे, तब कृष्ण निश्चित रूप से चेतना में वापस आ जायेंगे।

 

नारद मुनि ने कहा, " ठीक है, मैं कथा गान करूँगा, परन्तु एक संशय है।" "जैसे ही कृष्ण पुनः चेतना में आएंगे, वे तुरंत ही व्रजभूमि की ओर भागना शुरू कर देंगे। हमें कृष्ण के सारथी दारुक को सूचित कर देना चाहिए की वह रथ तैयार रखे।"

 

उद्धव की चिंता 

उद्धव ने गहन चिंतन के बाद कहा, "आप उचित कह रहे हैं, लेकिन व्रज की गोपियाँ, विशेष रूप से राधारानी, श्रीकृष्ण के विरह में अत्यंत पीड़ा का अनुभव कर रही हैं। उनकी स्थिति अब अत्यंत दयनीय हो गई है। वे अति दुर्बल और मरणासन्न अवस्था में पहुँच चुकी हैं। यदि श्रीकृष्ण उन्हें इस अवस्था में देखंगे, तो वे यह दृश्य सहन नहीं कर पाएंगे। वहाँ की स्थिति इतनी गंभीर होगी कि हम कृष्ण को वापस द्वारका लाने में असमर्थ होंगे।" 

 

नारदजी बोले, "हे उद्धव! आप श्रीकृष्ण के दूत हैं। कृष्ण ने आपको पूर्व में भी प्रेम-पत्र लेकर व्रज भूमि भेजा था। अतः मेरा सुझाव है कि आपको सर्वप्रथम व्रज भूमि जाना चाहिए और समस्त व्रज वासियों को यह शुभ समाचार देना चाहिए कि श्रीकृष्ण द्वारका से प्रस्थान कर चुके हैं और शीघ्र ही व्रज भूमि पहुँचने वाले हैं।"

 

यह सुनकर उद्धव उदास हो गए और बोले, "नारदजी, आपके कथन से मैं पूर्णतया सहमत हूँ, क्योंकि आप एक शुद्ध भक्त हैं। लेकिन मेरे मन में एक चिंता अवश्य है।"

नारदजी ने पूछा, "कैसी चिंता?" 

उद्धव बोले, "आपको ज्ञात होगा, जब श्रीकृष्ण ने मुझे मथुरा से व्रज वासियों के पास प्रेम-पत्र लेकर भेजा था, तब मैं तीन मास तक व्रज भूमि में रहा। मैं वहाँ व्रज वासियों को सांत्वना देने गया था, परंतु मैं उन्हें क्या सांत्वना दे सका? व्रज वासी कृष्ण-विरह की तीव्र वेदना में डूबे हुए थे और निरंतर श्रीकृष्ण के लिए क्रंदन कर रहे थे। भौतिक जगत में, जब कोई व्यक्ति विलाप करता है, तो उसके मित्र पूछते हैं, 'तुम क्यों विलाप कर रहे हो?' सम्भवतः उसका उत्तर होगा, 'मेरी पत्नी का निधन हो गया है।' तब हम उसे सांत्वना देते हुए कहते हैं, 'यह तो स्वाभाविक है, यह संसार नश्वर है, सब कुछ एक न एक दिन समाप्त हो जाता है, अतः नश्वर वस्तु के लिए शोक क्यों कर रहे हो?' परंतु, व्रज वासियों को मैं क्या सांत्वना दे सकता था? मैं उनसे कैसे कहता कि 'कृष्ण के लिए क्रंदन मत कीजिए'? ऐसा कहना तो महान अपराध होगा!"

 

श्रीकृष्ण से हमारा संबंध परिपूर्ण, प्रेममय और शाश्वत है। जब कोई भौतिक संबंध टूटता है, तो हम सांत्वना दे सकते हैं, लेकिन मैं कृष्ण से शाश्वत सम्बन्ध में बंधे हुए व्रज वासियों को क्या सांत्वना देता? मैं उनसे कैसे कहता कि ‘विलाप मत कीजिए’? अपितु, मुझे कहना चाहिए था – अत्यधिक क्रंदन करें!

 

यह श्रीमन महाप्रभु की शिक्षा है। यदि क्रंदन करना है, तो श्रीकृष्ण के लिए करें। इसी भाव में महाप्रभु स्वयं भी श्रीकृष्ण के विरह में निरंतर रूदन करते थे। वे राधा-भाव में कृष्ण-विरह की तीव्र वेदना को अनुभव करते थे। 

 

उद्धव आगे बोले,"मैं वहाँ कुछ भी करने में असमर्थ था। निराश होकर मैंने कहा, 'ठीक है, मैं वापस जा रहा हूँ। मैं श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण वृतान्त बताऊँगा और उनसे निवेदन करूँगा कि वे तुरंत व्रज जाएँ।' मैंने व्रज वासियों को यह वचन दिया था, परंतु श्रीकृष्ण अभी तक भी व्रज भूमि नहीं गए। अब यदि मैं पुनः वहाँ जाकर श्रीकृष्ण के आगमन का समाचार दूँगा, तो वे मुझ पर कदापि विश्वास नहीं करेंगे। अपितु वे मुझे मिथ्यावादी ठहराएँगें और कहेंगे, 'आपने हमें पूर्व भी कहा था कि आप श्रीकृष्ण को शीघ्र भेजेंगें, लेकिन वे कभी नहीं आए। और अब आप पुनः वही दोहरा रहे हैं कि कृष्ण आएँगें?' वे मेरी आलोचना करेंगे, और मुझे सदोष कहेंगे। अतः मैं वहाँ कैसे जा सकता हूँ?"

