आध्यात्मिक चुनौतियाँ
श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की महती कृपा से हम अपने शुद्धिकरण हेतु विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। इस लेख में हम विशेषतया अपना ध्यान आध्यात्मिक जीवन की उन चुनौतियों पर केंद्रित करेंगे जो अजेय प्रतीत होती हैं।
श्रीगुरु नित्य रूप से पूर्ववर्ती आचार्यों एवं अपने आराध्य-देव की प्रेममयी सेवा में निमग्न रहते हैं। भगवान की सेवा के अतिरिक्त उनकी कोई अभिलाषा नहीं रहती, इसी कारण से वे ‘सेवक-भगवान’ हैं। अतएव यदि हमारे हृदय में उनके प्रति भृत्यभाव या उनकी सेवा के प्रति आत्मीयता का भाव नहीं है, तो निःसंदेह हमारा आध्यात्मिक जीवन विपत्तियों से घिर जाएगा।
यह गुह्यतम रहस्य केवल कुछ भाग्यशाली जीव ही समझ पाते हैं। वस्तुतः वे ही सत् शिष्य तथा श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की कृपा प्राप्त करने के वास्तविक अधिकारी हैं। एक दिन, श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्यों से पूछा, “हमारे ग्रंथों में कौनसा श्लोक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है?” भक्त श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीमद्भागवतम् में से कई श्लोकों का उच्चारण करने लगे। अंत में श्रील प्रभुपाद ने कहा, “नहीं, सबसे महत्वपूर्ण श्लोक है:
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद ६.२३)
जिन व्यक्तियों की भगवान् तथा श्रीगुरु दोनों पर अविचल श्रद्धा होती है, उन्हीं महात्माओं को वैदिक ज्ञान का आशय स्वतः प्रकट होता है।”
वैष्णव सिद्धान्त का यह गुरुत्वपूर्ण निर्देश है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने हेतु हमें प्रत्येक क्षण अपना ध्यान श्रीगुरु की प्रसन्नता पर केन्द्रित करना होगा। चूँकि हमारी श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की प्रेममयी सेवा करने के अतिरिक्त कई अन्य अभिलाषाऍं हैं, इसलिए हम इस तथ्य अथवा रहस्य के गुह्य मर्म को समझ नहीं पाते। साधु एवं शास्त्र हमें बारंबार सचेत करते हैं कि श्रीगुरु को साधारण मर्त्य-जगत का मनुष्य नहीं मानना चाहिए, किन्तु फिर भी हम जाने-अन्जाने श्रीगुरु में दोष-दर्शन करने लगते हैं। हमारा मन सदैव भक्तों के गुण-दोषों का अन्वेषण करता रहता है, जो अंतत: हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि इस संसार में शुद्ध-भक्त मिलना कितना दुस्साध्य है। इस प्रकार यह परदोष-दर्शन वृत्ति निरन्तर हमारे आध्यात्मिक जीवन में बाधाऍं उत्पन्न करती रहती है। हमारा मन चञ्चल है क्योंकि हम निजी पवित्रता का विचार न करते हुए अन्यों की पवित्रता को मापना चाहते हैं। हमारा मन कभी हमें अपनी कमी या दोष देखने की अनुमति नहीं देता, इसके बजाय वह दूसरों की कमियाँ देखने के लिए सर्वथा आतुर रहता है। इसलिए हम दूसरों पर दोषारोपण करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं और अंततोगत्वा हमारे श्रवण और हमारी हरि-कथा का एकमात्र विषय केवल परदोष-चर्चा बनकर रह जाता है। हमारी यह प्रवृत्ति इतनी प्रगाढ़ होती है कि हम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अविच्छिन्न परदोष कीर्तन करते रहते हैं। उदाहरणत:, जिस प्रकार का भोजन हमारे उदर में होता है, हमारे मुख में सदा उसी तरह की गंध होती है। ठीक इसी प्रकार जब तक हम श्रीगुरु का संग करके, उनकी सेवा करके तथा उनके श्रीचरणों की रज प्राप्त करके उनके मनोभीष्ट को आत्मसाथ नहीं करते, तब तक हम अपने आध्यात्मिक जीवन की इस गंभीर समस्या का समाधान नहीं कर पाऍंगे।
हमें सर्वदा स्वयं को याद दिलाना होगा कि केवल शास्त्र अध्ययन या प्रचार करने से सारतत्व प्रकाशित नहीं होगा। वह तब प्रकाशित होगा जब हम श्रीगुरु की प्रेममयी सेवा में पूर्ण रूप से संबद्ध हो जाऍंगे। श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग परम तथा पूर्ण वस्तु हैं, अतएव हम उन्हें अपूर्ण मानते हुए उनकी आत्मीय सेवा नहीं कर सकते। वास्तव में, हमारा यथार्थ स्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर से स्वाभाविक प्रेम करना है, वहीं अपूर्ण वस्तुओं के प्रति हमारा यह प्रेम बनावटी है। जीवात्मा, परमात्मा के साथ अपने निर्मल स्वाभाविक प्रेम में और इस तथाकथित सांसारिक प्रेम में स्वर्ग और नर्क का अंतर बना बैठी है। जिस प्रकार एक माँ का अपने पुत्र तथा कन्या के प्रति तथा एक पतिव्रता स्त्री का अपने पति के प्रति स्वभावसिद्ध स्नेह होता है उसी प्रकार यदि हम देखना चाहते हैं कि परमात्मा के प्रति जीवात्मा का स्वाभाविक प्रेम तथा स्नेह किस प्रकार है, तो हमें इसे श्रीगुरु के जीवन-आदर्श में देखना चाहिए, क्योंकि इसे समझने का कोई अन्यत्र उपाय नहीं है। आध्यात्मिक जीवन में हमारा प्रत्येक प्रयास श्रीगुरु की वास्तविक संपत्ति, उनके नैसर्गिक भगवत्प्रेम के दर्शन करने पर ही केन्द्रित है। यही हमारे आध्यात्मिक जीवन की वास्तविक तपस्या है। परंतु इस परम प्रयोजन की प्राप्ति के लिए हमें श्रीगुरु संसार में एक सक्रिय सदस्य बनना होगा।
श्रीगुरु पादपद्म के प्रति हमारा स्वाभाविक आकर्षण नहीं है, इसलिए वह कृपा करके हमें अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। किन्तु हमारा यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि यथार्थत: ‘श्रीगुरु’ कौन हैं? जो अहर्निश, २४ घंटे अविरल रूप से गुरु एवं कृष्ण की प्रेममयी सेवा में संलग्न रहते हैं, और साथ में अन्यों को भी श्रीकृष्ण की सेवा में नियुक्त करते हैं, वे ही ‘श्रीगुरु’ हैं। जिस प्रकार श्रीकृष्ण सर्वाकर्षक हैं, उसी प्रकार श्रीगुरु, जो भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हैं, वे भी सर्वाकर्षक हैं, किन्तु अंतर यह है कि श्रीकृष्ण भोक्ता के रूप में सभी जीवों को आकर्षित करते हैं, वरन् श्रीगुरु के प्रकरण में यह भिन्न है। वे प्रतिक्षण केवल यही विचार करते हैं कि किस प्रकार श्रीकृष्ण की प्रसन्नता व उन्हें आनंद प्रदान करने हेतु सेवा की जाए। अतएव वे श्रीकृष्ण के सच्चे सेवक के रूप में अपनी विशुद्ध एवं निःस्वार्थ प्रेममयी सेवा द्वारा जीवों को कृष्ण-सेवा की ओर आकर्षित करते हैं और श्रीकृष्ण सेवानन्द की अगाध मधुरता को पान करने का सुअवसर प्रदान करते हैं। वे जीवों के एकमात्र उद्धारकर्ता हैं, अतएव उनका जीवन व उनके प्राण इस अद्वितीय एवं अतुलनीय कार्य के लिए समर्पित है। यदि हम इस तत्व को समझने में अक्षम रहते हैं या इस मूलभूत विषय को समझने में अनावश्यक विलम्ब करते हैं तो हमारे जीवन में अमंगलता, नीले अंबर में काले बादलों के भाँति फैल जाएगी। प्रायतः हम अपने को इसी दुविधा में पाते हैं। अतएव हमें श्रीगुरु की अहैतुकि कृपा आकर्षित करने के लिए अविच्छिन्न भाव से प्रार्थना व क्रंदन करना होगा। जब हमारी दयनीय प्रार्थना श्रीगुरु के हृदय को स्पर्श करेगी, तब वे अपनी असीम कृपा तथा सर्वोत्तम व्यवस्था द्वारा हमारे आध्यात्मिक जीवन के नेतृत्व का भार अपने हाथ में ले लेंगे। फलस्वरूप, हमारे हृदय में श्रीगुरु के प्रति वास्तविक आकर्षण उदित होगा।