 

बलरामजी का हृदय टूट गया

नारद और उद्धव का संवाद बलराम जी सुन रहे थे। तब दोनों ने बलरामजी से, पूछा—"बलराम प्रभु, आप व्रज क्यों नहीं जाते?" उनका यह अनुरोध सुनते ही बलरामजी का हृदय टूट गया। उन्होंने उत्तर दिया, “मैं नहीं जा सकता हूँ, अन्यथा मैं इतने दिनों तक प्रतीक्षा नहीं करता। आपके प्रभु श्रीकृष्ण केवल कहते भर हैं कि वे व्रज जाएँगे, लेकिन कभी जाते नहीं हैं। एक बार, जब मैंने देखा कि श्रीकृष्ण व्रज नहीं जा रहे हैं, तो मैं स्वयं वहाँ गया।" बलरामजी बोले— "मैं व्रजवासियों को सांत्वना  देने गया था। मैं वहाँ कुछ दिन व्यतीत भी किए और उनसे कहा, “कृपया शोक मत करें, धैर्य रखें। श्रीकृष्ण अवश्य आएँगे”। परंतु व्रजवासी तो जल के बिना मछलियों के भाँति तड़प रहे हैं। श्रीकृष्ण ही उनके एकमात्र प्राण हैं। अब वे श्रीकृष्ण के वियोग में अत्यंत दुःख और पीड़ा से व्याकुल हो रहे हैं। वे इतनी दुःखद अवस्था में हैं कि जैसे अब उनका जीवन समाप्त होने वाला है। मैं समझ गया कि श्रीकृष्ण के बिना उनकी इस स्थिति का संवर्धन नहीं हो सकता है।

 

व्रज में केवल श्रीकृष्ण की उपस्थिति ही उन्हें पुनः जीवन प्रदान कर सकती है। बलरामजी ने आगे कहा— "मैं विशेष रूप से माता यशोदा के पास गया, उनके चरणों में प्रणाम किया और कहा, “माँ, कृपया शोक ना करें। मैं द्वारका लौट रहा हूँ। मैं कृष्ण से अनुरोध करूँगा कि वे शीघ्र-अतिशीघ्र व्रज लौट आएँ” । मैंने कई बार कृष्ण से तुरंत व्रज भूमि जाने हेतु याचना की। प्रत्येक बार उन्होंने कहा, ‘हाँ, मैं जाऊँगा', परंतु वे कभी नहीं जाते। 

 

ऐसा नहीं है कि कृष्ण मेरी अवज्ञा करते हैं। इससे पूर्व, मैं कृष्ण से जो भी कार्य कहता था, वे तत्क्षण पूर्ण करते थे, परंतु इस अनुरोध पर उन्होंने आज तक विचार नहीं किया। वे केवल यही कहते रहते हैं कि, ‘हाँ, मैं जाऊँगा।’ अब मैं पुनः व्रज कैसे जाऊँ? माँ यशोदा से क्या कहूँ? मैं उनके समक्ष किस मुख से जाऊँ ? वे मेरे प्रति कैसी धारणा रखेंगीं? कृपया आप ही बताएँ।” यह कहते हुए बलरामजी विलाप करने लगे। उनका हृदय व्रजवासियों के प्रति सघन करुणा से पूरित हो गया।

 

सुभद्रा व्रजभूमि जाएँगी

इसी संवाद के मध्य, देवी सुभद्रा वहाँ पहुंची और बोली, "आप चिंतित ना हों, मैं व्रजभूमि जाऊँगी। मैं एक नारी हूँ, अतः मैं माता यशोदा को सांत्वना देने के योग्य हूँ। मैं उनके आंचल में बैठकर स्वयं अपनी साड़ी से उनके अश्रु पोंछूँगी और उनसे कहूंगी, “हे माँ, क्रंदन ना  करें, कृष्ण शीघ्र ही आ रहे हैं। कृष्ण के आगमन की समस्त व्यवस्था हो गई है। वे अनेक राजाओं के संग पधार रहे हैं। अनेक लोगों ने कृष्ण के स्वागत हेतु प्रवेश द्वार सजाए हैं, इसलिए उन्हें आने में थोड़ा विलम्ब होगा। मैं आपको यह सूचित करने के लिए पूर्व ही पहुँच गई हूँ। कृपया धैर्य रखें, व्याकुल ना  हों!”।

 

तत्पश्चात मैं गोपियों के पास जाऊँगी और उन्हें कहूँगी, “कृष्ण आ रहे हैं, वे शीघ्र ही यहाँ उपस्थित होंगे। आप सब जानती हो कि पुरुष स्वभावतः कुटिल होते हैं, लेकिन हम स्त्रियाँ बहुत सरल हैं” । मुझ स्त्री के वाक्यों पर मेरी बहनें अवश्य विश्वास करेंगी। “अतः आप सब कृष्ण के भव्य स्वागत की तैयारी में संलग्न हो जाइए और एक बृहत् उत्सव का आयोजन करें” । मैं उन्हें इस प्रकार व्यस्त रखने की कोशिश करूँगी ताकि वे और अधिक विलाप ना करें। नारद, उद्धव और बलराम ने सामवेत स्वर में कहा, " यह सुन्दर प्रस्ताव है।"

 

सुभद्रा अकेली क्यों जाएँगी?

बलदेव प्रभु का व्रजभूमि से अतिशय प्रेम और स्नेह है। गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद बलराम ने कहा, "सुभद्रा अकेली क्यों जाएँगी? मैं भी उनके साथ जाऊँगा।" अतः बलराम और सुभद्रा के लिए दो रथ तैयार किए गए। इसीलिए रथ-यात्रा के समय सर्वप्रथम बलराम, तत्पश्चात सुभद्रा, और अंत में जगन्नाथ का रथ मंदिर से बाहर आता है। तीनों रथ अति सुन्दर ढंग से सुसज्जितत किए गए। उद्धव और नारद ने कहा, "बलदेव और सुभद्रा को अभी जाना चाहिए। अंतराल में, हम कृष्ण को भेजने की व्यवस्था करेंगे। हम आपको वचन देते हैं।"

 

कृष्ण ने सुमधुर राधा-प्रेम रस का पान किया

तत्पश्चात बलराम और सुभद्रा अपने-अपने रथ पर सवार हुए और व्रज की ओर निकल पड़े, तब  नारद मुनि ने अपनी वीणा से व्रज-लीला, प्रेम-लीला, माधुर्य-लीला का कीर्तन आरम्भ किया। जैसे ही कीर्तन कृष्ण के कर्णों में प्रविष्ट हुआ, उनकी चेतना तुरंत वापस आ गयी। वे उछलकर खड़े हो गए और उनका शरीर तीन स्थानों से वक्रित हो गया, त्रिभंग भंगिमा। उन्होंने कहा, “अरे! मेरी मुरली कहाँ है? मेरी मुरली कौन ले गया?” कृष्ण अपनी त्रिभंग-भंगिमा व मुरली केवल व्रजभूमि में धारण करते हैं, द्वारका और मथुरा में नहीं।             

 

“मेरी मोहन-मुरली कहाँ है? इसे किसने चोरी किया? यह अवश्य ही गोपियों का काम होगा।” “हे गोपियों! हे राधे!” कहते हुए कृष्ण विह्वल हो गए और भागने लगे। कृष्ण सदैव व्रजभूमि, गोपियों और राधारानी का चिंतन करते रहते हैं, परन्तु वे भूल गए थे कि इस समय वे द्वारका में हैं। इसलिए वे पूछ रहे थे, “मेरी मुरली कहाँ है? गोपियों ने अवश्य ही उसे चुरा लिया होगा।”

 

फिर उन्होंने उद्धव और नारद को देखा और पूछा, “आप दोनों यहाँ व्रज में क्यों हैं?” कृष्ण पूर्णतया विस्मृत थे कि वे द्वारका में हैं। तब उद्धव और नारद ने कहा: “हे प्रभु! कृपया व्रज के लिए प्रस्थान कीजिए। आपका रथ तैयार है, कृपया इस पर विराजमान हों।”

 

कृष्ण सदैव राधारानी का चिंतन करते हुए राधा-प्रेम-रस का पान करते हैं। इसलिए वे एक मदिरा पान से उन्मत्त मतवाले पुरुष की भाँति प्रतीत हो रहे थे। नारद और उद्धव ने विह्वल कृष्ण को रथ पर चढ़ने में सहायता की। वे निरंतर “हे राधे, राधे!” का उच्चारण कर रहे थे। इस अवस्था में कृष्ण रथ पर विराजमान हुए तथा नारद और उद्धव ने सारथी दारुक से शीघ्र-अतिशीघ्र व्रजभूमि चलने के लिए कहा।

 

महा-भाव-प्रकाश

सुभद्रा और बलदेव अपने रथों पर पहले ही व्रजभूमि पहुँच चुके थे, और कृष्ण का रथ उनके पीछे-पीछे चल रहा था। यही रथयात्रा है। व्रजभूमि के चिंतन मात्र से ही बलराम भावविभोर हो गए। उनके हाथ और पैर संकुचित हो गए तथा उनके नेत्र फैल गए। यह महा-भाव-प्रकाश है, जब आंतरिक भाव बाह्य रूप से दृश्यमान होता है। भगवान् में देह और देही [आत्मा] का कोई भेद नहीं है। एक बद्ध जीव के देह और देही भिन्न होते हैं, परन्तु बलराम के देह और देही अभिन्न हैं। जो अन्तर्निहित है, वह बाह्यतः भी प्रकाशित होता है।

 

अतः बलराम ने विस्तृत नेत्र व संकुचित हस्त-पाद युक्त महा-भाव स्वरूप  प्रकाशित किया। सुभद्रा ने भी समान लक्षण दर्शाए। इस प्रकार, वे अपनी भावविभोर अवस्था में माता यशोदा के पास नहीं जा सकीं। व्रजभूमि का चिंतन करते हुए उनमें यह भाव उत्पन्न हुआ। यह व्रज-भाव, व्रज-माधुरीमा  विशाल सागर के सदृश है, तथा बलराम और सुभद्रा उस माधुर्य सागर में निमग्न थे। इस भाव को महा-भाव-प्रकाश कहते हैं।

 