श्रीकृष्ण की व्यवस्था या पूर्व संचित सुकृतियों से हमें शुद्ध साधु के सम्पर्क में आने का सुअवसर प्राप्त होता है। किंतु अपने दांभिक स्वभाव के कारण हम उनकी दिव्यता से अनभिज्ञ रहते हैं। हमारी जो भी योग्यताऍं हैं, वे भौतिक स्तर पर हैं, फिर भी हम इन क्षमताओं पर घमंड करते हैं। हमें स्मरण रहना चाहिए:
दीनेरे अधिक दया करे भगवान्।
कुलीन, पण्डित, धनीर बड़ अभिमान॥
[श्रीचैतन्य चरितामृत, अंत्य लीला, 4.68]
"पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सदैव दीनों तथा दुखियारों के प्रति कृपालु रहते हैं, किन्तु कुलीन, विद्वान तथा धनी सदैव अपने पदों का गर्व करते हैं।"
वास्तविक सेवक बनने हेतु हमें मिथ्या अभिमान से विहीन होना होगा, परन्तु मिथ्या अभिमान से मुक्त होने का क्या उपाय है? जब हम श्रीगुरु के प्रति आकृष्ट एवं एकनिष्ठ हो जाते हैं, तब हम सरल हृदय से उनके निर्देशों का पालन करने लगते हैं। तभी हम समझ पाते हैं कि वे कितने बलवन्त अथवा ‘गुरुः’ हैं, हम कितने दुर्बल अथवा ‘लघुः’ हैं, और किस प्रकार हम असंख्य दोषों से परिपूर्ण हैं। दंभ हमारी अन्तश्चेतना को पूरी तरह आच्छादित कर देता है, इसलिए हम अपनी त्रुटियों को देख नहीं पाते। मूलतः इसी कारणवश हम श्रीगुरु के वास्तविक दर्शन नहीं कर पाते। हमारे भीतर मिथ्या अभिमान की उपस्थिति स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि हम श्रीगुरु के चरणकमलों में स्थित होने के बजाय उनके मस्तक पर विराजमान हैं। उड़िया में इसे ‘गुरु-गिरि’ कहते हैं। समाज में प्रसिद्धि पाने की लालसा से हम स्वयं को विनम्र प्रदर्शित करते हैं, किन्तु दंभ हमारे मन में अपने विभिन्न उग्र रूपों में निवास करता है। मन हमें भरमाता है, ‘मुझ जैसा विनीत अन्य कोई नहीं है’ और इस मानसिकता के कारण हम श्रीगुरु से दूरस्थ रहते हैं। जब हम भगवत् सिद्धांत का प्रचार अथवा भजन-कीर्तन का गायन करते हैं, तब हम यह भूल जाते हैं कि श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग ही वास्तविक प्रचारक अथवा गायक हैं। फलत: जब लोग हमारी प्रशंसा करते हैं, तो हम अपनी अधिकाधिक प्रशंसा सुनने के लिए अतिशय उत्कण्ठित हो जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम श्रीगुरु का महिमागान केवल इसलिए करते हैं ताकि हमारा महिमागान हो सके। इस स्तर पर हमारा श्रवण और कीर्तन श्रीगुरु की प्रसन्नता के लिए नहीं, बल्कि उनकी अपार महिमा का प्रयोग करके अपनी यश-कीर्ति को बढ़ावा देने के लिए होता है। यह घोर कपटता है, जिसमें बाह्य रूप से तो हम श्रीगुरु का गुणगान करते हैं, किन्तु आंतरिक रूप से हम एक मापक के भाँति माप, तुलना व मूल्यांकन कर रहे होते हैं। बाह्य तौर पर हम उत्तम साज-सामग्री से श्रीगुरु की अर्चना व सेवा करते हैं, किन्तु हृदय में हम श्रीगुरु की आवश्यकता, उनका ज्ञान एवं भक्ति-भाव मूल्यांकित करते हैं। हमें स्मरण रहना चाहिए कि हमारी अन्तश्चेतना प्रायः माया से प्रभावित रहती है और कदाचित ही कृष्ण चेतना की ओर उन्मुख होती है। अतः हम एक चिकित्सक नहीं, वरन् एक गंभीर रोगी हैं। हम अपने इस भीषण अपराध के परिणाम से अनभिज्ञ हैं।