राधारानी की मरणासन्न अवस्था

राधारानी मरणासन्न अवस्था में थीं। उनके जीवित होने के स्पष्ट संकेत नहीं थे। व्रजभूमि के सभी निवासी चिंतित थे। राधारानी की समस्त सखियाँ, विशेष रूप से अंतरंग अष्ट-सखियाँ, उनके चारो ओर किकर्तव्यविमूढ़ बैठी थी। “ओह, हमारी प्रिय सखी इस दयनीय अवस्था में है।” सिर झुकाए अष्ट-सखियाँ ऐसे बैठी थीं मानो उनके प्राण निकल गए हों। विशेष रूप से ललिता और विशाखा की दशा अत्यंत दयनीय थी। वे सब अपने प्राणों को कठिनाई से धारण किए हुए थीं, और धीरे-धीरे राधारानी के कानों में कृष्ण-नाम-कीर्तन कर रही थीं, “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।” कभी-कभी वे राधा की नासिका के नीचे रूई का एक टुकड़ा रखकर देखती थीं कि उनकी श्वास चल रही हैं या नहीं। राधारानी अपनी कुंज, निधुवन-कुंज में, ललिता-सखी की गोद में सिर रखकर लेटी हुई थीं और बहुत धीमी श्वास ले रही थीं ।

 

परकीया-रसास्वादन की अभिलाषा

उसी समय राधारानी के तथाकथित पति, अयन घोष, उनसे मिलने आए। राधा की दयनीय अवस्था को देखकर, अयन घोष जोर-जोर से क्रंदन करने लगे। उनके चरणों की धूल अपने मस्तक पर धारण करते हुए कहा: "हे, सर्व-पूजनीय राधे! मैंने कभी आपके शरीर को स्पर्श नहीं किया है। मेरा ऐसा भाग्य नहीं है।" कृष्ण के अतिरिक्त राधा रानी के शरीर को कोई भी स्पर्श नहीं कर सकता है। अयन घोष ने आगे कहा, "लेकिन आज मुझे आपके चरणों की धूल प्राप्त करने का अवसर मिला है, हे राधे! मेरा जीवन आज सफल हो गया।"

 

केवल परकीया-रस का आस्वादन करने के लिए ही कृष्ण ने इस लीला को प्रकट किया है। यह अकल्पनीय व्रज-लीला है। सभी गोपियाँ और राधारानी वास्तव में कृष्ण की भार्या हैं, लेकिन व्रजभूमि में वे अन्य पुरुषों से विवाहित प्रतीत होती हैं। इसलिए कृष्ण उनका प्रेम परपति के रूप में आस्वादन करते हैं।

 

तब अयन घोष ने कहा, "कृष्ण की इच्छा है कि वे परकीया-रस का आस्वादन करें। कृष्ण आपके शाश्वत पति हैं और आप उनकी पत्नी हैं। अतएव आप दोनों नित्य रूप से पति-पत्नी हैं, परन्तु कृष्ण की परकीया-रसास्वादन की इच्छा को पूर्ण करने हेतु पौर्णमासी ने वृंदा-देवी को हमारा विवाह संपन्न करने का आदेश दिया। यह विवाह मात्र एक दिखावा है, वास्तविक नहीं है। कृष्ण ही आपके वास्तविक पति हैं और आप उनकी पत्नी हैं। आप मेरे हृदय की देवी हैं। मैंने केवल राधारानी की छाया से विवाह किया है, वास्तविक राधारानी से नहीं। अब जब आप मरने की स्थिति में हैं, तो हमारा क्या होगा?"

 

ऐसा कहने के बाद, वे विलाप करते हुए जोर से बोले, "आज, सभी जन जान लें कि मैंने छाया-राधा से विवाह किया है!" जब रावण ने माता सीता का हरण किया, तो उसने वास्तविक सीता का हरण नहीं, बल्कि छाया-सीता, माया-सीता, का हरण किया था। इसी प्रकार, अयन घोष ने छाया-राधा से विवाह किया, वास्तविक राधा से नहीं। राधा ही कृष्ण की वास्तविक पत्नी हैं और कृष्ण उनके वास्तविक पति हैं, राधा-कान्त, राधानाथ

 

कुटिला का अभिमान

तत्पश्चात, अयन घोष की बहन कुटिला आई। वह राधारानी की तथाकथित ननद है। अश्रुपूरित कुटिला ने अपना मस्तक राधारानी के चरण कमलों पर रख दिया। उसने राधा के चरण कमलों की धूल से अपनी माँग को इस प्रकार सुशोभित किया जिस प्रकार विवाहित स्त्रियाँ अपनी माँग को सिंदूर से सुशोभित करती हैं।

 

गद्गद कंठ से कुटिला ने कहा, "हे राधे, मेरा अतिशय सौभाग्य है कि मैंने आपके चरण कमलों की धूल को अपनी माँग में धारण किया है। मैं वास्तव में आज सती नारी बन गई हूँ। अतिशय अभिमान वश मैं सोचती थी कि मैं ही एकमात्र पतिव्रता स्त्री हूँ। व्रजभूमि में कोई अन्य पतिव्रता स्त्री नहीं है। बाकी सब कुलटा हैं। मैं इस प्रकार का प्रचार किया करती थी और मैने आपको चरित्रहीन सिद्ध करने का प्रयास भी किया। यद्यपि आपने मेरे भ्राता से विवाह किया परन्तु, फिर भी आपने सदैव कृष्ण से प्रेम किया है। आप अपने पति की उपेक्षा करके कृष्ण के पास जाती थीं। इसलिए मैं आपको कुलटा और स्वयं को सती स्त्री मानती थी। यह मेरा अभिमान था, परन्तु राधे, आप सर्व-पूजनीय हैं! कृष्ण ही समस्त स्त्रियों के एकमात्र पति हैं।"

 

संन्यास ज्वर

फिर कुटिला ने एक कथा सुनाई, "एक बार एक अत्यंत अद्भुत घटना हुई। एक दिन कृष्ण ने ज्वर-लीला प्रकट किया। कृष्ण संन्यास रोग से ग्रस्त हो गए। मैं सब कुछ त्याग कर संन्यास ले लूंगा”। सभी चिंतित थे, 'इस ज्वर का उपचार कैसे किया जाए? तब कृष्ण ने स्वयं कहा, 'मुझे औषधि पता है.।'

अच्छा, वह औषधि क्या है?

"केवल एक शुद्ध सती-साध्वी स्त्री ही वह औषधि दे सकती है। उसे अनेकों छिद्रों वाले घड़े में यमुना से जल लाना होगा। यदि एक भी बूँद गिराए बिना वह जल लाने में सफल होती है, तो वही जल मेरी औषधि है। यदि आप उस जल को मेरे शरीर पर लेप करेंगे, तब मैं इस ज्वर से स्वस्थ्य हो जाऊँगा।"

 

कुटिला ने आगे कहा, “मुझे अपने सतीत्व पर बहुत गर्व था। मैं हमेशा कहा करती थी कि मैं सबसे पवित्र स्त्री हूँ, अन्य सब कुलटा हैं। समस्त व्रजवासियों ने पूर्ण विश्वास के साथ कहा, 'कुटिला को बुलाओ और छिद्र युक्त घड़े में जल लाने दो।' परन्तु, जब मैंने जल लाने का प्रयास किया, तो सारा जल बह गया, परिणामतः सिद्ध हुआ मै बिल्कुल भी पवित्र नहीं हूँ”।

 

कुटिला ने स्वीकार किया, "इस प्रकार मेरी अपवित्रता सिद्ध हुई, और मेरा अभिमान चूर-चूर हो गया। वास्तव में कृष्ण ने मेरे गर्व को चूर्ण करने के लिए ही यह ज्वर-लीला प्रकट की थी। फिर राधारानी को बुलाया गया। जब राधारानी यमुना से पानी लाने गईं, तो घड़े में सैकड़ों छेद होने पर भी एक बूंद नहीं गिरी।"

 

कुटिला ने राधारानी से आगे कहा, "अतः यह सिद्ध हो गया कि सम्पूर्ण विश्व में केवल आप ही वास्तविक पतिव्रता स्त्री हैं। योगमाया ने मेरे अभिमान को खंडित करने के लिए इस लीला को प्रकट किया। यद्द्यपि, आज मैं आपके चरणों की रज पाकर अति प्रसन्न हूँ, हे राधे! मेरा जीवन सफल हो गया।"

 

सबसे निंदित स्त्री

फिर, दूसरी दिशा से चंद्रावली दौड़ती हुई आई। चंद्रावली के पीछे शैब्या और अन्य सखियाँ थीं। चंद्रावली आते ही धम्म से धरती पर गिर पड़ी, अपना सिर राधारानी के चरणों में रख दिया। अपने आँसुओं से राधारानी के चरणों को भिगोते हुए, उसने कहा, "राधे, मैं कलंकिनी हूँ, मैं व्रजभूमि में सबसे निंदित स्त्री हूँ।"

 

व्रज में, हर कोई राधारानी की निंदा करता है। इसके प्रत्युत्तर में, वे कहती हैं, "को वा न याति यमुना पुलिनवने राधा-नाम-कलङ्कापवाद।" "कौन यमुना के किनारे पानी लाने नहीं जाता? लेकिन अगर मैं (राधा) जाती हूँ, तो मैं कुलटा कहलाती हूँ।" हर कोई कहता है, "ओह, वह एक वेश्या है। पानी लाने के बहाने वह कृष्ण से मिलने के लिए यमुना गई थी।"

 

इस तरह से लोग राधारानी पर आरोप लगाते थे, लेकिन चंद्रावली ने कहा, "नहीं, मैं निंदित हूँ। आप निंदित नहीं हैं; श्री कृष्ण आपके वास्तविक पति हैं। आप वामा हैं, इसलिए कभी-कभी कृष्ण आपके वाम स्वभाव का वर्धन करने के लिए मेरे कुंज में आते हैं। यह मेरा सौभाग्य है। आपके साथ यही मेरा (लीला) सम्बन्ध है। आज मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि मैं आपके चरण कमलों पर अपना सिर रख सकी। यद्द्यपि मैं कृष्ण की इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अति उत्सुक हूँ, फिर भी मैं सबसे अधिक निंदित हूँ। कृष्ण को आपसे से दूर करने का हेतु मैं हूँ। कृष्ण आपके पति हैं। यद्द्यपि कृष्ण कभी-कभी मेरे कुंज में आते हैं, लेकिन वे मुझसे सुखी नहीं हैं। वे केवल आपसे खुश हैं। कृष्ण स्वप्न में भी केवल आपका चिंतन करते हैं, मेरा नहीं।" वास्तव में कृष्ण जब चंद्रावली के साथ होते हैं, तब भी वे केवल राधारानी का ही चिंतन करते हैं।

 

चंद्रावली ने आगे कहा, "यह सब योगमाया द्वारा रचित लीला है। योगमाया ने कृष्ण सुख के लिए हम सभी को व्रजभूमि में जिस प्रकार नृत्य कराया है, हमने भी उसी प्रकार से नृत्य किया है। यहाँ हर कोई कृष्ण की लीला का पोषण करने में लगा हुआ है, कृष्ण सुख के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। मैंने सुना है कि आप प्राण त्यागने वाली हैं। यदि आपने प्राण त्याग दिए तो इस व्रजभूमि में कोई भी जीवित नहीं बचेगा, एक पशु भी नहीं। सभी मृत हो जाएंगे, और फिर कृष्ण कभी व्रजभूमि नहीं आएंगे। हम कृष्ण को फिर कभी नहीं देख पाएंगे। अतः कृपया प्राण मत त्यागिये।"