दूसरों द्वारा महिमामण्डन स्वीकार करने के कारण अथवा अपनी भौतिक योग्यताओं के कारण, हम श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के आदेशवाहक के अपने सर्वमंगलकारी पद से विस्मृत हो जाते हैं, जिसके कारण हम श्रीगुरु द्वारा स्थापित संस्था का अनुरक्षण नहीं करना चाहते। प्रबन्धन एवं प्रचार का यह अर्थ नहीं कि इनके द्वारा हम स्वयं को प्रतिष्ठित करें। प्रबन्धन एवं प्रचार के माध्यम से हमें आचार्य के दिव्य पद एवं उनके त्रिगुणातीत सिद्धांत को स्थापित करना है। इस सेवा का यथोचित प्रतिपादन करने से श्रीगुरु एवं श्रीकृष्ण हमारा पालन और हमारी रक्षा अवश्य करेंगे। जो सदैव अपने में ही व्यस्त रहते हैं, वे अरक्षित अनुभव करते हैं। बिना किसी स्वार्थ के आचार्य की शिक्षाओं को प्रतिस्थापित करना ही वास्तविक आध्यात्मिक सुरक्षा प्राप्त करने का सूत्र है। हमारे सभी प्रयासों का आधार यह होना चाहिए कि हम श्रीगुरु और आचार्य की दिव्य स्थिति को कैसे समझें और उनके मिशन को कैसे स्थापित करें। यह सहज कार्य नहीं है। जब हम भजन करते हैं, तब हम केवल आंतरिक चुनौतियों का सामना करते हैं, किन्तु जब हम श्रीगुरु के मिशन को स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं, तब हमें अधिकतर बाहरी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, विशेष रूप से ईर्ष्या का। इसलिए श्रील प्रभुपाद ने कहा है, “मेरे गुरु महाराज क्यों कहते हैं कि यह भौतिक संसार सज्जन व्यक्तियों के निवास हेतु उपयुक्त स्थान नहीं, क्योंकि यहॉं हम सदैव ईर्ष्यालु व्यक्तियों से घिरे रहेंगे”। अतः यह समस्याऍं आऍंगी ही, किन्तु क्या आचार्य सिद्धांत की स्थापना में संलग्न हुए बिना, कृपा प्राप्त करने का कोई अन्य साधन है?
सम्पूर्ण साज-सामग्री वस्तुतः श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की संपदा है, परन्तु उनकी प्रसन्नता के लिए उन्हीं की सामग्री को दासत्व भाव से उन्हीं की सेवा-अर्चना में प्रयोग करना भी इन दिनों एक चुनौती बन गयी है। अपनी भोग प्रवृत्ति के कारण हम उनकी सभी सामग्रियों को भौतिक विषय वस्तु मान बैठते हैं। फलत: हमारी यह विचारधारा बन जाती है कि, “मैं ही हर एक सामग्री की व्यवस्थापक हूँ”, क्योंकि हम यह भूल जाते हैं कि हम श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के हाथों में मात्र एक उपकरण हैं। किन्तु यंत्रों के संचालन के लिए उसके उपकरणों के पास भी कुछ निजी शक्ति होती है, अतएव हमारी वास्तविक स्थिति उपकरण की नहीं, अपितु एक कठपुतली के सदृश है। यदि हम श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के हस्तकमलों द्वारा नियंत्रित एक कठपुतली बन जाते हैं, तो हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा। इसके लिए हमें उनसे विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करनी होगी, ‘श्रील गुरुदेव, मैं व्यर्थ हूँ, कृपया मुझे अपनी सेवा में उपयोग कीजिए।” श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के चरणकमलों में हमारी यही प्रार्थना होनी चाहिए।
वैष्णव दासानुदास
हलधर स्वामी
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