 

राधा-भाव के सागर में उत्प्लावित दारु

उसी क्षण, कृष्ण का रथ व्रजभूमि में पहुँचा। वे तुरंत अपने रथ से कूद पड़े। योगमाया ने एक और लीला प्रकट की। कृष्ण निधुवन में प्रकट हुए जहाँ राधारानी दयनीय अवस्था में लेटी हुई थीं। कृष्ण उनकी ओर दौड़ते हुए अपने मुख से निरंतर इन शब्दों का उच्चारण कर रहे थे, "राधे, राधे, देहि-पद-पल्लवम् उदारम्", "हे राधे! हे राधे! कृपया मुझे अपने चरण कमल दीजिए। मैं उन्हें अपने मस्तक पर रखना चाहता हूँ।" कृष्ण ऊँचें स्वर में यह शब्द कह रहे थे। इस प्रकार ऐसी अद्भुत लीला प्रकट हुई।

 

राधारानी के विरह में, कृष्ण पूरी तरह से भावविभोर हो गए। उनके हाथ-पांव उनके शरीर में संकुचित हो गए और एक कच्छप के समान प्रतीत होने लगे। यही जगन्नाथ स्वरूप है। बृहद नेत्रों से वे राधारानी को निहार रहे थे, जो कुंज में मृतप्राय लेटी हुई थीं। राधारानी की यह दशा देखकर, उन्होंने अपनी चेतना खो दी और भूमिपर गिर पड़े। इस  रूप  में, वे राधा से विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं। यही जगन्नाथ का स्वरूप है, राधा-भाव सिन्धुरे भासमान, राधा-भाव के सागर में तैरता हुआ दारु।

 

निधुवन-कुंज में विरह के बाद मिलन

कृष्ण के दिव्य शरीर पर मन्द-मन्द पवन बह रही थी। जब उस पवन का स्पर्श राधारानी के मृतप्राय शरीर को हुआ, तो उन्हें स्नेहिल औषधि का अनुभव हुआ। राधारानी की चेतना वापस लौट आई। श्रीमती ललिता ने राधारानी के कानों में अति मधुर स्वर में कहा, "कृष्ण आ गए हैं।" यह सुनकर, राधारानी ने शनैः शनैः अपने नेत्र खोले ताकि अपने प्राण-वल्लभ, कृष्ण के दर्शन कर सकें। इस औषधि से राधारानी ने अपना जीवन पुनः प्राप्त किया और उठकर बैठ गईं। चिरकाल की विरह पीड़ा, उन्हें तुरंत विस्मृत हो गई।

 

कृष्ण अभी भी कच्छप रूप में अचेत थे।  श्रीमती राधिका ने अपनी प्रियतम सखी विशाखा से कहा, "कृपया कृष्ण की सहायता करें।" विशाखा को उचित औषधि का बोध है। अत्यंत मधुर स्वर में उसने कृष्ण के कर्णों में "राधे, राधे, राधे" का जप प्रारम्भ किया। यह सुनते ही कृष्ण की चेतना पुनः जाग्रत हो गयी और उन्होंने अपने नेत्र खोले। श्यामसुंदर कृष्ण और राधारानी एक  दूसरे  की  ओर अभिमुख  हुए और उनका  आँखों  ही आँखों में संयोग हुआ। दोनों अपनी पूर्व दशा भूल गए। द्वारका में कृष्ण की विरह वेदना, और श्रीमती राधारानी का विरह दोनों तत्क्षण विदूरित हो गए। यह निधुवन-कुंज में राधा और कृष्ण का मिलन है।

 

निधुवन-कुंज में राधा और कृष्ण की रात्रि-लीलाएँ होती हैं। इसलिए सखियों ने राधा और कृष्ण के रात्रि विश्राम के लिए एक सुंदर शैय्या लगायी। ब्रह्म-मुहूर्त में कोयल ने अति मधुर ध्वनि में, "कूहू! कूहू!" बोलकर भोर होने का संकेत किया। "जागो! राधे, कृष्ण उठो!" तब दिव्य युगल उठते हैं। कृष्ण अपने श्यामासुंदर त्रि-भंग रूप में खड़े थे। उन्होंने पीत वर्ण की धोती पहनी हुई थी और सिर पर एक मोर-पंख धारण किया था। कृष्ण अपनी बाँसुरी पर मधुर ध्वनी बजा रहे थे, और उनके वाम भाग में नील वर्ण साड़ी पहने हुए राधारानी उपस्थित थीं। ललिता-सुंदरी पञ्च-प्रदीप आरती कर रही थीं। विशाखा, राधा और कृष्ण मिलन का सुंदर कीर्तन गा रही थीं, युगल-महिमा कीर्तन। इस मंगल-आरती के मध्य कुछ अन्य सखियाँ मृदंग, करताल, वीणा इत्यादि बजा रही थीं। लम्बे विरह के पश्चात यह सुंदर, अमृतमय मिलन था। कृष्ण ने राधारानी को एक झलक देखा और राधारानी ने अपने नयनों से कृष्ण के मुख कमल से उत्सर्जित मधु का पान किया।

 

तत्पश्चात, युगल जोड़ी एक दीप्तिमान दिव्य रत्न सिंहासन पर विराजमान हुई। विशाखा ने कीर्तन प्रारम्भ किया। सभी नर्म-सखियाँ भी कीर्तन में सम्मिलित हो गईं। विरह के समस्त पीड़ा विलोपित हो गई। विरह के बाद मिलन और मिलन के बाद पुनः विरह, व्रजभूमि में एक अति सुंदर अद्भुत माधुर्य-मय लीला है।

 

राधा प्रेम के सागर में निमग्न रूप

कृष्ण बहुत ही कुटिल व्यक्ति हैं। कृष्ण राधारानी के मुख कमल को निहार रहे थे। वे तिरछी निगाहों से उन्हें देखते हुए कामदेव के बाण चला रहे थे, ताकि राधारानी के हृदय को विदीर्ण कर सकें। जब राधा और कृष्ण दिव्य-शृंगासन पर बैठे थे, तो कृष्ण ने कहा, "हे राधे! तत्त्वतः आपके और मेरे मध्य कोई भेद नहीं है। आपके वाम्य-भाव को उच्चतम स्तर तक वर्धन करने हेतु, मैं ऐसी विरह लीला रचता हूँ। आप और मैं सदा साथ-साथ हैं, क्योंकि मेरे प्रति आपका प्रेम शुद्ध है। राधे, मेरे प्रति आपका प्रेम एक असीम सागर है और मैं उस सागर में डूबना चाहता हूँ एवं आपके अंतरतम हृदय में प्रवेश करना चाहता हूँ। इसके लिए ही मैंने जगन्नाथ का रूप धारण किया है और इस रूप में, मैं सदैव श्रीक्षेत्र में वास करूँगा।

 

राधा-विरह विधुर एवम कृष्ण-विरह विधुर

जगन्नाथ-विग्रह, राधा-विरह-विधुर  हैं अर्थात कृष्ण राधा से तीव्र विरह का अनुभव कर रहे हैं। दारु ब्रह्म के रूप में, वे राधा-भाव के सागर में तैर रहे हैं। "राधा-भाव का आस्वादन करने के लिए मैं जगन्नाथ पुरी धाम, नीलाचल-क्षेत्र में, इस कच्छप समान रूप में विशाल नेत्र और संकुचित हस्त-पाद रूप में रहता हूँ।"

 

कृष्ण ने राधा से आगे कहा, "आपके भाव और अंगकान्ति को धारण करके, मैं पुरी क्षेत्र में श्री कृष्ण चैतन्य के रूप में निवास करूँगा।" भगवान कृष्ण जगन्नाथ के रूप में, राधा से विरह की पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं, अर्थात राधा-विरह विधुर जबकि, कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में, कृष्ण से विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव कर रहेहैं, अर्थात कृष्ण-विरह विधुरराधा-विरह विधुर और कृष्ण-विरह विधुर दोनों पुरी क्षेत्र में अवतरित हैं। संन्यास के उपरांत महाप्रभु पुरी क्यों गए? क्योंकि वे राधा-भाव में हैं, वे सर्वदा कृष्ण के लिए क्रंदन करते हैं।

 

विप्रलम्भ-क्षेत्र

पुरी-क्षेत्र में, जगन्नाथ राधा के लिए और महाप्रभु कृष्ण के लिए क्रंदन कर रहे हैं। दोनों के  मिलन पर वे अपने  प्राण-वल्लभ  का  दर्शन  करते  हैं। जगन्नाथ ने चैतन्य महाप्रभु को अपना श्यामसुंदर रूप दिखाया। जगन्नाथ राधा-विरह विधुर हैं और चैतन्य कृष्ण-विरह विधुर हैं। दोनों विरह-विधुर एक साथ प्रकट  हुए हैं। इसलिए जगन्नाथ क्षेत्र विप्रलम्भ-क्षेत्र है। कृष्ण ने कहा, "मैं उस  क्षेत्र में राधा से विरह पीड़ा की अनुभूति में जगन्नाथ के रूप में प्रकट होऊँगा, और  वहीं मैं  चैतन्य महाप्रभु के रूप में भी रहूँगा। हे राधे, मैं आपकी अंगकान्ति से युक्त, कृष्ण से विरह का अनुभव करते हुए, आपके भाव को स्वीकार करूँगा। मैं अपने भाई बलराम और अपनी बहन सुभद्रा के साथ जगन्नाथ रूप में प्रकट होऊँगा, क्योंकि उन्होंने व्रजभूमि में इस मिलन में मेरी सहायता की है।"

 

आज के दिन तीनों दारु ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुए

आज ही के दिन जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा राधा-प्रेम के सागर में प्लावित तीन दारू ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुए थे। इसीलिए सार्वजनिक स्नान उत्सव होता है।

 

जय जगन्नाथजी की जय!

जगन्नाथजी स्नान-यात्रा महोत्सव की जय!

इस प्रकार यह लीला-रहस्य है। महाप्रभु रस-राज और मदनाख्य-महा-भाव मयी राधा का संयुक्त रूप हैं। तब भगवान ने कहा,

 

रसराज-महाभाव एक-तनु हइया

नाम-संकीर्तन रसे जगत मतइया

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे!

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे!!

"मैं वहाँ हरे कृष्ण का जप करता रहूँगा। मैं स्वयं उस अमृतमय प्रेमपूर्ण माधुर्य प्रेम-रस जो हरिनाम संकीर्तन से उत्सर्जित होता है, का आस्वादन करूँगा। मैं इसे समस्त आतुर सौभाग्यशाली जीवों को भी वितरित करूँगा। तुम सब व्रज-गोपियां और गोप, पुरुष रूपों में उपस्थित रहोगे और चैतन्य-लीला में मेरे पार्षदों के रूप में भाग लोगे। राय रामानंद विशाखा-सखी हैं, और स्वरूप दामोदर गोस्वामी ललिता-सखी हैं। इस प्रकार मैं जगन्नाथ पुरी-धाम में अपनी लीला करूँगा।"

 

बहुत-बहुत धन्यवाद।

हरे कृष्ण! जय जगन्नाथ! जय महाप्रभु!

 

प्रश्नोत्तर

भक्त: जगन्नाथ पुरी और वृन्दावन में क्या भेद है?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: जगन्नाथ क्षेत्र वृन्दावन से पृथक नहीं है। यह विरह-विधुर विप्रलम्भ-क्षेत्र है। विप्रलम्भ-क्षेत्र का उल्लेख वैष्णव-तंत्र में है,

 

मथुरा द्वारका लीला याह करोति च गोकुले

नीलाचल स्थितः कृष्णस्ता एव चरति प्रभुः

"कृष्ण गोकुल, मथुरा और द्वारका में जो लीलाएँ करते हैं, उन्हें नीलाचल-क्षेत्र में भी करते हैं।" जब जगन्नाथ महाप्रभु को देखते हैं, "ओह राधा! मेरी प्रिये पत्नी!" जब महाप्रभु जगन्नाथ को देखते हैं और जगन्नाथ उन्हें अपना श्यामासुंदर रूप दिखाते हैं, तो महाप्रभु कहते हैं, "ओह मेरे प्राण-वल्लभ! मेरे जीवन के स्वामी!" इस प्रकार वे एक-दूसरे से मिलते हैं।

भक्त: क्या नित्यानंद प्रभु की कोई विशेष भूमिका है?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ। नित्यानंद बलराम, बलदेव हैं। जगन्नाथ कहते हैं, "मैं अपने भ्राता और भगनी के साथ मैं पुरी में रहूँगा, क्योंकि उन्होंने इस लीला में मेरी सहायता की है।"

 

व्रजेन्द्र-नन्दन येइ, शची-सुत हइल सेइ,

बलराम हइल निताई

"कृष्ण अब श्री चैतन्य महाप्रभु, माता शची के पुत्र के रूप में आए हैं। और बलराम भगवान नित्यानंद के रूप में आए हैं।" (नरोत्तम दास ठाकुर, इष्ट देवे विज्ञाप्ति)

भक्त: क्या भगवान बलराम मूल गुरु हैं?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ।

भक्त: कहा जाता है कि बलराम आदि गुरु हैं, और राधारानी भी गुरु हैं। तो फिर, वास्तविक आदि-गुरु कौन हैं?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: गुरु के दो पहलू हैं: वे नित्यानंद राम के अभिव्यक्ति हैं, और राधा-प्रिय-सखी है।

 

निकुञ्ज-यूनो रति-केलि-सिद्ध्यै

या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया

तत्राति-दाक्ष्याद् अति-वल्लभस्य

वन्दे गुरोः श्री-चरणारविन्दम्

"श्री गुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्री श्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यंत श्रेष्ठता से संपन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों की मैं सादर वंदना करता हूँ।" (विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर, श्री गुरुवाष्टकम्, श्लोक 6)

 

गुरु राधा-प्रिय-सखी हैं। गुरु का द्वतीय स्वरूप नित्यानंद राम की अभिव्यक्ति है। बलदेव के हस्त कमल में हल है और कृष्ण के हाथ में बाँसुरी। हल का उपयोग खेत की जुताई करके खरपतवार निवारण के लिए किया जाता है। तत्पश्चात, भक्ति-लता-बीज रोपित किया जाता है। अतः खेत को बंजर मुक्त करने के लिए बलदेव का हल प्रथम आवश्यकता है। दो शब्द हैं - कर्षण और आकर्षण। कर्षण का अर्थ है खेत को उपजाऊ बनाना। तब कृष्ण की बाँसुरी आपको आकर्षित करेगी। अन्यथा, यदि खेत ठीक से नहीं जोता गया है, बंजर युक्त है, तो कृष्ण की बाँसुरी आपको आकर्षित नहीं कर सकती है। अतः कर्षण और आकर्षण, अर्थात कृष्ण और बलराम, दोनों की कृपा आवश्यक हैं। इसीलिए, श्रील प्रभुपाद ने भुवनेश्वर क्षेत्र में कृष्ण बलराम मंदिर की आधारशिला रखने के लिए नित्यानंद प्रभु के प्राकट्य दिवस की प्रतीक्षा की। कृष्ण-बलराम मंदिर में दोनों उपस्थित हैं। इस मंदिर में, राधा-विरह-विधुर  श्रीचैतन्य, और कृष्ण-विरह-विधुर जगन्नाथ भी हैं। हम अब एक राधा-गोपीनाथ मंदिर का निर्माण कर रहे हैं, और इसमें राधा-गोपीनाथ के विग्रह स्थापित करेंगे। अतः अब राधा का आगमन हो रहा है।

 

प्रभुपादजी महाराज की जय!

समावेत भक्त-वृंद की जय!

जय जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा देवी की जय!

जय श्री सचिंदन गौरहरि की जय!

गौर भक्त-वृंद की जय!

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